नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।
छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas
भारतीय इतिहास में पांचवी छठवीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक सामन्तवादी राज्य व्यवस्था का उद्भव एवं विकास माना गया है। सामन्त एक व्यापक अर्थ रखने वाला शब्द है। इस श्रेणी में अधीनस्थ राजा, राज्य के अधिकारी, स्वयं को समर्पित करने वाले राजा, दान प्राप्त करने वाले ब्राह्मण और राज्य के कुछ संबंधी आते थे।
शक्तिशाली नरेश, सामन्तों को कुछ भूमि दे देते थे और भूमि प्राप्त करने वाले भू-दाता नरेश को कर पटाया करते थे। इसी प्रथा के अनुसार क्रमशः ऐसे भू-स्वामी वर्ग का विकास हो गया जिससे उत्पन्न आर्थिक, सामाजिक तथा शासकीय संस्था को ही सामन्तवाद का नाम दिया गया। ( छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas )
महत्वपूर्ण मत
डी.डी. कोसम्बी के अनुसार अधिकारियों को भूमिदान देने की प्रथा तथा उन्हें अपने क्षेत्र में अपनी सेना रखने की स्वतंत्रता देने के कारण सामन्तीय व्यवस्था का उदय हुआ। अधिकारियों को भूमिदान देने का कारण सिक्के और मुद्राओं की कमी थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत शक्तिशाली राजा अधीनस्थ शासकों से कर लेते थे और ये सामन्त स्थानीय जनसंख्या पर अपनी सैनिक शक्ति का प्रयोग करके उसे अपने वश में रखते थे उनसे कर वसूलते तथा उनका शोषण करते थे। सामन्तवादी प्रणाली में वास्तविक कृषि कार्य कृषि दास करते थे जो भूमि का स्वामित्व नहीं रखते थे। सामन्तों को बेगार लेने का भी अधिकार था।
इतिहासकार डी.सी. सरकार के अनुसार राजा और बड़े सामन्त अपने अधीनस्थ सामन्तों द्वारा उपलब्ध करायी जाने वाली सैनिक सेवा के बदले उन्हें भूमि देते थे श्री बी. एन. एस. यादव स्वामी सेवक संबंधों को सामन्तवादी अवधारणा का प्रमुख तत्व मानते हैं। ( छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas )
सामन्त अपने क्षेत्रों में व्यवस्था कायम करते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर अपने स्वामी को सैनिक सेवा प्रदान करते थे। सामन्त का पद क्रमश: पुश्तैनी होने लगा। इन्हीं परिस्थितियों में छत्तीसगढ़ में भी जमींदारों का आविर्भाव हुआ होगा। जमीदार शब्द का शाब्दिक अर्थ भूमि रखने वाला होता है, जो भूस्वामी कहा जाने लगा।
मूलतः जमींदारों का विकास ऐसे बीहड़ और जंगली क्षेत्रों के आस पास हुआ होगा, जहां यातायात की असुविधा के कारण अपना प्रभाव रखना केन्द्रीय शक्ति के लिए असम्भव रहा होगा। ( छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas )
इसी परम्परा के अनुसार छत्तीसगढ़ क्षेत्र का लगभग 13 भाग जमींदारी क्षेत्र के अन्तर्गत था जमीदारों के अधिकार में बड़ी मात्रा में जमीन थी और उनका यह अधिकार ज्येष्ठाधिकार सिद्धान्त के अनुसार अनेक वर्षों से चला आ रहा था। ये छोटे सरकार के रूप में विख्यात थे। इनमें से कुछ जमींदार गोंड और कुछ राजपूत जाति के थे जमींदार अपने अस्तित्व के लिए केन्द्रीय शक्ति को सैनिक सहायता प्रदान करते थे। मि. जेन्किन्स के अनुसार छत्तीसगढ़ की जमींदारियां प्राचीन शासकों द्वारा सैनिक सेवा की आवश्यकता के आधार पर निर्मित की गयी प्रतीत होती है।
मि. टेम्पल लिखते हैं “छत्तीसगढ़ के अशांत और अव्यवस्थित क्षेत्र में शांति एवं व्यवस्था कायम करने हेतु जमींदारों की स्थापना हुई थी। इस प्रकार भौगोलिक स्थिति तथा भूमि की व्यवस्था के कारण छत्तीसगढ़ में जमींदारों का आविर्भाव स्वाभाविक और आवश्यक रहा होगा। अपने प्रारंभिक काल में जमींदारों ने स्थानीय सुरक्षा, कृषि और न्याय के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये, परन्तु कालान्तर में व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति उनका उद्देश्य बन गया। ये जमींदार विभिन्न शौकों में डूबे रहते थे इसलिए जनहित की कोई परवाह न करते थे। ( छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas )
छत्तीसगढ़ के जमींदारों पर परोक्ष नियंत्रण रखने वाली शक्ति केन्द्रीय शक्ति कहलाती थी, जिसकी इच्छानुसार जमींदारों के अधिकार एवं कर्तव्यों का निर्धारण होता था, जो उनकी मजबूती या दुर्बलता के कारण परिवर्तित होता रहता था ये जमींदार केन्द्रीय शक्ति के बीच सहयोजन के माध्यम थे।
विभिन्न ऐतिहासिक कालों में जमीदारों की स्थिति
विभिन्न ऐतिहासिक कालों में जमीदारों की स्थिति – हैहय शासकों और जमींदारों के बीच जो संबंध स्थापित हुआ वह सन् 850 ई. से लेकर 1740 ई. तक का इतिहास है। हैहयों ने अपने आक्रमणकाल में छत्तीसगढ़ के खुले एवं विस्तृत क्षेत्रों पर अपना प्रत्यक्ष अधिकार स्थापित किया, पर जंगली और दुर्गम क्षेत्रों में पूर्व स्थापित शक्तियों के साथ नये संबंधों की स्थापना की। ( छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas )
