छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास | Chhattisgarh Ka Madhyakalin Itihas
इससे पहले हमने आपको छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास के बारे में बताया था , जो बहुत पसंद आया था , तो मैं फिर से छत्तीसगढ़ के मध्यकालीन इतिहास के बारे में लिखने जा रहा हु , इसे तुम जरूर पढ़ना , .
तो चलो फिर शुरू करते है इतिहास की बाते:-
मध्य कालीन इतिहास को न 6 भागो में बाटा है हमारे इतिहासकारो ने जो की (1000 ई. से 1741 ई. तक) है ।
1. कल्चुरी वंश > रतनपुर शाखा व रायपुर शाखा 2. फणिनाग वंश > कवर्धा 3. सोम वंश > कांकेर 4. छिंदकनाग वंश > बस्तर 5. काकतीय वंश > बस्तर 6. हैहयवंशीय वंश > जांजगीर चांपा |
1.कल्चुरी वंश ( रतनपुर शाखा )
(1000 ई. से 1741 ई. तक)
- क्ल्चुरी वंश ने भारत में 550 से 1741 तक कहीं न कहीं शासन किया था।
- इतने लंबे समय तक शासन करने वाला भारत का पहला वंश है।
- पृथ्वीराज रासो में इसका वर्णन है।
- छ.ग. का कल्चुरी वंश त्रिपुरी (जबलपुर) के कल्चुरियों का ही अंश था।
- कल्चुरियों का मूल पुरूष कृष्णराज थे।
- त्रिपुरी के कल्चुरियों का संस्थापक वामराज देव थे।
- स्थायी रूप से शासन स्थापित किया कोकल्य देव ने
- कोकल्य देव के 18 बेटों में से एक शंकरगण मुग्यतुंग ने बाण वंश को हराया था।
- लेकिन सोमवंश ने पुनः अधिकार जमा लिया।
- तब लहुरी शाखा के त्रिपुरी नरेश कलिंगराज ने अंतिम रूप से जीता था।
कलिंगराज (1000-1020) :-
- इसने अपनी राजधानी तुम्माण (कोरबा) को बनाया था।
- इसे कल्चुरियों का वास्तविक संस्थापक कहते हैं।
- अलबरूनी द्वारा वर्णित शासक हैं।
- इसने चैतुरगढ़ के महिषासुर मर्दिनी मंदिर का निर्माण करवाया था।
- चैतुरगढ़ (कोरबा) को अभेद किला कहते है।
- चैतुरगढ़ को छ.ग. का काश्मीर कहते है।
कमलराज (1020-1045) :-
- कमलराज व कलिंगराज ने तुम्माण से शासन किया था।
राजा रत्नदेव (1045-1065 ) :-
- 1050 में रतनपुर शहर बसाया और राजधानी बनाया।
- इसने रतनपुर में महामाया मंदिर का निर्माण करवाया था।
- इसने लाफागढ़ (कोरबा) में महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति रखवाया था।
- तब से लाफागढ़ को छ.ग. का चित्तौड़गढ़ कहते है।
- रतनपुर “राज्य” का नामकरण अबुल फजल ने किया था।
- इस समय रतनपुर के वैभव को देखकर कुबेरपुर की उपमा दी गई।
- रतनपुर को तलाबों की नगरी कहते है।
- रतनपुर, हीरापुर, खल्लारी, तीनों शहर को मृतिकागढ़ कहते है।
- रत्नदेव का विवाह नोनल्ला से हुई थी।
पृथ्वीदेव प्रथम (1065-1095) :-
- इसने सकल कौसलाधिपति उपाधि धारण किया था।
- आमोदा ताम्रपत्र के अनुसार 21 हजार गाँवों का स्वामी था।
- रतनपुर के विशाल तालाब का निर्माण करवाया था।
जाजल्लदेव प्रथम (1095-1120) :-
- जाजल्लदेव प्रथम ने कल्चुरियों को त्रिपुरी से अलग किया।
- अपने नाम की स्वर्ण मुद्राएँ चलवायीं।
- सिक्कों में श्रीमद जाजल्ल व गजसार दूल अंकित करवाया।
- गजसार दूल की उपाधि धारण किया (गजसारदूल हाथियों का शिकारी)
- इसने जांजगीर शहर बसाया व विष्णु मंदिर बनवाया।
- पाली के शिव मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।
- इसने छिंदकनाग वंशी राजा सोमेश्वर देव को पराजित किया था।
रत्नदेव द्वितीय (1120-1135) :-
- गंग वंशीय राजा अनंत वर्मन चोडगंग को युद्ध में पराजित किया था।
पृथ्वीदेव द्वितीय (1135-1165) :-
- कल्चुरियों में सर्वाधिक अभिलेख इसी का हैं।
- चांदी के सबसे छोटे सिक्के जारी किये थे।
- इसके सामंत जगतपाल द्वारा राजीव लोचन मंदिर का जीर्णोद्धार किया था।
जाजल्लदेव द्वितीय (1165-1168) :-
- इसके सामंत, उल्हण ने शिवरीनारायण में चंद्रचूड मंदिर का निर्माण करवाया था।
जगदेव (1168-1178) :-
रत्नदेव तृतीय (1178-1198) :-
- इसका मंत्री उड़ीसा का ब्राम्हण गंगाधर राव था।
