आज की कहानी शुरू होती है 25 जनवरी की रात से, जब मैंने अपने दोस्त को सख्ती से कहा, “भाई, कल 8:00 बजे झंडा फहराया जाएगा। तू 7:00 बजे मुझे कॉल कर लेना। हमें सबसे पहले वहाँ पहुँचकर हिस्सा लेना है।”
उसने भी बड़े आत्मविश्वास से कहा, “हाँ-हाँ, मैं कॉल कर दूंगा।”
लेकिन कहानी यहाँ से उलझनी शुरू हुई।
रात के 12:01 बज चुके थे, और मेरी जल्दी सोने की योजना धरी की धरी रह गई। हालाँकि, मैं हर दिन 10-11 बजे उठता हूँ, लेकिन आज 26 जनवरी की वजह से, सुबह 6:30 बजे ही आँख खुल गई। 😲
सुबह की शुरुआत: एकदम जोश में
जल्दी उठकर मैंने योग किया, घर के डंबल उठाए और खुद को पूरी तरह तैयार कर लिया। जो दोस्त मुझे 7:00 बजे कॉल करने वाला था, उसे मैंने ही 6:30 बजे फोन कर दिया। और क्या पता? वो गहरी नींद में था! 😑
उसने कहा, “अरे भाई, कॉल तो तू करने वाला था ना? अभी तो मैं उठा ही नहीं!”
खैर, मैंने मन शांत रखा और कहा, “8:00 बजे तक तैयार हो जा, मैं कार से आ रहा हूँ।”
लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं हुई।
जब मैंने कार निकाली और उसका कवर धोया, उसे फिर फोन किया। उसने बड़े आराम से कहा, “10 मिनट और रुक, फिर निकल।”
मैंने गुस्से में कहा, “भाई, मैं तो निकल चुका हूँ।”
उसने मुझे कहा, “बीजेपी ऑफिस के पास देख लेना, वहाँ झंडा फहराया जा रहा होगा।”
सड़क पर झंडा फहराने की खोज
मैंने रास्ते में जाकर देखा, लेकिन तब तक वहाँ नेता लोग झंडा फहराकर जा चुके थे। 😕
मैंने उसे फिर फोन किया, तो वो बोला, “10 मिनट और इंतजार कर ले।”
अब मेरे सब्र का बांध टूटने लगा था। मैं सोच रहा था कि रोड पर खड़े होकर कब तक इंतजार करूँ!
8:00 बजे का वादा, लेकिन 9:30 की हकीकत
आखिरकार, मैं उसके घर पहुँचा। मैंने उसे फोन किया, लेकिन वो फोन ही नहीं उठा रहा था।
करीब 9:30 बजे महाराज नीचे आए। तब तक मेरा मूड पूरी तरह खराब हो चुका था। मैं घर वापस जाने का सोच ही रहा था कि उसकी मम्मी का फोन आ गया। उन्होंने मुझे रुकने के लिए कहा, नहीं तो मैं निकल ही गया होता।
उसने नीचे आते ही मुझसे सॉरी कहा और आलूंडा निकालकर मुझे देने लगा, जैसे वो मेरा गुस्सा कम करने का उपाय हो। लेकिन मैं मन ही मन सोच रहा था, “साले, ये खाने का समय है?!” 😤
स्टेडियम की ओर रवाना
फिर जैसे-तैसे हमने स्टेडियम का रुख किया। लेकिन दिल में बस एक ही ख्याल था, “ये बंदा पिछले 10 साल से ऐसा ही करता है, कभी समय पर तैयार नहीं होता!”
