बस्तर के आदिवासी समाज में पारद परम्परा | Bastar Ke Adiwasi Samaj Me Parad Parampara

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बस्तर के आदिवासी समाज में पारद परम्परा | Bastar Ke Adiwasi Samaj Me Parad Parampara

बस्तर की हल्बी बोली का शब्द है पारद का शाब्दिक अर्थ शिकार होता है। गोण्डी बोली में इसे वेट्टा, हिन्दी में शिकार खेलना, हल्बी में पारद खेलतो तथा गोण्डी में कोटुम वली दायना कहते है। जिसका अर्थ पारद (शिकार) खेलने जाना है। कुशल शिकारी या राजा महाराजा की तरह आदिवासी समाज शौक से नहीं अपितु समाज की मान्य परम्पराओं के अनुसार पारद (शिकार) खेलता है।

यहाँ हिंसक पशुओं को मचान बनाकर नहीं मारा जाता, न ही उन्हें जहर देकर मारने का प्रयास किया जाता है। अपने और अपनी फसल की सुरक्षा के लिये आदिवासी समाज अपने खेतों में लाड़ी बनाकर रहता है। यहाँ जलने वाली आग के प्रकाश से हिंसक जीवों का खतरा नहीं होता है। गाँव में जिस ओर से हिंसक पशु के आने का खतरा होता है, उस ओर घोटुल की स्थापना कर शोर किया जाता ताकि उस ओर से हिंसक पशुओं की आवाजाही न हो।

माटी तिहार के पूर्व माटी माता को शिकार समर्पित करने के लिये, उत्साही नवयुवक लोग शौक से भी पारद खेलने जाते हैं। गाँव में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो कि पारद खेलने जाना आवश्यक हो, तब देव बैठाकर देवता से • अनुमति ली जाती है। सिरहा के ऊपर आरुढ़ देवता उसे आज्ञा देते हैं।

पारद खेलने वह देवाज्ञा से जाता है, इसके लिये समूह में गाँव के प्रत्येक घर से एक आदमी का भाग लेना अनिवार्य है। सबके सब पारम्परिक हथियार तीर-धनुष, टंगिया, फरसा, बरछी, भाला आदि, लिये होते हैं। जिनके पास भरमार बन्दुक होती है वे ही प्रमुख शिकारी होते हैं।

इस समूह को ग्राम के प्रमुख लोग गाँव के संध (सीमा) में विदाई देने आते हैं। देवता ही बताते हैं कि किस दिशा में जाने से उन्हें शिकार मिलेगा, उसी दिशा के संघ तक इन्हें विदाई दी जाती है। प्रत्येक गाँव के चारों ओर उसका संध (सीमा) होता है। पारदी समूह ग्राम प्रमुखों को पारद खेलने जाने के विषय में सूचित करते हैं।

माटी गांयता अपने ग्राम देव स्थल में माटी माता (तलुर मुत्ते) से इजाजत माँगता है। पूजा करने के बाद वह निवेदन करता है कि हे माता गाँव के सभी घर से बच्चे जा रहे हैं उनकी रक्षा करना। प्रार्थना करने के बाद विदाई दी जाती है। इस दल को अनिवार्यतः शिकार लानलिये लगातार तीन दिन तक सामूहिक प्रयास किया जाता है।

आदिवासी समाज के लिये पारद एक धार्मिक अनुष्ठान है, जब गाँव में कोई आपदा, महामारी आदि फैलती है तब कहा जाता है कि गाँव बिगड़ गया है। इससे आदिम समाज का आशय यह होता है कि उसके या गाँव के किसी व्यक्ति के किसी कृत्य से देवताओं में नाराजगी है, इसलिये उसके सामने यह आफत आई हैं।

यह आफत बीमारी के रूप में आती है या अचानक गाँव के बकरी वगैरह पालतू पशुओं को शेर चीता या हिंसक जानवर मारकर खा जाते हैं। आदिम समाज इसे अपशकुन के रूप में लेता है।