- गंगाधर राव ने खरौद के लखनेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
- गंगाधर राव ने रतनपुर के एक वीरा देवी का मंदिर बनवाया था।
प्रतापमल्ल (1198-1222) :-
- इसने ताँबे के सिक्के चलाये थे।
- जिसमें सिंह व कटार आकृति अंकित करायी।
- इसके दो शक्तिशाली सामंत थे 1. जसराज 2. यशोराज
अंधकार युग
(1222 ई. से 1480 ई. तक)
इस बीच की कोई लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए इसे कल्चुरियों का अंधकार युग कहते हैं।
बाहरेन्द्र साय (1480-1525) :-
- राजधानी रतनपुर से छुरी कोसगई ले गया।
- इसने कोसगई माता का मंदिर बनवाया था।
- चैतुरगढ़ व लाफागढ़ का निर्माण किया था।
कल्याण साय (1544-1581) :-
- अकबर के समकालीन था।
- अकबर के दरबार में 8 वर्षो तक रहा।
- राजस्व की जमाबंदी प्रणाली शुरू की थी।
- टोडरमल ने कल्याण साय से जमाबंदी प्रणाली सीखा।
- इसी जमाबंदी प्रणाली के आधार पर ब्रिटिश अधिकारी चिस्म (1868 में छत्तीसगढ़ को 36 गढ़ो में बाँटा।
- अकबर का प्रिय राजा था कल्याण साय।
- जहाँगीर की आत्मकथा में कल्याण साय का उल्लेख है
तखत सिंह :-
- औरंगजेब का समकालीन था।
- तखतपुर शहर बसाया।
राजसिंह (1746 ई.) :-
- दरबारी कवि गोपाल मिश्र, रचना > खूब तमाशा ।
- इस रचना में औरंगजेब के शासन की आलोचना की गई है ।
- रतनपुर में बादल महल का निर्माण करवाया था।
सरदार सिंह (1712-1732) :-
- राजसिंह का चाचा था।
रघुनाथ सिंह (1732-1741) :-
- अंतिम कल्चुरी शासक।
- 1741 में भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने छ.ग. में आक्रमण कर (महाराष्ट्र) कल्चुरी वंश को समाप्त कर दिया।
रघुनाथ सिंह (1741-1745) :-
- मराठो के अधीन शासक
मोहन सिंह (1745-1758) :-
- मराठों के अधीन अंतिम कल्चुरी शासक
कल्चुरी वंश ( रायपुर शाखा या लहुरी शाखा )
संस्थापक > केशव देव प्रथम राजा > रामचन्द्रदेव प्रथम राजधानी > खल्लवाटिका (खल्लारी) द्वितीय राजधानी > रायपुर |
प्रसिद्ध राजाकेशव देव ⇓ लक्ष्मीदेव (1300-1340) ⇓ सिंघण देव (1340-1380) ⇓ रामचन्द्र देव (1380-1400) ⇓ ब्रम्हदेव (1400-1420) ⇓ केशव देव-II (1420-1438) ⇓ भुनेश्वर देव (1438-1468) ⇓ मानसिंह देव (1468-1478) ⇓ संतोष सिंह देव (1478-1498) ⇓ सूरत सिंह देव (1498-1518) ⇓ सैनसिंह देव (1518-1528) ⇓ चामुण्डा देव (1528-1563) ⇓ वंशीसिंह देव (1563-1582) ⇓ धनसिंह देव (1582-1604) ⇓ जैतसिंह देव (1604-1615) ⇓ फत्तेसिंह देव (1615-1636) ⇓ याद सिंह देव (1636-1650) ⇓ सोमदत्त देव (1650-1663) ⇓ बलदेव देव (1663-1682) ⇓ उमेद देव (1682-1705) ⇓ बनवीर देव (1705-1741) ⇓ अमरसिंह देव (1741-1753) अंतिम शासक |
सिंघन देव :-
- इसने 18 गढ़ो को जीता था।
रामचन्द्र देव :-
- इसने रायपुर शहर बसाया था।
- इसे लहुरी शाखा का प्रथम शासक मानते है।
ब्रम्हदेव :-
- इन्होंने 1409 में रायपुर को राजधानी बनाया था।
- वल्लाभाचार्य के स्मृति में रायपुर में दूधाधारी मठ का निर्माण करवाया था।
- इसके सामंत देवपाल नामक मोची ने 1415 में खल्लारी देवी माँ की मंदिर का निर्माण करवाया था।
- कल्चुरियों ने नारायणपुर में सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
मुख्य बिंदुकुल देवी > गजलक्ष्मी उपासक > शिव जी के पंचकुल > समुह या समिति का नाम । >जिसमें पाँच या दस सदस्य होते थे। ताम्रपत्र > ॐ नमः शिवाय से प्रारंभ होता था। |
कल्चुरियों की प्रशासनिक व्यवस्थाकल्चुरी प्रशासन का अधिक विस्तार था। प्रशासन के विभागों का दायित्व अमात्य मण्डल के हाथों में होता था। ग्राम > शासन की न्यूनतम इकाई। माण्डलिक > मण्डल का अधिकारी। महामण्डलेश्वर, > 1 लाख गांवों का स्वामी। गौटिया > गाँव का राजस्व प्रमुख । दाऊ > बाहरो का राजस्व प्रमुख । (दाऊ को तालुकाधिपति भी कहते है ) दीवान >गढ़ का राजस्व प्रमुख एक गढ़ में 84 गाँव होते थे। 1 गढ़ = 7 बारहो = 84 गाँव। 1 बारहो = 12 गाँव । |