पर क्या करें, दोस्ती निभानी थी, तो निभाई।
26 जनवरी की सुबह: जब दोस्त पर भरोसा महंगा पड़ा
आज की कहानी शुरू होती है 25 जनवरी की रात से, जब मैंने अपने दोस्त को सख्ती से कहा, “भाई, कल 8:00 बजे झंडा फहराया जाएगा। तू 7:00 बजे मुझे कॉल कर लेना। हमें सबसे पहले वहाँ पहुँचकर हिस्सा लेना है।”
उसने भी बड़े आत्मविश्वास से कहा, “हाँ-हाँ, मैं कॉल कर दूंगा।”
लेकिन कहानी यहाँ से उलझनी शुरू हुई।
रात के 12:01 बज चुके थे, और मेरी जल्दी सोने की योजना धरी की धरी रह गई। हालाँकि, मैं हर दिन 10-11 बजे उठता हूँ, लेकिन आज 26 जनवरी की वजह से, सुबह 6:30 बजे ही आँख खुल गई। 😲
सुबह की शुरुआत: एकदम जोश में
जल्दी उठकर मैंने योग किया, घर के डंबल उठाए और खुद को पूरी तरह तैयार कर लिया। जो दोस्त मुझे 7:00 बजे कॉल करने वाला था, उसे मैंने ही 6:30 बजे फोन कर दिया। और क्या पता? वो गहरी नींद में था! 😑
उसने कहा, “अरे भाई, कॉल तो तू करने वाला था ना? अभी तो मैं उठा ही नहीं!”
खैर, मैंने मन शांत रखा और कहा, “8:00 बजे तक तैयार हो जा, मैं कार से आ रहा हूँ।”
लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं हुई।
जब मैंने कार निकाली और उसका कवर धोया, उसे फिर फोन किया। उसने बड़े आराम से कहा, “10 मिनट और रुक, फिर निकल।”
मैंने गुस्से में कहा, “भाई, मैं तो निकल चुका हूँ।”
उसने मुझे कहा, “बीजेपी ऑफिस के पास देख लेना, वहाँ झंडा फहराया जा रहा होगा।”
सड़क पर झंडा फहराने की खोज
मैंने रास्ते में जाकर देखा, लेकिन तब तक वहाँ नेता लोग झंडा फहराकर जा चुके थे। 😕
मैंने उसे फिर फोन किया, तो वो बोला, “10 मिनट और इंतजार कर ले।”
अब मेरे सब्र का बांध टूटने लगा था। मैं सोच रहा था कि रोड पर खड़े होकर कब तक इंतजार करूँ!
8:00 बजे का वादा, लेकिन 9:30 की हकीकत
आखिरकार, मैं उसके घर पहुँचा। मैंने उसे फोन किया, लेकिन वो फोन ही नहीं उठा रहा था।
करीब 9:30 बजे महाराज नीचे आए। तब तक मेरा मूड पूरी तरह खराब हो चुका था। मैं घर वापस जाने का सोच ही रहा था कि उसकी मम्मी का फोन आ गया। उन्होंने मुझे रुकने के लिए कहा, नहीं तो मैं निकल ही गया होता।
उसने नीचे आते ही मुझसे सॉरी कहा और आलूंडा निकालकर मुझे देने लगा, जैसे वो मेरा गुस्सा कम करने का उपाय हो। लेकिन मैं मन ही मन सोच रहा था, “साले, ये खाने का समय है?!” 😤
स्टेडियम की ओर रवाना
फिर जैसे-तैसे हमने स्टेडियम का रुख किया। लेकिन दिल में बस एक ही ख्याल था, “ये बंदा पिछले 10 साल से ऐसा ही करता है, कभी समय पर तैयार नहीं होता!”
पर क्या करें, दोस्ती निभानी थी, तो निभाई।
तो फिर मैंने क्या सीखा :
26 जनवरी का दिन खास होता है, लेकिन अगर दोस्त टाइम के पक्के न हों, तो सब प्लान गड़बड़ हो सकता है। अगली बार, झंडा फहराने से पहले शायद मैं नया दोस्त ढूँढ़ लूँगा! 😅
स्टेडियम की ओर सफर: जब हर कदम पर नई मुसीबत मिली
दोस्त के साथ स्टेडियम की ओर बढ़ते हुए, ऐसा लग रहा था मानो आज सारा शहर हमारी परीक्षा लेने पर तुला हुआ है। मैंने उससे पूछा, “भाई, स्टेडियम किस रास्ते से चलें? डायरेक्ट जाएं या कोई शॉर्टकट लें?”
