छेरछेरा छत्तीसगढ़ Chherchhera Tayohar Chhattisgarh Chherchhera Festival
छेरछरा छत्तीसगढ़ का आंचलिक अभिधान है जिसे लोक पूर्व भी कहा जा सकता है। छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान प्रदेश है तथा धान की प्रधानता के कारण इस प्रदेश को धान का कठोरा भी कहा जाता है।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख पर्व एवं त्यौहार है- छेरछेरा, हरेली, दसहरा, देवारी आदि. हरेली को हलेरी से समीकृत कर इसका मूल खोजा जा सकता है (इसमें कृषि उपकरण हलादि और बैलों की पूजा का विधान है।)
जीवन की रथ यात्रा के अनंतर कृषकों का प्रारंभिक पर्व कृषि उपकरणों को धो पोंछकर और बैलों को सजा-संवार कर हरेली को मूर्त किया जाता है औरछेरछेरा में अन्नपूण का दान देकर इसका सोत्साहन समापन कर दिया
जाता है ।
इस आधार पर छेवर से इसका समीकरण किया जा सकता है। छेवर से विकसित व प्रसारित छेरछेरा शब्द समापनोत्सव को ही प्रकट करता है। यह कृषक की साधना यज्ञ की पूर्णहुति है जिस पर प्रसन्नचित कृषक सबको प्रसाद के रूप में अन्नदान करता है,
जब कृषक के यहां अन्नपूर्णा आ जाती है, तब वह अन्नदान महोतस्व छेरछेरा मनाकर अपनी उदार महान संस्कृति का परिचयदेता है. छत्तीसगढ़ का किसान मानता है कि उसके यहां जो अन्नपूर्णा विराजित है, उसमें उसका हिस्सा केवल आजीविका की सुविधा का साधन तक ही है, शेष को वह ग्राम देवता, कुल देवता, पंडित के लिए अलग कर देता है, चूहों और अन्य क्षुध्र पशु पक्षियों के लिए निकाल देता है,
पौष पूर्णिमा के दिन वह सभी जरूरतमंद श्रमिकों, सामान्य कृषकों व ग्रामवासियों को अन्न दान कर तृप्त होता है.
गांव की टोली समवेत स्वर में उच्चारण करते हुए कृषकों को यहां जाती है।
छेर छेरा, छेर छेरा।
माई कोठी के धान ला हेरते हेरा।
जहां अन्नपूर्णा विराजित है, वह कोष्ठागार कोठी या कोठारा माई कोठी (प्रमुख या विशिष्ठ कोष्ठागार) हो जाता है अर्थात बड़पन्न को अंगीकार कर दूसरों की आवश्यकता की आपूर्ति का कारण बनता है। गुप्ता दान को महादान माना गया है। छेरछेरा भी एक तरह से गुप्तदान का आंचलिक प्रादेशिक स्वरूप है। इसी तरह पहले पर्वतदान की परंपरा प्रचलित थी।
छत्तीसगढ़ में सम्पन्न जमींदार गौटिया धान की पर्वताकार ढेरी स्थापित करके बीच में कहीं स्वर्ण मुद्रा भी छिपा कर रख देते थे। छेरछरा के दिन जरूरतमंद कृषक बोरा लेकर आते व अपनी शक्ति व सामर्थ्य के. अनुसार ढोकर अन्न ले जाते थे।
जिसके भाग्य में स्वर्ण मुद्रा होती, उसे वह उपलब्ध हो जाता था। ऐसे दाता और ऐसे याचक सहअस्तित्व के सुंदर उदाहरण है। आज के संक्रमण और अर्थ केंद्रित युग में छेरछेरा का वह रूप नहीं मिलता लेकिन सामान्य कृषक के उदार भाव के रूप में यह लोकपर्व ।
आज भी जरूरतमंदों के लिए पुण्य कर्म का प्रतीक बना हुआ है। पहले जब वस्तु विनियम की प्रथा थी, तब धान का महत्व आदान प्रदान का एक अच्छा साधन था। आज भी छत्तीसगढ़ के सभी ग्रामों में छेरछेरा की प्रथा प्रचलित है जो जाने अनजाने कबीर के अधोलिखित दोहे का अनुकरण करता हुआ इस लोकपर्व की प्रासंगिता को प्रकट करता है ।
प्रभु राम इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाएं।।
छेरछेरा के संदर्भ में एक किवंदती है कि बहुत पूर्व घनघोर अकाल पड़ा। धान तो धान जब पशुओं के लिए पैरा और चारा तक नसीब नहीं हुआ तब कृषकों ने धरती माता से प्रार्थना की. सप्ताह भर की पूजा अर्चना के पश्चात धरता माता प्रकट हुई और उन्होंने कृषकों से कहा कि अन्न को कोई भी संचय न करे, जिसके पास अतिरिक्त है, वह दूसरों को सहयोग करे। यह इस विपत्ति से मुक्त का पथ है। धरती माता की सलाह से प्रत्येक वर्ष छेरछेरा का पर्व मनाया जाने लगा।
इसी समय कई जगह स्वर्ण मुद्राओं की भी वर्षा होने का तथ्य अनावृत्त होता है। ऐसे खेत को सोनबरसा से जाना जाता है। शाक की वर्षा होने के कारण धरती माता को शाकंभरी देवी से संबोधित करके इसी दिन छेरछेरा मनाने की प्रथा प्रचलित हुई।
पूजा अर्चना से आनंदित धरती माता ने शाक और कंदमूल के साथ अन्न की भी वर्षा की जिसकी ध्वनि छर-छर, छर-छर से उच्चारित होने के कारण भी इस पर्व को छेरछेरा कहा गया उद्भासित होता है।
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