मंत्री मण्डलमंत्रियों के समुह को अमात्य मण्डल कहा जाता है। अमात्य मण्डल में 8 मंत्री होते थे। युवराज > होने वाला राजा । महामंत्री > सर्व प्रमुख अधिकारी। महामात्य > राजा का सलाहकार । महासंधि विग्रहक > विदेश मंत्री । महापुरोहित > राजगुरू । जमाबंधी मंत्री > राजस्व मंत्री। महा प्रतिहार > राजा का अंग रक्षक। महा प्रमातृ > राजस्व प्रबंधक। |
अधिकारीदाण्डिक >न्याय अधिकारी। धर्म लेखी > धर्म संबंधी कार्य (दशमूली भी कहते हैं) महा पीलू पति > हस्ति सेना अधिकारी। महाष्व साधनिक > अश्व सेना अधिकारी चोर द्वारणिक/दुष्ट साधनिक > पुलिस। गनिका गनिक > यातायात अधिकारी। ग्राम कुट / भोटिक > ग्राम प्रमुख । शोल्किक > कर वसुली करने वाला। वात्सल्य > बनिया का काम करने वाला। महत्तर > पंचकुल का सदस्य (समिति) महाकोट्टपाल > किले (दुर्ग) का रक्षक। पुर प्रधान > नगर प्रमुख । भट्ट > शांति व्यवस्था अधिकारी। |
करयुगा > सब्जी मंडी का कर है (परमिट) कलाली > शराब दुकान से लिया जाता है। आय का साधन > नमक कर, खानकर, नदी घाट कर। हाथी-घोड़े की बिक्री > रतनपुर पशु बाजार से प्राप्त कर घोड़े की बिक्री का > 2 पौर (चांदी का छोटा सिक्का) हाथी की बिक्री का > 4 पौर। |
मुद्रा4 कौड़ी = 1 गण्डा 5 गुण्डा = 1 कोरी (20 रू. को एक कोरी कहते है) 16 कोरी = 1 दोगानी 11 दोगानी = 1 रूपया अर्थात :- 20 कौड़ी = 1 कोरी 80 गण्डा = 1 दोगानी 320 कौड़ी = 1 दोगानी 3520 कौड़ी = 1 रूपया पौर = चांदी का सिक्का (सिक्का में लक्ष्मी की आकृति होती थी) 2 युगा = 1 पौर |
मापन5 सेरी = 1 पसेरी 8 पसेरी = 1 मन अर्थात 40 सेरी = 1 मन इस समाया पैली , काठा , पऊवा भी चलता था |
सामाजिक व शिक्षा व्यवस्था
|
2.फणिनाग वंश ( कवर्धा )
(9 वीं से 14 वीं शताब्दी तक )
संस्थापक > अहिराज सिंह
राजधानी > पचराही
क्षेत्र > कवर्धा
प्रसिद्ध राजा:-
गोपाल देव :-
- इन्होंने 1089 ई. (11 वीं सदी) में भोरमदेव मंदिर बनवाया था।
- यह खजुराहों के मंदिर से प्रेरित है, इसलिए इसे छ.ग. का खजुराहों कहते है।
- यह नागर शैली (चंदेल शैली) में निर्मित है। इसकी ऊंचाई 16m. (53 फीट) है।
- यह चौरा ग्राम में स्थित है तथा शिव मंदिर है। भोरमदेव एक आदिवासी देवता है।
- गोपालदेव इस वंश के 6 वें क्रम के शासक थे।
रामचन्द्र देव :-
- इन्होंने 1349 (14 वीं सदी) में मड़वा महल व छेरकी महल का निर्माण करवाया था।
- यहाँ एक शिव मंदिर है तथा विवाह का प्रतीक है।
- मड़वा महल को दुल्हादेव भी कहते है।
- यहाँ कल्चुरी राजकुमारी अम्बिका देवी ने विवाह किया था।
- कवर्धा महल की डिजाइन धर्मराज सिंह ने किया था।
- महल के प्रथम गेट को हाथी का गेट कहते है।
मोनिंग देव :-
- 1414 में कल्चुरी शासक ब्रम्हदेव मोनिंग देव को पराजित किया था।
- इसके बाद फणिनाग वंश, कल्चुरी साम्राज्य में विलय हो गया।
3.सोमवंश ( कांकेर )
(1191 से 1320 तक )
संस्थापक > सिंहराज
राजधानी > कांकेर
प्रसिद्ध शासक
सिंहराज
व्याघ्रराज
वोप देव
⇓
1.कृष्णराज 2.सोम देव > पम्पा देव
⇓
जैतराज
⇓
सोम चंद्र
⇓
भानु देव
⇓
चन्द्रसेन देव (अंतिक शासक)
- कर्णराज (कर्णदेव) का सिहावा अभिलेख प्राप्त हुआ है।
- भानुदेव का कांकेर लेख प्राप्त हुआ है।
- भानुदेव ने संभवतः भानुप्रतापपुर शहर बसाया था।
4.छिंदकनाग वंश ( बस्तर )
(1023 से 1324 तक)
संस्थापक > नृपति भूषण।
राजधानी > चक्रकोट, अमरकोट, चित्रकोट ।
प्रसिद्ध शासक
⇓
नृपति भूषण
⇓
धारा वर्ष
⇓
सोमेश्वर प्रथम
⇓
कन्हर देव
⇓
राजभूषण (सोमेश्वर द्वितीय)
⇓
जगदेव भूषण नर सिंह
⇓
जयसिंह
⇓
हरिशचन्द देव (अंतिम शासक)
नृपति भूषण :-
- एरर्सकोट तेलगु अभिलेख में इस राजा का उल्लेख है।
- जिसमें शक् संवत् 945 अंकित है। अर्थात (1023 A.D.).
