लोक गीत में सदियों से नारी मन का स्पंदन रहा है। ये गीत नारी मन के सुख-दुःख को अभिव्यक्त करते हैं। छत्तीसगढ़ी गीतों में नारी की विसंगतियों के चित्र कम मिलते हैं। यहाँ स्त्री जीवन वैसा त्रासद नहीं है, जैसा अन्य समाजों में है। फिर भी यहाँ के कुछ लोग गीतों में स्त्री जीवन की व्यथा और त्रासदी उभरती है। जैसे- विदा गीत, सोहर गीत, सुआ गीत, नाचा गीत और देवार गीत ।
विदा या विदाई गीतों में मुख्यत अपनों से बिछोह और अनजाने देश और परिवेश में भेजने की पीड़ा ही मिलती है, किन्तु कुछ गीतों में स्त्री और पुरुष के बीच किये जाने वाले भेदभाव के चित्र भी मिलते हैं :-
बेटा रहितेंव तोर घर मा रहितेंव
बेटी भयेव बिरान ओ दाई
आज चिरैया रनबन रनबन ओ दोई
काली चिरैया बड़ दूर ओ दाई ।
अर्थात् अगर मैं बेटा होती तो मैं तुम्हारे घर में रहती। मगर मैं तो बेटी हूँ। मैं तो पराई हूँ, मैं तुम्हारी कुछ भी नहीं। मैं तो चिड़िया के समान हूँ जो आज तुम्हारे घर आँगन में चहक रही हूँ। कल तुमसे बहुत दूर चली जाऊँगी। ( छत्तीसगढ़ी गीतों में नारी भाव – Chhattisgarhi Geeto Me Nari Bhav | Female expressions in Chhattisgarhi songs )
सोहर गीतों में लड़के जन्म की ही कामना उभरती है। पुरुष समाज अपनी वंशवृद्धि और अपने संरक्षण का ऐसा घेरा बनाता है कि वह उसी के अनुरूप सोचने को विवश होती है :-
दूसर महीना जब लागिस सांस गम पाइस
जेवनी गोड़ बिछलाथ जिया मचलाये हो
तीसर महीना जब लागिस ननद मुसकाइस
होइहें लाल कन्हैया पंचलर पायेंव हो
चौथा महीना जब लागिस सास पुलकाइस
होइहीं कुल रखवारे मोतियन लुटइहों हो
सुआ गीतों में स्त्री के जीवन की पीड़ा के अनेक रंग मिलते हैं। ससुराल आकर तरह-तरह की तकलीफों के बाद भी वह इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार लेती है। मगर पति का साथ भी उसे नहीं मिलता, तब उसे अपना जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है यह दुःख इतना अधिक है कि वह चंदा और सूरज से विनती करती है कि उसे अगले जन्म में स्त्री जीवन मत दे. क्योंकि स्त्री का जीवन दुख का आगार है-
पइयां लागत हाँ
चंदा सुरूज के रे, सुआ न।
तिरिया जनम झनि देय।
तिरिया जनम मोर गऊ के बरोबर रे सुआ न ।
जहाँ पठवय तहँ जाय रे सुआ न ।
अँगठित मोरि-मोरि घर लिपवावे रे सुआ न
फेर ननद के मन नहिं आय
बौह पकरि के सैंया घर लावे। रे सुआ न
ससुर हर सरका बताय।,
ददरिया गीतों में वर्णन मिलता है स्त्री अगर अपने विवाह से संतुष्ट नहीं है तो वह अपने मन पसन्द पुरुष के लिए %चूरी पहन% सकती है। यह चूरी पहनना दूसरे विवाह का समाज स्वीकृत रूप है, इसलिए यहाँ उसकी स्थिति गुलाम की न होकर बराबरी की है।
टँगिया ल धरके निकल बन मा
मोर आगे विहाता ले जाही संग मा।
छत्तीसगढ़ की औरतें मेहनत में पुरुषों से पीछे नहीं रहती। घर से बाहर तक खेत-खलिहान सभी कार्य में वे निपुण होती हैं। वे घर-गृहस्थी का आधार होती हैं,इसीलिए उनमें स्वाभिमान भी होता है।
लुगरा चिराके होथे फरिया
जी जाहूँ त जोत हूँ नइ त होही परिया।
