जैन मंदिर आरंग रायपुर | Jain Mandir Arang Raipur Chhattisgarh

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जैन मंदिर आरंग रायपुर

1.आरंग जैन मंदिर भारत के आरंग, रायपुर, में तीन जैन मंदिरों का समूह है।

2.ये मंदिर 9 वीं और 11 वीं शताब्दी के हैं।

3.आरंग पर प्राचीन काल में हैहयस राजपूत वंश का शासन था।

4.जैन मंदिर आरंग रायपुर पुरातात्विक खोजों से पता चलता है कि इस शहर का हिंदू और जैन धार्मिक विश्वासों के केंद्र के रूप में एक प्राचीन इतिहास था।

5.आरंग का उल्लेख हिंदू महाकाव्य महाभारत में भी मिलता है। आरंग में कई जैन और हिंदू मंदिर हैं जो 9 वीं से 11 वीं शताब्दी के हैं।

6.कस्बे में किए गए पुरातात्विक उत्खनन ने शहर के प्राचीन इतिहास को एक हिंदू और जैन धार्मिक केंद्र के रूप में पुष्टि की है, जो हिंदू राजाओं के शासन में समृद्ध था।

7.आरंग में भांड देवल मंदिर और बाग देवल मंदिर विशेष रूप से प्राचीन और प्रसिद्ध हैं।

8.मई, 2017 में इस मंदिर के पास आदिनाथ (ऋषभनाथ) की एक मूर्ति की खुदाई की गई थी। यह मूर्ति ऊंचाई में 1.16 मीटर, चौड़ाई में 37 सेंटीमीटर और मोटाई में 21 सेंटीमीटर है।

9.इस खड़ी हुई मूर्ति के दो तरफ घुटने के क्षेत्र के पास एक यक्ष और यक्षिणी है। मूर्तिकला 5 वीं -6 वीं शताब्दी ईस्वी की है।.

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आरंग का जैन पुरातत्व 

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 45 कि.मी. दूर सम्बलपुर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. 30 पर स्थित आरंग पुरातात्विक सम्पदा से एक प्राचीन नगर है।

इसका भौगोलिक विस्तार 21ए12% उत्तरी अक्षांश से 81ए59% पूर्वी देशांतर के मध्य है। समुद्र तल से यह नगर 319 मी. की ऊँचाई पर स्थित है। वर्तमान में यह तहसील मुख्यालय है। इसके पूर्व में लगभग 6 कि.मी. की दूरी पर महानदी बहती है।

इस नगर का सर्वेक्षण के दौरान पूर्व से पश्चिम तक लगभग 2.5 कि.मी. उत्तर से दक्षिण तक 1.5 कि. मी. के क्षेत्र में प्राचीन स्थापत्य के अवशेष देखने को मिलते हैं। संभवत: यह प्राचीन नगर महानदी तक फैला हुआ था। क्योंकि वहाँ भी प्राचीन ईंटें बड़ी मात्रा में सतह पर देखने को मिलती हैं।

किसी समय नगर के उत्तर और उत्तरपूर्व में ईंटों से बने भवनों की सैकड़ों नींवें सभी और दिखाई देती थीं। जहाँ से लोग ईंट और पत्थर अपने भवन निर्माण के लिए निकालते थे। प्राचीन भवनों से ईंट और पत्थरों को निकालकर नये मकान बनाने की प्रक्रिया इतनी तीव्र थी कि लगभग एक शताब्दी पहले अरंग के सभी मकान प्राचीन ईंट-पत्थरों से बने दिखाई देते थे।

आरंग में अनेक मंदिरों के अवशेष मिलते हैं किंतु तीन ही स्थापत्य एवं कला के दृष्टि से उल्लेखनीय है। इनमें भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण जैन-मंदिर है जो भाण्ड- देवल मंदिर के नाम से विख्यात है। यद्यपि इसकी स्थापत्य संरचना का· प्रमुख अंग खासकर मण्डप नष्ट प्राय है तथापि इसके विमान की संरचना उत्कृष्ट और आकर्षक है।

इसके शिखर के सम्मुख भाग की कई बार मरम्मत की जा चुकी है, इसके बावजूद इसका शिखर अपनी रूप-रेखा में स्पष्टत है। मंदिर बाहर से आकर्षक नक्काशी से समृद्ध और मूर्तियों से अलंकृत है। स्थापत्य कला की दृष्टि से बाघ देवल और महामाया मंदिर ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इनका जीर्णोद्वार होने के कारण मूल स्वरूप विलुप्त हो चुका है।