धारावर्ष :-
- इसके सामंत चन्द्रादित्य ने बारसूर में तालाब व शिव मंदिर बनवाया था।
- धारावर्ष का बारसूर अभिलेख प्राप्त हुआ है।
- संभवतः मामा-भांजा मंदिर का निर्माण करवाया था, जिसे गणेश मंदिर व बत्तीसा मंदिर भी कहते है।
मधुरांतक देव :-
- इसके राजपुर ताम्रपत्र में नरबलि के लिखित साक्ष्य प्राप्त हुए है।
सोमेश्वर देव :-
- जाजल्ल देव प्रथम ने इसे पराजित कर सारे परिवार को बंदी बना लिया था।
- 1109 ई. तेलगु शिलालेख नारायणपाल से प्राप्त हुआ है।
- गुण्डमहादेवी इसकी माता थी।
सोमेश्वर द्वितीय :-
- इसकी रानी गंग महादेवी का शिलालेख बारसूर से प्राप्त हुआ है।
जगदेव भूषण नरसिंह देव :-
- यह मणिक देवी (दंतेश्वरी देवी) का उपासक था।
हरिश चंद्र देव :-
- 1324 ई. तक शासन किया। काकतीय शासक अन्नमदेव पराजित हुआ।
- इसकी बेटी चमेली देवी ने अन्नमदेव से कड़ा मुकाबला किया था। जो कि चक्रकोट की लोककथा में आज भी जीवित है।
- इस वंश का अंतिम अभिलेख टेमरी से प्राप्त हुआ है।
- जिसे सती स्मारक अभिलेख भी कहते है।
- अन्नमदेव वारंगल के काकतीय वंश के राजा प्रताप रुद्रदेव का छोटा भाई था। जो 1309 में मलिक काफूर कटवे से डर से भागा था।
नोट :- छिंदकनाग वंशी राजा भोगवती पुरेश्वर उपाधि धारण करते थे।
5.काकतीय वंश
(1324 से 1966 तक)
संस्थापक > अन्नदेव
राजधानी > मंधोता
अन्नमदेव (1324-1369) :-
- 1324 में काकतीय वंश की स्थापना मंधोता में किया।
- चक्रकोट से राजधानी मंधोता ले गया।
- इन्होंने तराला ग्राम व शंकिनी-डंकिनी नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण करवाया।
- इसे बस्तर में चालकी वंश कहते है।
- इसने विवाह चंदेल राजकुमारी सोनकुवंर से किया ।
हमीर देव (1369-1410 ) :-
- उड़ीसा के इतिहास में इसका वर्णन मिलता है।
भैरमदेव (1410-1468) :-
- इसकी पत्नी मेघावती आखेट विद्या में निपुण थी।
- मेघावती के नाम पर आज भी मेघी साड़ी बस्तर में प्रचलित है।
पुरुषोत्तम देव (1468-1534) :-
- मंधोता से राजधानी बस्तर ले गया ।
- इन्होंने प्रसिद्ध जगन्नाथपुरी उड़ीसा का यात्रा किया था।
- उड़ीसा के शासक ने इन्हें 16 पहिये वाला रथ प्रदान कर रथपति की उपाधि दिया था।
- बस्तर आकर गोंचा पर्व या रथयात्रा प्रारंभ किया था।
- इनका विवाह कंचन कुंवर (बघेलिन) से हुआ था।
जयसिंह देव (1534-1558) :-
नरसिंह देव (1558-1602) :-
- इसकी पत्नी लक्ष्मी कुंवर ने अनेक तालाब व बगीचे बनवाए थे।
प्रताप राज देव (1602-1625) :-
- इसे गोलकुण्डा के राजा कुलुकुतुब शाह को पराजित किया था।
जगदीशराज देव (1625-1639) :-
- इसके शासन काल में गोलकुण्डा के राजा अब्दुल्ला कुतुब शाह ने आक्रमण किया था।
वीरनारायण देव (1639-1654) :-
वीर सिंह देव (1654-1680) :-
- अपने शासन काल में राजपुर का दुर्ग (किला) बनवाया।
दिक्पाल देव (1680-1709) :-
राजपाल देव (1709-1721) :-
- इसे रक्षपाल देव भी कहते है।
- इन्होंने प्रौढ़ प्रताप चक्रवर्ती की उपाधि धारण किया था।
- यह मणिकेश्वरी देवी (दंतेश्वरी देवी) का उपासक था।
चन्देल मामा (1721-1731) :-
- यह चंदेल वंश व चंदेलिन रानी का भाई था।
- दलपत देव ने रक्षा बंधन के अवसर पर इसकी हत्या कर दी।
दलपत देव (1731-1774) :-
- इन्होंने 1770 में बस्तर से राजधानी जगदलपुर ले गया ।
- इसी समय रतनपुर के कल्चुरियों का अंत भोंसले ने किया था।
- भोंसला सेनापति नीलूपंत ने बस्तर में प्रथम बार आक्रमण किया लेकिन असफल रहा।
- इसी समय बस्तर में बंजारों द्वारा वस्तु विनिमय व्यापार प्रारंभ हुआ था।
- इसी व्यापार के कारण बाहरी लोग बस्तर में प्रवेश करने लगे परिणाम स्वरूप जनजाति विद्रोह प्रारंभ हुआ।
अजमेर सिंह (1774-1777) :-
- इसे क्रांति का मसीहा कहते है।
- 1774 में अजमेर सिंह व दरिया देव के बीच हल्बा विद्रोह हुआ था।
- भोंसले ने जगदलपुर पर आक्रमण कर अजमेर सिंह को छोटे डोगर भागने पर विवश कर दिया।
दरिया देव (1777-1800) :-
- अजमेर सिंह के विरूद्ध षड्यंत्र कर मराठों की सहायता की ।
- दरिया देव ने कोटपाड़ संधि 6 अप्रैल 1778 में मराठों से किया तथा प्रतिवर्ष 59000 टकोली देना स्वीकार किया।
- अप्रत्यक्ष रूप से बस्तर का संचालन रतनपुर से होने लगा।
- दरिया देव प्रथम काकतीय शासक था जिसने मराठों की अधीनता स्वीकार किया था।
- इसी समय बस्तर छ.ग. का अंग बना।
- इसी समय 1795 में भोपालपट्टनम् संघर्ष हुआ था।
- 1795 में कैप्टन ब्लंट पहले अंग्रेज यात्री थे जिन्होंने बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों की यात्रा की। बस्तर पर प्रवेश नहीं कर पाये। परन्तु कांकेर की यात्रा की।
महिपाल देव (1800-1842) :-
- इन्होंने मराठों का वार्षिक टकोली देना बंद कर दिया।
- इसके शासन काल में 1825 में गेंदसिंह के नेतृत्व में परलकोट विद्रोह हुआ था।
भूपाल देव (1842-1853) :-
- अपने सौतेले भाई दलगंजन सिंह को तारापुर परगने का जमीदार बनाया था।
- इसी समय मेरिया (1842) व तारापुर (1842) विद्रोह हुआ था।