बैठक कर सलाह मशविरा किया जाता है। सामान्यतः गांयता, पुजारी के कारण या उनके गलत आचरण के कारण यह संकट आया है, ऐसा माना जाता है। तब उन्हें बदलने के लिये युवा आक्रोशित होकर बैठक आयोजित करते हैं। आदिम समाज में एक स्वस्थ्य परम्परा है, कि जिस किसी व्यक्ति के ऊपर आरोप लगाया जाता है, वह उन आरोपों का जवाब देता है और सबके सामने अपनी गलती स्वीकार करता है, सजा देने या न देने का काम बैठक में उपस्थित लोगों का होता है।

बैठक का आयोजन किसी सार्वजनिक स्थान, घोटुल, थानागुड़ी आदि पर किया जाता है। ढोल बजाकर या तोड़ी फूंक कर लोगों को सूचना से सभी लोग इकट्ठे हो जाते है तब आयोजनकर्ता या गाँव का मुखिया बैठक का विषय बताता है। उनके गाँव में वर्तमान में किस कारण से आपदा आई है, यह कारण ‘देवताओं की नाराजगी से जुड़ी होती है, तब माटी गायता और पुजारी द्वारा प्रश्न प्रतिप्रश्न का विस्तार से उत्तर दिया जाता है, यदि उनके द्वारा कोई गलती की गई होती है तो उसे वे पूरी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं।

उनके जवाब के बाद सभी चर्चा में भाग लेकर किसी निर्णय तक पहुँचते है। सामान्यतः पुजारी और माटी गायता के ऊपर देव काम के दिन शराब पीकर बुरा प्रदर्शन करने का ही आरोप होता है और खास कर युवा चाहतें है कि उन्हें बदला जाये किसी योग्य अन्य व्यक्ति को इस महत्त्वपूर्ण कार्य का भार सौंपा जाये, जिससे उनके गाँव में किसी प्रकार की महामारी न फैले एवं सार्वजनिक कार्यों में अच्छा प्रदर्शन हो और लोगों के बीच अच्छा संदेश जाये।

आदिम समाज पुजारी और गायता उसी खानदान के किसी व्यक्ति को बनाया जाता है, जिस खानदान का पहले पुजारी या गांयता रहा है जिनके पूर्वजों ने उस गाँव को बसाया है और जिनके द्वारा उस ग्राम के देवताओं की पूर्व से सेवा की जाती रही है।

कहते हैं कि अपना सिरहा (देवता जिसके सिर चढ़ता है) देवता स्वयं चुनता है, व भी ऐसे व्यक्ति को जो अभी किशोर अवस्था में है। उसकी कठिन परीक्षा ली जाती है, उसमें पास होने के बाद उसे सिरहा की उपाधि दी जाती है। जब पुजारी या गांयता का चुनाव गाँव के द्वारा सर्वसम्मति से कर लिया जाता है तब अपने निर्णय की सत्यता की परीक्षा करने के लिये पारद खेलने की परम्परा है। क्योंकि उनके गाँव के द्वारा लिया गया निर्णय सही है या गलत, यह पारद की सफलता पर निर्भर करता है।

गांयता या पुजारी चुने हुये व्यक्ति को अपनी योग्यता साबित करने के लिये पारद खेल कर किसी वनजीव का शिकार करना होता है। उसी व्यक्ति को पारद समूह का नेतृत्व कर्ता नियुक्त किया जाता है और उसका सहयोग करने के लिये गाँव के प्रत्येक घर से एक व्यक्ति पारद समूह का सदस्य होता है।

निर्धारित दिन देव गुड़ी में अपने अपने पारम्परिक हथियारों के साथ एकत्रित है ग्राम देवता की विधिवत पूजा की जाती है और मनौती माँगी जाती है। कि हे देव हमारे गाँव ने नया पुजारी या गांयता का चुनाव किया है, ये लोग अपनी योग्यता साबित करने के लिये पारद खेलने जा रहे हैं, जो भी शिकार मारकर लायेंगें, उसे पहले आपको अर्पित करेंगें, इन्हें आशीर्वाद दें।