इस प्रकार उन्होंने पूर्व में स्थापित जमींदारों को अपदस्थ न कर उन्हें यथावत रहने दिया। मि. चिराम के अनुसार हैहय शासक स्थानीय शासकों के ऊपर महाराजाधिराज के रूप में बने रहे और जमींदार अपने अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से कार्य करते रहे। उनके अस्तित्व का आभार यह था कि आवश्यकतानुसार वे केन्द्रीय शक्ति को सभी प्रकार की सहायता पहुंचाते थे।
सन् 1741 ई. में मराठे हैहय शासकों को हराकर छत्तीसगढ़ के नये शासक बन गये। उन्होंने यहां जमींदारों के प्रति नयी नीति अपनायी। इनके शासनकाल में भी पुरानी जमींदारियां बनी रही पर उन्हें कर देने वाले आश्रित राज्यों के रूप में बदल दिया। उन्होंने प्रत्येक जमींदार पर एक निश्चित राशि निर्धारित कर दी, जिसे टकौली कहा गया। मराठों ने अपने शासन काल में यहां राजनांदगांव छुईखदान और खुरुजी नामक तीन नयी जमींदारियों का गठन किया। इस प्रकार ये जमींदारियां मराठा काल में टकौली देने वाले आश्रित राज्यों के रूप में बनी रहीं। ( छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas )
सन् 1818 ई. में छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश नियंत्रण की स्थापना हुई। अतः अंग्रेजों ने सर्वप्रथम केन्द्रीय शक्ति और जमींदारों के बीच के संबंध को लिखित स्पष्ट और नियमित बनाया। इस प्रकार जमींदारों के साथ उचित और कानूनी संबंधों का सूत्रपात हुआ। जमींदारों के संबंधों को स्पष्ट और नियमित बनाने के लिये उन्हें एक निर्धारित दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने को कहा गया, जिसे इकरारनामा का नाम दिया गया। इसके अनुसार उन्हें केन्द्रीय शक्ति के प्रति निष्ठावान बने रहने को कहा गया। बड़ी जमींदारियों के साथ जो इकरारनामा किया गया वह छोटी जमींदारियों से किये जाने वाले इकरारनामें से कुछ भिन्न था।
बस्तर का जमींदार बड़ा जमींदार माना जाता था। अतः उसके साथ पृथक इकरारनामा किया गया। इसके अनुसार उनके न्यायिक अधिकार पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाया गया। इस प्रकार बस्तर के राजा अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता पूर्वक व्यवहार करते रहे। इस संदर्भ में ब्रिटिश रेजीडेन्ट को यह शिकायत प्राप्त हुई कि बस्तर का राजा यात्रियों को कष्ट देता है और कभी-कभी उनकी नाक आदि करवा देता है। पर रेजीडेन्ट ने उसके आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया। ( छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas )
इस प्रकार उचित समझौते द्वारा जमींदारों को केन्द्रीय शक्ति के साथ सुसम्बद्ध करने का प्रयास किया गया। अंग्रेजों ने जमींदारों के फोजदारी (बस्तर को छोड़कर) अधिकारों में कटौती की। इस नवीन व्यवस्था के कारण उत्तीसगढ़ के जमींदार शांत और नियंत्रित दिखायी पड़े। कालान्तर में इन जमींदारों को दो श्रेणियों में विभक्त कर दिया गया –
(1) सामन्त या जागीरदार और (2) साधारण जमींदार बस्तर का जमींदार प्रथम श्रेणी में रखा गया।
बस्तर में जमींदारी
बस्तर – बस्तर छत्तीसगढ़ की एक पुरानी और बड़ी जमींदारी रही। बाद में इसे रियासत का दर्जा दिया गया। यह आदिवासी बहुल और जंगलों से आच्छादित है। यहां की आबादी का घनत्व 24 व्यक्ति प्रति वर्गमील था। राजधानी के पास आबादी का घनत्व अधिक था। इसका क्षेत्रफल 13073 वर्गमील और आबादी 306501 थी। यहां का राज परिवार प्राचीन है। तथा गोंड और राजपूत जाति का मिश्रण प्रतीत होता है। ऐसा कहा जाता है कि यहां का राजा वारंगल राज्य के काकतीय वंश के थे। अन्नमदेव इस राज्य के संस्थापक माने जाते हैं। यहां की कुल देवी दंतेश्वरी का विशेष महत्व है। ( छत्तीसगढ़ के जमींदारों का इतिहास | Chhattisgarh ke jamindaro ka itihas )
सन् 1777 ई. के आस पास दरियाव देव के शासन काल में यह मराठों का आश्रित राज्य बना और उस पर 5000/- रु. प्रति वर्ष टकौली निर्धारित की गयी। सन् 1819 ई. में मि. एगन्यू ने यहां के जमींदार महिपाल देव के साथ इकरारनामा किया, जिसके द्वारा उनके अधिकारों को परिभाषित किया गया। सन् 1839 में नागपुर की सरकार ने उनके न्यायिक अधिकारों में कटौती करते हुए उन्हें गंभीर सजा देने के अधिकार से वंचित कर दिया। छत्तीसगढ़ के प्रथम डिप्टी कमिश्नर कैप्टन इलियट ने सन् 1895 ई. में इस जमींदारों की यात्रा की। यहाँ नरबलि देने की प्रथा प्रचलित थी। महिपाल देव के समय एक व्यक्ति और भोपाल देव के शासन काल में 3 व्यक्तियों की बलि दी गयी।
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