भैरम देव (1853-1891) :-
- अंग्रेजों के अधीन प्रथम काकतीय शासक था।
- 1856 में छ.ग. संभाग का प्रथम डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स इलियट बस्तर आया था।
- इसी समय लिंगागिरी (1856) मुड़िया (1876) विद्रोह हुआ था।
रानी चोरिस का विद्रोह (1878-86):-
- इनका वास्तविक नाम जुगराज कुंवर थी।
- इसने अपने पति भैरमदेव के विरुद्ध विद्रोह की थी।
- इसलिए इसे छ.ग. का प्रथम विद्रोहिणी कहते है।
रूद्र प्रताप देव (1891-1921) :-
- इनका राज्यभिषेक 1908 में हुआ था।
- इनका शिक्षा राजकुमार कॉलेज रायपुर में हुआ था।
- इन्होंने जगदलपुर को चौराहों का शहर बनवाया।
- पुस्तकालय की स्थापना व बस्तर में शिक्षा अर्जित किया। घेतोपोनी प्रथा प्रचलित थी जो स्त्री विक्रय से सम्बंधित थी।
- यूरोपीय युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने के कारण इसे सेंट ऑफ जेरू सलेम की उपाधि से नवाजा गया था।
- इसी समय 1910 में गुण्डाथुर ने भूमकाल विद्रोह किया था।
- इनका एक ही पुत्री प्रफुल्ल कुमारी देवी थी।
प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921-1936) :-
- छ.ग. की प्रथम व एकमात्र महिला शासिका थी।
- इनका विवाह उड़ीसा के राजकुमार प्रफुल्ल चंद भंजदेव से हुआ था।
- इनका राज्याभिषेक 12 वर्ष के उम्र में हो गया था।
- इनकी मृत्यु 1936 में अपेंडी साइटिस नामक बीमारी से लंदन में हुआ था। (रहस्यमय)
- इनका पुत्र प्रवीरचंद भंजदेव था।
प्रवीरचंद भंजदेव (1936-1966) :-
- यह अंतिम काकतीय शासक था।
- 1 जनवरी 1948 में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया।
- कम उम्र के प्रसिद्ध विधायक व बस्तर क्षेत्र के 12 में से 11 विधानसभा क्षेत्र में इनके नेतृत्व में स्वतंत्र उम्मीदवारों ने जीत हासिल किया था। 1966 में गोलीकांड में इनकी मृत्यु हुई थी।
- भारतीय राजनीति का भेंट चढ़ गया।
भंजदेव परिवार
⇓
प्रवीरचंद भंजदेव
⇓
विजयचंद भंजदेव
⇓
भरतचंद भंजदेव
⇓
कमलचंद भंजदेव (वर्तमान)
6.हैहयवंशीय वंश
संस्थापक > अकाल देव ।
राजधानी > अकलतरा (जांजगीर चांपा)
प्रसिद्ध शासक :- अकाल देव :- इसने अकलतरा शहर बसाया था।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख आदिवासी विद्रोह Chhattisgarh Ke Adiwasi Vidroh Andolan
इसी समय जब पूरे भारत में जनजाति आन्दोलन आग की तरह फैली तब हमारा छत्तीसगढ़ भी उससे अछूता नहीं रहा। छत्तीसगढ़ राज्य में 18वीं शताब्दी 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक अनेक जनजाति विद्रोह हुए। ज्यादातर जनजाति विद्रोह बस्तर क्षेत्र में उत्तरार्ध से लेकर हुए जहाँ के जनजाति अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए विशेष सतर्क थे।
इन विद्रोहो में एक सामान्य विशेषता यह थी कि:-
1. ये सारे विद्रोह आदिवासियों को अपने निवास स्थान , जमीन , जंगल में हासिल सभी अधिकारों को अंग्रेज़ो द्वारा छीने जाने के विरोध में हुआ था।
2.ये विद्रोह आदिवासी अस्मिता और कल्चर को बचने के लिए हुआ था .
3.जनजाति विद्रोहिओ ने नई अंग्रेजी शासन और ब्रिटिश राज के द्वारा थोपे गए जबरजस्ती नियमों व कानूनों का विरोध किया।
4.जनजाति मुख्यतः बाह्य जगत व शासन के प्रवेश से अपनी जीवन शैली, संस्कृति एवं निर्वाह व्यवस्था में उत्पन्न हो रहे खलल को दूर करना चाहते थे।
5.उल्लेखनीय बात यह थी कि मूलतः जनजातियों के द्वारा आरंभिक विद्रोहों में छत्तीसगढ़ के गैरआदिवासी भी भागीदार बने
प्रमुख विद्रोह
1.हल्बा विद्रोह (1774-79)-
इस विद्रोह का प्रारंभ 1774 में अजमेर सिंह द्वारा हुआ जो डोंगर में बस्तर के राजा से मुक्त एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना चाहते थे।
उन्हें हल्बा जनजातियों व सैनिकों का समर्थन प्राप्त था इसका अत्यंत क्रूरता से दमन किया गया नर संहार बहुत व्यापक था, केवल एक हल्बा विद्रोही अपनी जान बचा सका।
इस विद्रोह के फलस्वरूप बस्तर मराठों को उस क्षेत्र में प्रवेश का अवसर मिला जिसका स्थान बाद में ब्रिटिशों ने ले लिया।
2.परालकोट विद्रोह (1825)-
- परालकोट विद्रोह मराठा और ब्रिटिश सेनाओं के प्रवेश के विरोध में हुआ था। इस विद्रोह का नेतृत्व गेंदसिंह ने किया था उसे अबूझमाड़ियों का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।
- विद्रोहियों ने मराठा शासकों द्वारा लगाए गए कर को देने से इंकार कर दिया और बस्तर पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की।
- परलकोट विद्रोह या फिर कहे की भोपालपट्टनम संघर्ष 1825 को उत्तर, बस्तर में हुआ था ।
- इसके शासक महिपाल देव राजपूत जी थे ।
- इस विद्रोह के नेतृत्वकर्ता भी गेंद सिंह राजपूत जी ही थे । गेंद सिंह परलकोट के जमींदार भी थे ।
- इन सभी लोगो और महिपाल देव , गेंद सिंह के विरोध में था या कहे जो विपक्षी था जिससे इन सभी की लड़ाई था वह था अंग्रेज अधिकारी पेबे ( इसे एगनय ने नियुक्त किया था ) .