वो बोला, “भाई, मूड इस पल लेफ्ट से चलते हैं। पुलिस वाले खड़े होंगे, लेकिन हँसते-हँसते आराम से निकल जाएंगे।”
रास्ते की बंदिशें और दोस्त की गाइडेंस
हम लेफ्ट साइड से गए, लेकिन पूरा रास्ता बंद था। कलेक्टर, एसपी, और नेता लोग आने वाले थे, इसलिए पूरा रोड ब्लॉक था।
अब राइट साइड से कार मोड़ी, लेकिन दिक्कत ये थी कि मुझे कार चलाना सही से नहीं आता।
मेरे दोस्त ने कमान संभालते हुए कहा, “भाई, लेफ्ट में काफी जगह है। कार को डिवाइडर के पास चिपका के चलाओ।”
पर मुझे उस पर भरोसा नहीं था। मुझे लग रहा था कि वो मजाक कर रहा है और कार ठोकने का पूरा प्लान बना चुका है।
मैंने गुस्से में कहा, “भाई, मजाक मत कर, ये सब मत बोल।”
उसने शांति से जवाब दिया, “चल ठीक है, मैं कुछ नहीं बोलता। तू जैसे चलाना है, वैसे चला।”
स्टेडियम पहुँचने से पहले नई मुसीबत
स्टेडियम पहुँचने से पहले ही मेरी हालत खराब हो गई। मुझे जोर से बाथरूम जाने की जरूरत महसूस हुई।
मेरे दोस्त ने मना किया, “भाई, यार यहाँ मत कर, कोई देख लेगा।”
लेकिन जब आपकी हालत खराब हो, तो सलाह की कोई अहमियत नहीं रहती। मैंने कहा, “भाई, यहाँ तो करना ही पड़ेगा।”
पहले मैंने चारों तरफ नज़र दौड़ाई कि कोई लड़की या लड़का तो नहीं देख रहा। फिर किसी तरह निपटा। 😅
कार की लाइट और चाकू की मुसीबत
बाथरूम के बाद, मैंने देखा कि कार का हेडलाइट चालू छूट गया था।
भागकर वापस गया, कार को अनलॉक किया और लाइट बंद की।
अब, जब स्टेडियम के गेट के पास पहुँचे, तो याद आया कि कार में रखा फल काटने वाला चाकू जेब में था।
मुझे डर था कि गेट पर लगी पुलिस की डिटेक्टर मशीन इसे पकड़ लेगी।
मेरे दोस्त ने तुरंत आइडिया दिया, “भाई, इसे कहीं छिपा देते हैं।”
मैंने पास के पेड़ के नीचे एक ईंट उठाई और उसके नीचे चाकू छिपा दिया।
वो बोला, “भाई, कोई चुरा लेगा। 150 रुपये का चाकू है।”
मैंने कहा, “भाई, चाकू बचाने से बेहतर है कि अंदर जाने दिया जाए।”
गेट नंबर दो पर भीड़ और धूप की आफत
स्टेडियम के गेट नंबर दो पर पहुँचे तो लगा, आज पूरी जनता यहीं इकट्ठा हो गई है।
धूप इतनी तेज थी कि मेरा दोस्त चिढ़कर बोला, “भाई, यहाँ बैठने की कोई व्यवस्था नहीं है। चलो, वापस चलते हैं।”
उसके इस सुझाव पर मेरा खून खौल गया। मैंने कहा, “भाई, इतनी मुश्किल से यहाँ पहुँचे हैं, अब वापस नहीं जा रहा।”
मोरल ऑफ द स्टोरी: दोस्ती और धैर्य की परीक्षा
आज का दिन सिखा गया कि दोस्त चाहे जितना करीबी हो, पर हर मुश्किल का हल उसी से निकालने की उम्मीद मत करना।
और हाँ, अगली बार कार में चाकू रखने से पहले दो बार सोचूंगा! 😅