इस तरह ददरिया में नारी स्वाभिमान और स्वतंत्रता की झलक भी मिलती है। यहाँ की स्त्रियाँ आर्थिक रूप से भी परतंत्र नहीं होती और यहाँ की विवाह व्यवस्था भी स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं करती, अर्थात् यहाँ स्त्री भी दूसरे या तीसरे या अनेक विवाह के लिए स्वतंत्र है यही कारण है कि यहाँ के लोक गीतों खासकर गाथाओं में नारी चेतना और नारी स्वातंत्र का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षिति होता है। ( छत्तीसगढ़ी गीतों में नारी भाव – Chhattisgarhi Geeto Me Nari Bhav | Female expressions in Chhattisgarhi songs )
इन गाथाओं में बहुचर्चित देवार गीत श्रदसमत कैना उल्लेखनीय है। यह गाथा एक स्त्री के संघर्ष, उसकी जिजीविषा और उसके आत्म सम्मान की गाथा है। इसीलिए दसमत के संघर्ष को सम्मान देने के लिए उसे कैना अर्थात् कन्या कहा जाता है। वह विवाहित होकर भी कन्या की तरह पवित्र और पूज्य है, क्योंकि वह अपने आत्म सम्मान की रक्षा में सक्षम है। यह कथा गीत दसमत आडिनिन और नौ लाख ओडया के नाम से भी जानी जाती है।
दसमत गाथा में दो महत्त्वपूर्ण बिन्दु हैं, जिसका सम्बन्ध कथा की अंतर्वस्तु से हैं, जिसके केन्द्र में सामंती समाज की लिप्सा के विरुद्ध एक श्रमजीवी स्त्री का आक्रोश और विद्रोह है। दसमत कैना राजा की पुत्री है, जो गरीब ओया सुदन बिटिया से व्याह दी जाती है। उसके पिता ब्राह्मण जाति के माने जाते हैं। इस कथा का प्रारम्भ ही इस परिचय के साथ होता है :-
राजा भोज बाम्हन कई बेटी, कुल बमनीन के जात
सुदन बिहइया लागे कहना के, लच्छन देवता तोर ।
सोला के लागे भतार, बारा बच्छर दसमेत के उम्मर
सब ओडिया ताबेदार ।
दसमत श्रृंगार करके औरतों का नेतृत्त्व करती है। वह राजा को जोहार करने जाती है, ताकि उन्हें काम मिल सके। राजा दसमत पर आसक्त हो जाता है, वह उससे कहता है :-
अब तँ आये तोर पांव में, अब चलते मोर संग
छोड़ दे ओडिनन डाली टुकनिया छोड़ ओड़िया भतार
आके बइठ जा राजा के महल में द्वअऊ सौ झोंकव जोहार ।
इस गाथा में स्त्रियाँ अपने परम्परागत खाँचे को तोड़कर अपना वजूद स्वयं गढ़ती हैं। दसमत ही नहीं राजा महान देव की रानियाँ भी राजा के विरोध में उठ खड़ी होती हैं। जब ओया नशे में चूर राजा को गधी की पूंछ से बाँधकर उसका उपहास उड़ाते हैं, तब रानियाँ अपने बेटों से कहती हैं कि वे उसकी कोई सहायता न करें :-
बेटा ल बरज दिन ग सातो रानी मन
में कर करा के साथ ल झन कर
आज सात झन रानी रहिन का कभू रहिस ग तेला बता
ओनिन खातिर अपन जिव ल गँवये तेला जान दो
यहाँ रानियाँ भारतीय परम्परा का पालन करके अपने पति को बचाती नहीं करमों की सजा के लिए- उसे मरने के लिए छोड़ देती है। रानियों का यह रूप आज की स्त्री का रूप है परम्परागत स्त्री का नहीं, अतएव यह गाथा सही. अर्थों में स्त्री के स्वाभिमान उसकी जिजीविषा, उसके साहस और उसके स्वतंत्र अस्तित्व की गाथा है। दसमत कैना गायन अब लगभग लुप्तप्राय कई पाठ हैं, कथा सूत्र भी बिखरा-बिखरा नजर आता है। दसमत कैना गायन में श्रीमती रेखा देवार गायिका है ( छत्तीसगढ़ी गीतों में नारी भाव – Chhattisgarhi Geeto Me Nari Bhav | Female expressions in Chhattisgarhi songs )
गाथा गीतों में पंडवानी यूँ तो पांडवों की गाथा है, किन्तु पंडवानी में कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिसमें स्त्री की पीड़ा ही नहीं उसका आक्रोश और उसकी चेतना का स्वर भी उभरता है। शिक्षा, नारी चेतना नारी स्वातंत्र आदि कारणों से पंडवानी गायन में महिला गायिकाओं की एक लम्बी श्रृंखला है। ( छत्तीसगढ़ी गीतों में नारी भाव – Chhattisgarhi Geeto Me Nari Bhav | Female expressions in Chhattisgarhi songs )