- इस विद्रोह का मुख्य कारण था की यहाँ के लोग लगता था की अंग्रेज उनके हिन्दू धर्म को बर्बाद कर देगा या फिर कहे की वह धर्म परिवर्तन करवा देगा जैसे अन्य राज्यों में होता था ,एवं ये सभी लोग बस्तर में हो रहे अबूझमाड़ियों पर हो रहे शोषण से मुकत करना था
- ये सभी लोगो ने पेबे को रोकने के लिए तीर , भाले चलाये ताकि वे उन ईसाई अंग्रेजो को रोक सके ।
- गेंद सिंह राजपूत को भूमिया राजा भी कहा जाता था ।
- विद्रोह के समय सभी विद्रोहियों ने अपना प्रतिक चिन्ह एक धावड़ा वृक्ष की टहनी को बनाया था और ये भी कहा था की इसकी पट्टी कभी भी सुखनी नहीं चाहिए ।
- इतनी मेहनत करने के बाद भी पेबे ने इस विद्रोह को दमन कर दिया था ।
- और परिमाण यहाँ हुआ की वीर गेंद सिंह राजपूत जी को 10 जनवरी 1825 को अंग्रेजो ने गिरफ्तार कर लिया एवं वे जानते थे की जनता और भी विद्रोह कर देगी इसलिए उन लोगो ने जल्द ही 20 जनवरी 1825 को ही वीर गेंद सिंह राजपूत किले के सामने फांसी दे दिया गया ।
- गेंद सिंह राजपूत जी को छत्तीसगढ़ एवं बस्तर का प्रथम शहीद कहा जाता है ।
3.तारापुर विद्रोह (1842-54)-
- बाहरी लोगों के प्रवेश से स्थानीय संस्कृति को बचाने के लिए अपने पारंपरिक सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक संस्थाओं को कायम रखने के लिए एवं आंग्ल-मराठा शासकों द्वारा लगाए गए करों का विरोध करने के लिए स्थानीय दीवानों द्वारा यह विद्रोह प्रारंभ किया गया।
- तारापुर विद्रोह या फिर कहे की तारापुर संघर्ष 1842 से लेकर 1854 तक तारापुर, बस्तर में हुआ था ।
- इसके शासक भूपाल देव राजपूत जी थे ।
- इस विद्रोह के नेतृत्वकर्ता भी दलगंजन सिंह राजपूत जी ही थे । दलगंजन सिंह राजपूत जी तारापुर के जमींदार भी थे ।
- यहाँ दलगंजन सिंह कोई और नहीं भूपाल देव राजपूत के भाई ही थे
- इन सभी लोगो और भूपाल देव , दलगंजन सिंह के विरोध में था या कहे जो विपक्षी था जिससे इन सभी की लड़ाई था वह था अंग्रेज अधिकारी ।
- इस विद्रोह का मुख्य कारण था की यहाँ के लोग का की तारापुर में अत्यधिक टकोली( कर ) Tax का बढ़ा दिया जाना जिससे यहाँ के लोग बहुत ही परेशान हो गए थे ।
- एक और मुख्य कारन था की वह पर दीवान जगबंधु और सैनिक अब्दुल शेख का आतंक था जिससे लोग और भी परेशान थे ।
- इस विद्रोह का शांत करने की जिम्मेदारी मेजर विल्लियम्स को दिया गया था । मेजर विल्लियम्स ईसाई धर्मान्तरण करने के लिए भी जाना जाता था इससे वह के लोग और भी परेशान हो गए ।
- यहाँ के लोगो को जगबंधु का सहयोगी जगन्नाथ बहिदार ने ही सबको विद्रोह के लिए भड़काया ।
- विद्रोह से परेशान होकर अंग्रेजो को परिणाम स्वरुप बढे हुए टकोली ( कर ) को वापस से हटाना ही पड़ा ।
4.मेरिया/माड़िया विद्रोह (1842-63)-
- इस विद्रोह का मुख्य कारण सरकारी नीतियों द्वारा जनजाति आस्थाओं को चोट पहुँचाना था। नरबलि प्रथा के समर्थन में माड़िया जनजाति का यह विद्रोह लगभग 20 वर्षों तक चला।
- मेरिया या फिर कहे की मरिया विद्रोह 1842 से लेकर 1863 तक दंतेवाड़ा,बस्तर अंचल में हुआ था ।
- यहाँ के राजा थे भूपाल देव राजपूत जी थे जो अंग्रेजो सहमत थे ।
- इस विद्रोह का जमख़म से नेतृत्वा किया था हिरमा मांझी जी ने ।
- इन सभी लोगो और हिरमा मांझी के विरोध में था या कहे जो विपक्षी था जिससे इन सभी की लड़ाई था वह था अंग्रेज अधिकारी कैम्पबेल
- अंग्रेजो ने इन सब कार्यो के जाँच के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया था जिसक नाम था :- मैक फ़र्सन
- अंग्रेजो का उद्देश्य यहाँ था की बस्तर के दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी मंदिर में आदिवासियों द्वारा नरबलि प्रथा चलती थी , और उसी मंदिर में माँ दंतेश्वरी के अलावा दो अन्य देवता भी थे जिनका नाम है , 1.तरीपेननु 2.माटीदेव जिसमे छोटे बच्चे को बलि चढ़ा दिया जाता था । और मान्यता ये थी की इससे देवता प्रस्सन होंगे , खुश होंगे और हमारे गाओं में खुशहाली आएगी , फसल अच्छे से होगी । इस नरबली प्रथा को अंग्रेज रोकना चाहते थे ।
- लेकिन इन अंग्रेजो से भी पहले बस्तर अंचल ( दंतेवाड़ा , दंतेश्वरी मंदिर में ) में नरबली प्रथा को रोकने के लिए नागपुर के भोंसला राजा द्वारा 21 वर्षो तक सैन्य टुकड़िया भेजी गयी थी लेकिन वे भी इस नरबली प्रथा को रोकने में अशमर्थ थे ।
- जिस बच्चे की बलि दी जाती थी उन्हें ही मेरिया कहा जाता था , इसी वजह से इस विद्रोह का नाम भी मेरिया विद्रोह ही पर गया ।