इसलिए स्थापत्य की दृष्टि से जैन मंदिर माण्ड- देवल का उल्लेख करना समीचिन होगा। भू-विन्यास की दृष्टि से यह मंदिर ऊँची जगती- पीठ पर अवस्थित पश्चिमाभिमुखी है। इसका गर्भगृह पंचरथ शैली में निर्मित है तथा शिखर भूमिज शैली का है।

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इस शैली का उद्गम और विकास मालवा (मध्यप्रदेश) में हुआ। छत्तीसगढ़ में इस शैली का यह एक मात्र मंदिर है। इसका मण्डप और अर्धमण्डप पूर्णत: विनष्ट हो चुका है।

मंदिर के उत्सेध विन्यास में जगती में क्रम से पत्रावली गजथर, अश्वथर और नस्थर का अंकन है। नरथर में नृत्य एवं संगीत के दृश्य है, जिसमें समुद्र मंथन का दृश्य आकर्षक है। जगती के ऊपर अधिष्ठान में खुर का तथा कुम्भ का अंकन किया गया है तथा जंघा के उपरी भाग में आलों में यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमाएँ हैं।

आलों के मध्यवर्ती भागों में लौकिक विषय से संबद्ध मूर्तियों का अंकन मिलता है। जघा भाग में दो क्षैतिजीय खण्डों में नीचे-उपर अंकन किया गया है। जंघा भाग के इन अलंकरणों में नृत्यस्त अप्सरा, दाढीधारी पुरुष, यक्षी, देव, व्याल तथा मृदंग, ढोल-बोल आदि बजाते हुए नर्तक वादक एवं विविध मिथुन दृश्यों का शिल्पांकन है।

जंघा के उपर शिखर भूमिज शैली का है जो क्षेत्रीय कलचुरि शैली स्थापत्य कला का प्रतिनिधित्व करता है शिखर पंच-तलों वाला है जिसके दो लघु शिखर पृथ्वी के समानांतर एवं पांच लम्बवत पंक्तियों में है जिनका अंकन चारों ओर हुआ है। शिखर की मूल मंजरी का अलंकरण चैत्य गवाक्षों से जुड़ा हुआ है एवं दक्षिण दिशा के मूल मंजरी वर्तमान में शेष है जिसके आले में ललितासन में बैठी चतुर्भुज शासन देवी यक्षी का अंकन है।

मूल मंजरी के उपरी भाग में तीर्थंकर पदमासन और खड्गासन मुद्रा में ध्यानस्थ हैं। शिखर के उपर एक विशाल गोल आमलक है। इसका शिखर कालान्तर में मरम्मत हुआ है। उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व का अधिकांश हिस्सा नष्ट हो चुका है परंतु अभी भी शिखर सुंदर व आकर्षक है। मंदिर की जगती नवनिर्मित है जो 8.01 मी. लंबी 6.05 मी. चौड़ी एवं 1.8 मी. उँची है।

मंदिर के द्वार चौखट पहुँचने के लिए इसमें पश्चिम दिशा में चार सीढ़ियाँ तक बनी हुई है। मंदिर का गर्भगृह, मंडप के सतह से गहरा है जिसमें तीन सीढ़ियाँ उतर कर गर्भगृह में प्रवेश होता है। इसमें तीन जैन तीर्थंकरों की काले पत्थर की ओपदार स्थानक प्रतिमाएँ प्रदर्शित हैं।

ये प्रतिमाएँ शांतिनाथ, श्रेयांशनाथ एवं अनंतनाथ की हैं जो अलंकृत तोरण में अधिष्ठापित हैं। गर्भगृह की छत पर ताड़पत्रों एवं पुष्पों को सुंदर रूप से उकेरा गया है। छत के कोनों से जुड़ी हुई अप्सराओं का अंकन भी दर्शनीय है। छत के शीर्ष भाग पर सुन्दर उत्फुल्ल कमल निर्मित है।

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छत सपाट एवं वर्गाकार है अंतराल एवं गर्भगृह के मध्य भित्ति-स्तंभ में नीचे की ओर दो नारी प्रतिमाओं का अंकन है। मंदिर का बाह्य भाग 6.90 मी. तथा 20 मी.. ऊँचा है। गर्भगृह की द्वारशाखा नष्ट हो चुकी है केवल द्वारशिला शेष है जिसके मध्य में मंदाकर तथा दोनो ओर हाथियों का अंकन है।

इस मंदिर में अप्सरा प्रतिमाओं के नृत्य, मृदंगवादक एवं यक्ष-यक्षिणीयां के अलावा मिथुन के विविध दृश्य है यह मंदिर स्थापत्य एवं कला की दृष्टि से 11वीं शती ई. के कलचुरि कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।