पुजारी चुनाव के लिये पारद को गोण्डी में पुजारी वेंट्टा और गांयता चयन के लिये गांयता बेट्टा कहा जाता है। फिर देव बैठाया जाता है देव से पूछने पर देवता ही बताता है। कि इस पारद समूह को पारद खेलने किस दिशा में जाना है कहाँ शिकार मिलने की सम्भावना है आदि। इस पारद समूह को कितने दिन में वापस आना है यह भी उसी समय तय कर दिया जाता है।

पारद समूह जब गाँव लौटता है तब आदिम समाज इस समूह की सफलता असफलता का निर्णय उनके द्वारा लाये गये शिकार पर निर्भर करता है मान लीजिये पारद समूह ने निर्धारित अवधि में यदि लम्हा (खरगोश) गोण्डी में मलोल या कोडरी चिकारा गोण्डी में कोडराल का शिकार कर लाते है तब उन्हें असफल, यदि शिकार हिरण या चीतल हो तो योग्यता काम चलाऊ आँकी जाती है।

यदि शिकार जब जंगली सूअरे (गोण्डी में कोटुमपद या’ गेड़ापद ) या जंगली भैंस (गंवर) (गोण्डी में परमावो अबुझमाड़ी में बुड़गाल मावो ) मारकर लाते हैं, तब गाँव अपने चुनाव को सही मानता है। पूर्णत सफलता के लिये मादा का शिकार अच्छा माना जाता शिकार करना अनिवार्य है।

यदि पारद समूह को कोई शिकार नहीं • मिलता तो उसे जंगली मुर्गा जिसे गोण्डी में कोटुमकोर% कहा जाता है, मारते हैं, इसे भी मादा ही होना चाहिये। यदि पारद समूह अपने कार्य में सफल होता है, तो वेट्टा अरतो कहा जाता है। जिसका अर्थ पारद शुभ हुआ होता है।

आदिवासी समाज अक्षय तृतीया (अकतई) के पश्चात आमा जोग़ानी त्यौहार मनाता है, इसे % कोहका साड% भी कहते हैं। कोहका हिन्दी में भिलावा (भेलवा) का गोण्डी नाम है, यह औषधीय फल होने से इस साड़ साड़ का नाम कोहका साड़ पड़ा, इसे %माटी तिहार% भी कहा जाता है।

उससे पहले सात दिनों तक गाँव के घोटुल में ढोल नाच होता है और दिन में सब पारद खेलने जाते है। इससे आदिवासी समाज अपने ग्राम देवी माटी माय को सम्मान पूर्वक कोई न कोई वन्य जीव की बलि अर्पित करता है। साड़ के दिन गाँव के छोटे-छोटे बच्चे हाथ में नुकीली लकड़ी लेकर हर घर में शुभ चिह्न बनाते हैं, साथ में गाना भी गाते है जिसे कोहका पाटा कहतें है।

पाटा अर्थात् गीत होता है, जो इस प्रकार है

को को को मलोल हवी
(हिन्दी में) हो हो हो खरगोश का माँस
को को को कोडराल हवी
(हिन्दी में) हो हो हो कोडरी (चिकारा) का माँस
को को को परमाव हवी
(हिन्दी में) हो हो हो जंगली भैंसा का माँस
को को को काटुमपदी हवी
(हिन्दी में) हो हो हो जंगली सुअर का माँस

इस पाटा (गीत) में सभी वनजीवों का नाम लिया जाता है, जिसे देवताओं को अर्पण करने की परम्परा है। पारद खेलने देव गुड़ी निर्माण और घोटुल निर्माण के समय में भी जाते हैं। आदिम समाज के लिये पारद एक खेल नहीं है, वरन् उनकी मान्य परम्परा का अनिवार्य हिस्सा है।

समाज इसे अपना पुरुषार्थ मानता है तभी तो पारद उनके लोक गीत और लोक नृत्य में समाहित हो गया है। जब भी वह अपनी लोक संस्कृति को प्रदर्शित करता है तब गंवर नृत्य का प्रदर्शन जरूर करता है। है, इसमें नर्तक समूह मादर बजाते रहता है, कुछ युवा नकली तीर-धनुष लिये होते हैं और दो व्यक्ति कर स में एक पारद समूह शिकार खेलने जाता है।

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