- यहाँ नरबली प्रथा आदिवासियों के देवता तरीपेननु , माटीदेव की जब पूजा होती थी तो उसमे एक संस्कार था की अपने बच्चे को बलि चढ़ाना है इन तररिपेननु देव और माटी देव को खुश करने के लिए ।
- क्या ये सब चीजे सही में होती है इन सभी चीजों के जाँच करने के लिए अंग्रेज अधिकारियो ने मैक फ़र्सन को नियुक्त किया था की तुम इस गाओं में जाओ और पता लगाओ की ये सब चीजों वह को होती है । और अगर होती है तो उन्हें रोकने के लिए वह के लोगो को समझाओ की वे हमारा समर्थन करे ।
- इस विद्रोह में मंदिर के पुजारी श्याम सुन्दर ने भी अंग्रेजो का विरोध किया था क्योकि उन दिनों बस्तर में चर्च बनने लगे थे और वे इस बात को जानते थे की यहाँ भी ऐसा ही कुछ न हो जाये ।
- और अंत में इस विद्रोह को रोकने के लिए अंग्रेजो ने अपने सबसे खतरनाक अधिकारी कैम्पबेल को भेजा जिसने इस विद्रोह को दमन कर किया ।
- लेकिन इस विद्रोह को दमन करने का असली श्रेय दीवान वामनराव और रायपुर के तहसीलदार शेर सिंह को जाता है, क्योकि इनको ही कैम्पबेल ने नियुक्त किया था ।
- परिणाम यह हुआ की नरबली प्रथा को बंद कर दिया गया एवं अंग्रेजो ने इस बंद करने के लिए कानून भी बना दिया जो आज भी लागु है ।
- यह मेरिया / मरिया विद्रोह छत्तीसगढ़ का सबसे लम्बा चलने वाला विद्रोह था , जो की लगभग 21 सालो तक चला ।
मेरे विचार :- इस विद्रोह को लेकर के मेरे विचार यह है की , अंग्रेज तो वास्तव में भारत की संस्कृति को ख़त्म करके , यहाँ के लोगो का धर्मान्तरण कराकर सभी को ईसाई बनाना चाहते थे । जो की मैकाले , मैक्स मुलर की नीतियों में साफ साफ झलकता है , जब अंग्रेज अपने देश गए तो उन्होंने कहा की ये देश के लोग बहुत अजीब है और इतने विकसित है की हम इनपर गुलाब नहीं कर सकते है ।
तो फिर वह के बुद्धिजियो ने कहा की हमें उनके धर्म और संस्कृति को बर्बाद करना होगा । और तभी से ईसाई धर्मान्तरण का कार्य चलता था । लेकिन इस विद्रोह में इस नरबली प्रथा को रोकने की मंशा अंग्रेजो की बिलकुल ठीक थी इसलिए तो राजा भूपाल देव ने भी इनका साथ दिया , लेकिन यहाँ के भोले भले आदिवासी जानते थे की अंग्रेज लोग हमेशा ही हम आदिवासियों का धर्म बदलवाना चाहते है ।
जैसे की 1857 में मंगल पांडेय आदि लोगो के साथ हुआ था , उनके राइफल में गाय की चर्बी और मुसलमानो के लिए सुवर का मांस मिला हुआ था । ये सब जानकर आदिवासी लोग भयभीत थे । और वे कोई अच्छी बात बोले या बुरी बात वे उस पर बिलकुल ध्यान नहीं दे रहे थे । उन्हें बस ये लगता था की अंग्रेज हमारे धर्म संस्कृति पर हमला कर रहे है । इसलिए ये विद्रोह हुआ था ।
5.1857 का विद्रोह-
1857 के विद्रोह के दौरान दक्षिणी बस्तर में ध्रुवराव ने ब्रिटिश सेना का जमकर मुकाबला किया। ध्रुवराव माड़िया जनजाति के डोरला उपजाति का था, उसे अन्य जनजातियों का पूर्ण समर्थन हासिल था।
6.कोई विद्रोह (1859)–
- यह जनजाति विद्रोह कोई जनजातियों द्वारा 1859 में साल वृक्षों के कटाई के विरूद्ध में किया गया था। उस समय बस्तर के शासक भैरमदेव थे।
- बस्तर के जमींदारों ने सामूहिक निर्णय लिया कि साल वृक्षों की कटाई नहीं होने दिया जाएगा। लेकिन ब्रिटिश शासन ने इस निर्णय के विरोध में कटाई करने वालो के साथ बंदूकधारी सिपाही भेज दिए जनजाति इससे आक्रोशित हो गए और उन्होंने कटाई करने वालों पर हमला कर दिया।
- इस विद्रोह में नारा दिया गया “एक साल वृक्ष के पिछे एक व्यक्ति का सिर । परिणामतः ब्रिटिश शासन में ठेकेदारी प्रथा समाप्त कर साल वृक्षों की कटाई बंद कर दी।
- यह जनजाति विद्रोह कोई जनजातियों द्वारा 1859 में साल वृक्षों के कटाई के विरूद्ध में किया गया था। कोई विद्रोही बस्तर में हुआ था ।
- उस समय बस्तर के शासक भैरमदेव सिंह राजपूत जी थे।
- इस विद्रोह के नेतृत्वकर्ता थे नारगुल दोरला ( यह पोटेकाला के जमींदार थे )
- नारगुल दोरला जी के सहयोगी थे रामभोई ,जगराजु ।
- बस्तर के जमींदारों ने जिसमे से थे कट्टापल्ली , भेजी , फोटकेल इन सभी लोगो ने सामूहिक निर्णय लिया कि साल वृक्षों की कटाई नहीं होने दिया जाएगा।
- लेकिन ब्रिटिश शासन ने इस निर्णय के विरोध में कटाई करने वालो के साथ बंदूकधारी सिपाही भेज दिए जनजाति इससे आक्रोशित हो गए और उन्होंने कटाई करने वालों पर हमला कर दिया।
- इस विद्रोह में नारा दिया गया “एक साल वृक्ष के पिछे एक व्यक्ति का सिर ।
- परिणामतः ब्रिटिश शासन में ठेकेदारी प्रथा समाप्त कर साल वृक्षों की कटाई बंद कर दी।