दूसरा अवलोकनीय मंदिर उपरोक्त जैन मंदिर के पूर्व दिशा में लगभग एक कि.मी. की दूरी पर स्थित है जिसे बाघ देवल नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यह मंदिर एक विशाल सादे और सुंदर मंदिर का आधुनिक रूप में जीर्णोद्धार है जो अत्यंत अनगढ़ तरीके से किया गया है। यह एक पूर्ण मंदिर है और अपनी शैली में खजुराहो के भग्न योगिनी मंदिर से समानता रखता है परंतु इसमें शिल्पकला और नक्काशी का अभाव है। यद्यपि जीर्णोद्धारित रूप में यह शिव मंदिर के रूप में वर्तमान है किंतु आरंग में पाये गये जैन मंदिरों के स्थापत्य अवशेषों और प्रतिमाओं से यह प्रतीत होता है कि यह निश्चय ही पहले जैन मंदिर या बिहार रहा होगा।

आरंग का तीसरा उल्लेखनीय मंदिर महामाया मंदिर है। यह भाण्डदेवल के पश्चिम में स्थित है। यह मंदिर भी जीर्णोद्धारित हैं और इसमें बहुत अधिक परिवर्तन, परिवर्धन किये गये हैं। मंदिर के आंगन में अनेक मूर्तियों संग्रहित हैं जिससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह कभी शिल्पों से अलंकृत वैभवशाली मंदिर था। यहाँ पर जैन तीर्थकरों की प्रतिमाएँ संरक्षित है जिनमें, अजितनाथ, नेमिनाथ श्रेयाशनाथ और विमलनाथ की पहचान सुरु हो चुकी है।

बाघेश्वर मंदिर के निकट चण्डी मंदिर स्थित है इस प्राचीन मंदिर का भी आधुनिक जीर्णोदार हुआ है यहां स्थित प्रतिमाएं अत्यंत सुंदर एवं सोमवंशी कला की परिचायक है। इनमें से एक प्रतिमा ध्यान मुद्रा में पद्मासन मुद्रा में बैठे प्रथम तीर्थकर आदिनाथ की है। दूसरी प्रतिमा स्थानक तीर्थकर के भग्न पैर के अवशेष है। चण्डी मंदिर के प्रागण की दीवाल में अनेक प्रतिमाएँ जहीं हुई है जिसमें एक तीर्थकर लघु प्रतिमा (30×25 सेमी) तथा दूसरा पार्श्वनाथ के उदर से नीचे का खण्डित भाग (36×42 सेंमी.) शेष है।

महामाया तालाब के पश्चिमी किनारे पर नवीनीकृत हनुमान मंदिर है। इसकी बाह्य भित्तियों पर सोमवंशी युग की कुछ प्रतिमाएँ प्रवेशद्वार के दोनों ओर लगी है जिसमें एक अज्ञात तीर्थंकर की कायोत्सर्ग प्रतिमा (160830 सेंमी.) उल्लेखनीय है। यह प्रतिमा लगभग 10 वीं शताब्दी ई. की है।

आरंग के जैन- पुरातत्त्व के अंतर्गत यहाँ मंदिर वास्तु के साथ साथ मूर्तिकला भी उत्कृष्ट एवं प्रशंसनीय है जिनमें भाण्ड देवल मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठापित 11वें 14वें और 16वें तीर्थकर क्रमश: श्रेयांशनाथ, अनंतनाथ और शांतिनाथ की प्रतिमाएँ हैं। मध्य में स्थित प्रतिमा शांतिनाथ की है जिसके लांछन चिहन के रूप में दो हिरण पादपीठ पर अंकित है।

इसके दायीं ओर श्रेयांशनाथ तथा बाई और अनंतनाथ की प्रतिमाएँ क्रमश: पादपीठ पर एक श्रृंग और सेही लाखन सहित हैं। तीनों तीर्थकरों के दोनो और उनके यक्ष और यक्षी का भी अंकन है। बेयांशनाथ का यक्ष बलेश्वर और यक्षी गौरी अनंतनाथ पाताल और यक्षी अनतमती शांतिनाथ का पक्ष गरुड़ तथा यही महामानसी आसन मुद्रा में अति किये गये हैं । 

इसी प्रकार प्रतिमा लक्षण के आधार पर श्रेयांशनाथ अनंतनाथ और शांतिनाथ के धारियों की पहचान क्रमश त्रिपिष्ट वासुदेव, पुरुषोत्तम वासुदेव और राजा पुरुषदत्त के रूप में की जा सकती है। पादपीतिका में अंकित लाछन के उपर कीर्तिमुखों का और नीचे चक का अंकन मिलता है। सभी तीर्थकरों के वितान में गजाभिषेक, छित्रावली एवं मालाधारी विद्याधरों का दोनों ओर अंकन है।