पद्मश्री तीजनबाई, ऋतु वर्मा, मीनाबाई साहू, उषा बारले, स्व. लक्ष्मीबाई बंजारे, सुशीला ठाकुर, दयाबाई चेलक, कु. सावित्री ठाकुर, चैतीबाई साहू और उत्तरा कुमारी। इसके अतिरिक्त कुछ पुरुष गायक भी हैं, जिन्होंने अपने गायन के माध्यम से नारी प्रसंग विशेषकर – द्रौपदी और कुंती प्रसंग उभारा है। पंडवानी गायन में वेदमती शैली सर्वाधिक प्रचलित शैली है। इसके अन्तर्गत भी पंडवानी गायन की दो परम्परायें मिलती है- मौखिक परम्परा और लिखित परम्परा । ( छत्तीसगढ़ी गीतों में नारी भाव – Chhattisgarhi Geeto Me Nari Bhav | Female expressions in Chhattisgarhi songs )
पंडवानी में ख्यात नारी प्रसंग है- कर्ण जन्म .कथा, पांडवों के जन्म की कथा, द्रौपदी वरदान की कथा, स्वयंवर प्रसंग, द्रौपदी चीरहरण, कर्ण कुंती संवाद कथा आदि । द्रौपदी को दाँव पर लगाने से लेकर चीरहरण तक पंडवानी गायन में नाटकीयता अपने चरम पर होती है। द्रौपदी को दाँव पर लगाने का प्रसंग
धर्मराम हे तऊन दुरपती ल लगावत है।
उठा के पासा ये जी मामा सकुनि फेंकय जी ।
मामा सकुनि उठा के जब पांसा फेंकस ।
मोर रानी ये दुरपंतील दांधे लगावत हवय भाई ।
रानी दुरपती ल जब हारय भइया धरमराज हाय कहिके
अपन माथा ल घरके बहटगे तइसे हारय तुइसे दुरयोधन बइठे राहय,
करन बइठे राहय खलखला के हाँसय।
दुरयोधन गद्दी म बइठे रहय उछल-उछल के हाँसय ।
दुरयोधन चिल्ला के बोले कोन ल बोले ग,
दुसासन ल बोले जा रानी त दुरपती ल सभा भवन में ला अऊ लाके बिना
वस्त्र के मोर जांघ म बइठा
खुशी के मारे दुसासन चले भाई
दुरपति लचिल्ला के दुसासन ये दे कसे बोलत हवै भाई।
चलो दुरपती मोर बड़े भइया के आडर है।
जल्दी चलो सभा में बलावत हे।
जाके दुसासन कइसे बोले भाई।
कइसे मजा के ये दुसासन बोले भाई। मोर बीर दुसासन दकड़त हवे. भाई ।
मोर दऊड़ के बाल ल. पकड़य भाई।
दुरपती हे तऊन ये मुट्ठी बंधाय रहिसे येला ।
छोड़ के दूनो हाथ जोड़ के भगवान के याद कर।
दुख हरो द्वारिका नाथ सरन मैं तेरी।
मोर गरूड़ म बइठ के मोहन चले आवे भइया ।
तेला कोनों नई जानय ये भाई।
पंडवानी में नारी पात्र महाभारत की अपेक्षा कुछ अलग नजर आती हैं। पंडवानी गायन वाचिक परम्परा में है, गायक-गायिका की कला, उसकी योग्यता और उसकी विचारधारा भी उसके गायन में समाहित हो जाती है। वर्तमान समय में नारी चेतना, नारी स्वातंत्र का बोलबाला है। यहीं कारण है कि तीजनबाई, ऋतु वर्मा और शांति बाई चेलक और अन्य गायिकाओं के गायन में यह स्वाभाविक रूप से है। ( छत्तीसगढ़ी गीतों में नारी भाव – Chhattisgarhi Geeto Me Nari Bhav | Female expressions in Chhattisgarhi songs )
छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में स्त्रियों की भागीदारी का महत्त्वपूर्ण कारण खुला सामाजिक परिवेश है. जिसमें कला के प्रति, गायन के प्रात स्त्री के रूझान पर कोई रोक नहीं लगायी जाती है , यहाँ पदों प्रथा न होने के कारन स्त्रियाँ भी सहज होकर गायन कर पाती है । दूसरा कारण स्त्री की सहज प्रतिभा है । कथा , कथन , गीत गायन उसे नानी – दादी से विरासत के रूप में मिलता है ।