- यहाँ आंदोलन सफल रहा और इसमें विद्रोहियों की जीत हुए और अंग्रेजो की हार हुई थी ।
- किसी तरह से अंग्रेज अधिकारी ग्लास्स्फोर्ड ने विद्रोहियों को समझा बुझाकर शांत करवाया ।
- यहाँ आंदोलन पर्यावरण को बचाने वाला लिए एक प्रथम कदम था ।
- यहाँ बस्तर का पहला विद्रोह था जिसमे अंग्रेजो को हार का सामना करना पड़ा ।
7.मुड़िया विद्रोह (1876)–
1867 में गोपीनाथ कापरदास बस्तर राज्य के दीवान नियुक्त हुए और उन्होंने जनजातियों का बड़े पैमाने पर शोषण आरंभ किया ।
उनका विरोध करने के लिए विभिन्न परगनों के जनजाति एकजुट हो गए और राजा के दीवान की बर्खास्तगी की अपील की। किन्तु यह मांग पूरी न होने के कारण उन्होंने 1876 में जगदलपुर का घेराव कर लिया।
राजा को किसी तरह अंग्रेज सेना ने संकट से बचाया ओडिशा में तैनात ब्रिटिश सेना ने इस विद्रोह को दबाने में राजा की सहायता की।
- मुरिया/माड़िया विदोर्ह या फिर कहे की मुरिया संघर्ष 1876 को बस्तर ,बीजापुर में हुआ था ।
- इसके शासक भैरम देव राजपूत जी थे ।
- इस विद्रोह के नेतृत्वकर्ता झारा सिरहा जी ही थे ।
- इन सभी लोगो और झारा सिरहा के विरोध में था या कहे जो विपक्षी था जिससे इन सभी की लड़ाई था वह था अंग्रेज ।
- इस विद्रोह का मुख्य उद्देश्य यह था की यहाँ के लोग दीवान गोपीनाथ कपरदार और मुंशी आदित्य प्रसाद को हटाना चाहते थे । क्योकि अंग्रेज इनकी मदद से पुरे बस्तर में फुट डालो और राज करो की निति से सभी को आपस में लाडवा रहे थे ।
- इस विद्रोह में यहाँ के लोगो का प्रतिक चिन्ह था – आम के वृक्ष की टहनी थी ।
- इस विद्रोह के दमनकर्ता जॉर्ज मैके था , इसकी जिम्मेद्दारी थी इस विद्रोह को ख़त्म करना लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका ।
- अंततः 2 मार्च 1876 को बस्तर में काला दिवस मनाया गया था ।
- जिससे परेशान होकर आखिरकार जॉर्ज मैके ने 8 मार्च 1876 को बस्तर में मुरिया दरबार कर सबकी शर्ते मन ली ।
8.भूमकाल विद्रोह (1910)-
1910 में हुआ भूमकाल विद्रोह बस्तर का सबसे महत्वपूर्ण व व्यापक विद्रोह था। इसने बस्तर के 84 में से 46 परगने को अपने चपेट में ले लिया इस विद्रोह के प्रमुख कारण थे –
जनजाति वनों पर अपने पारम्परिक अधिकारों व भूमि एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों के मुक्त उपयोग तथा अधिकार के लिए संघर्षरत थे। 1908 में जब यहाँ आरक्षित वन क्षेत्र घोषित किया गया और वनोपज के दोहन पर नियंत्रण लागू किया गया तो जनजातियों ने इसका विरोध किया।
अंग्रेजों ने एक ओर तो ठेकेदारों को लकड़ी काटने की अनुमति दी और दूसरी ओर जनजातियों द्वारा बनायी जाने वाली शराब के उत्पादन को अवैध घोषित किया।
विद्रोहियों ने नवीन शिक्षा पद्धति व स्कूलों को सास्कृतिक आक्रमण के रूप में देखा। अपनी संस्कृति की रक्षा करना ही उनका उद्देश्य था।
पुलिस के अत्याचार ने भूमकाल विद्रोह को संगठित करने में एक और भूमिका निभायी। उक्त सभी विद्रोहों को आग्ल-मराठा सैनिक दमन करने में सफल रहे व विद्रोहियों को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता नहीं मिल सकी। पर राजनैतिक चेतना जगाने में ये सफल रहे।
सरकार को भी अपनी नीति निर्माण में इनकी मांगों को ध्यान में रखना पड़ा। 1857 के महान विद्रोह के उपरांत भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप न करने की अंग्रेज नीति ऐसे ही विद्रोहों का परिणाम थी। कालांतर में इन विद्रोहों के आर्थिक कारको ने नवीन भारत की नीति निर्माण में भी मार्गदर्शन किया।
शासक |
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नेतृत्वा |
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विपक्षी |
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कारण |
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प्रारम्भ |
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नारा |
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प्रतीक |
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दमनकर्ता |
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विद्रोह |
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मुखबीर |
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परिणाम |
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विशेष |
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