चण्डी मंदिर में चार तीर्थकर प्रतिमाएं है जिनमें प्रथम तीर्थकर आदिनाथ के अतिरिक्त तीन अन्य खण्डित है। खण्डित प्रतिमाओं में एक की पहचान पार्श्वनाथ ( 36×42 सेंमी.) के रूप में की गई है। आदिनाथ की प्रतिमा ध्यान मुद्रा में पदमासनस्थ है। उसके सिर पर कुंचित केशों का अंकन है और जटाएँ कंधों तक फैली हुई हैं।

उनके वक्ष पर श्रीवत्स लाछन और पादपीठिका पर वृषभ लांछन अंकित है उनके शीर्ष के उपर गजाभिषेक करते त्रिछत्र वितान का अंकन है तथा इसके दोनो ओर मालाधारी विद्याधरों का चित्रण किया गया है। पादपीठ के दायें ओर गोमुख यक्ष एवं बायीं ओर चक्रेश्वरी यक्षी को प्रदर्शित किया गया है।

महामाया मंदिर के चहारविवारी तथा मंदिर के मण्डप में भी जैन प्रतिमाएँ जड़ी हुई हैं। ये सभी प्रतिमाएँ कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। इनका अभिज्ञान दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ (चित्र सं.-05), ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांशनाथ (चित्र सं.-06), तेरहवें तीर्थकर विमलनाथ (चित्र सं. 07) और 21वें तीर्थंकर नेमिनाथ (चित्र सं. -08) के रूप में की गई है। इन तीर्थकरों की चौकी पर उनके लांछन चिन्ह क्रमश: गज एक श्रृंग, वराह और शंख का अंकन मिलता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है।

कि भाण्ड देवल मंदिर के तीर्थकर प्रतिमाओं के समान ही इन सभी के उपर गजाभिषिका तथा पाल गरी विद्या का अंकन है। पादचीत के दोनों ओर के भी बने है। अजितनाथ के साथ और नाथ के साथ शार और गौरी के साथ और पैरो तथा नेमीनाथ के वरुण और नरदत्ता यक्ष-यक्ष का अंकन प्राप्त होता है। इन प्रतिमाओं के आधार पर ऐसा “प्रतीत होता है कि ये मंदिर के गर्भगृह में स्थापित रहे होंगे। इसलिए आरंग में एक से अधिक जैन मंदिरों के अस्तित्व में होने की संभावना को बल मिलता है।

आरंग से तीर्थकरों की पाषाण प्रतिमाओं के साथ-साथ स्फटिक की प्रतिमाएँ भी प्राप्त हुई हैं। ये प्रतिमाएँ प्राचीन कला के क्षेत्र में सर्वथा अनूठी है। ये मूर्तिया आरंग के निकट एक क्षेत्र में किसी किसान को प्राप्त हुई थी जिसे 1897 ई. में गंगाधर गंधर्व ने रायपुर के दिगम्बर जैन मंदिर में स्थापित किया। इन मूर्तियों की संख्या तीन है जो

अष्टधातु से निर्मित एक पीठ पर पाई गई थी। परंतु अब उन्हें स्वर्णासन पर बैठाया गया है। इनमें सबसे बड़ी मूर्ति 07 सेंमी, उँची, 5.5 सेंमी. चौड़ी तथा 4.5 सेमी मोटी है। मूर्ति निर्माण के लिए चुना हुआ स्फटिक पत्थर अत्यंत पारदर्शक है और बहुत सालों तक जमीन में दबे होने के बाद भी उसमें किसी प्रकार की खराबी नहीं आई। सभी प्रतिमाएँ पद्मासन में बैठी हुई ध्यान मुद्रा में है।

मुखाकृति सामान्यतः गोलाकार है आंखे आयताकार अथवा चौकोर है मूर्ति के पाश्र्वभाग में सिर के ऊपर सप्तफण युक्त सर्पछत्र के रूप में दिखाई देता है। अतः इसकी पहचान तेइसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ से की गई है। इसके साथ जो दो अन्य प्रतिमाएँ मिली है वे अपेक्षाकृत छोटी है और उनका आकार क्रमश 5.5×45×4 सेमी तथा 35x25x3गी है।

इन दोनो प्रतिमाओं के लांछन अप्राप्त है। ये तीनो प्रतिमाएं भिन्न-भिन्न कालों में निर्मित हुई। पार्श्वनाथ की प्रतिमा का निर्माण 11-12वीं शती ई तथा अन्य दो प्रतिमाओं में से एक का निर्माण काल 7-6 वी ई सदी तथा दूसरे की 14-15वी ई. सदी निर्धारित की गई है।

आरंग के पुरातत्त्व का सर्वेक्षण करने पर और वर्तमान में उपलब्ध स्थापत्य एवं मूर्तिकला के अवशेषों का अध्ययन करने पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते। हैं। अष्टधातु से निर्मित एक पीठ पर पाई गई थी। परंतु अब उन्हें स्वर्णासन पर बैठाया गया है। इनमें सबसे बड़ी मूर्ति 07 सेंमी, उँची, 5.5 सेंमी. चौड़ी तथा 4.5 सेमी मोटी है। मूर्ति निर्माण के लिए चुना हुआ स्फटिक पत्थर अत्यंत पारदर्शक है और बहुत सालों तक जमीन में दबे होने के बाद भी उसमें किसी प्रकार की खराबी नहीं आई। सभी प्रतिमाएँ पद्मासन में बैठी हुई ध्यान मुद्रा में है।

मुखाकृति सामान्यतः गोलाकार है आंखे आयताकार अथवा चौकोर है मूर्ति के पाश्र्वभाग में सिर के ऊपर सप्तफण युक्त सर्पछत्र के रूप में दिखाई देता है। अतः इसकी पहचान तेइसवें तीर्थकर पाश्र्वनाथ से की गई है। इसके साथ जो दो अन्य प्रतिमाएँ मिली है वे अपेक्षाकृत छोटी है और उनका आकार क्रमश- 5.5x45x4 सेमी तथा 35x25x3गी है। इन दोनो प्रतिमाओं के लांछन अप्राप्त है। ये तीनो प्रतिमाएं भिन्न-भिन्न कालों में निर्मित हुई। पार्श्वनाथ की प्रतिमा का निर्माण 11-12वीं शती ई तथा अन्य दो प्रतिमाओं में से एक का निर्माण काल 7-6 वी ई सदी तथा दूसरे की 14-15वी ई. सदी निर्धारित की गई है।

आरंग के पुरातत्त्व का सर्वेक्षण करने पर और वर्तमान में उपलब्ध स्थापत्य एवं मूर्तिकला के अवशेषों का अध्ययन करने पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

यह प्राचीन नगर छठवी-सातवीं शताब्दी ई. अर्थात सोमवंशी युग से लेकर पन्द्रहवीं-सोलहवीं ई. तक जैन धर्म स्थापत्य एवं कला का महत्वपूर्ण केन्द्र था। चण्डी मंदिर में संग्रहित जैन तीर्थकर की प्रतिमा और तीन स्फटिक प्रतिमाओं में से एक प्रतिमा की तिथि सोमवंशी काल में ठहरती है।

इसलिए यहाँ उस काल के मंदिरावशेष होने की प्रबल संभावना है इसके जीर्णोद्धार के कारण स्वरुप बिगड़ने से अब उनकी सही पहिचान कठिन है। भविष्य में उत्खनन से नये तथ्य उजागर हो सकते हैं। यहाँ के जैन स्थापत्य एवं मूर्तिकला का चरमोत्कर्ष कल्चुरि काल (11-12वीं शती ई.) में हुआ क्योंकि अधिकांश प्रतिमाएँ इसी काल की हैं।

कल्चुरि काल के पश्चात् भी यहाँ जैन धर्म फलता-फूलता रहा जिसका प्रमाण 14-15वीं शताब्दी ई. की स्फटिक जिन प्रतिमा है। कालान्तर में जैनधर्म के स्थापत्य कला में श्रृंगारिक और लौकिक तत्वों को आत्मसात कर लिया गया यही कारण है कि भाण्ड- देवल मंदिर के जघा भाग में युगल व मिथुन प्रतिमाओं मृदंग व मुरली वादकों तथा नृत्यरत अप्सयों का अंकन मिलता है। जिन प्रतिमाओं के वितान में गजाभिषिक्त त्रिछत्र का अंकन जैन कला पर वैष्णव कला के प्रभाव को इंगित करते है ।

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Rajveer Singh
Rajveer Singh

Hello my subscribers my name is Rajveer Singh and I am 30year old and yes I am a student, and I have completed the Bachlore in arts, as well as Masters in arts and yes I am a currently a Internet blogger and a techminded boy and preparing for PSC in chhattisgarh ,India. I am the man who want to spread the knowledge of whole chhattisgarh to all the Chhattisgarh people.

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