गोरखपुर में वर्ण व्यवस्था , Gorakhpur me Varn vyavastha:जनपद की अधिकांश जनता हिन्दू है जिसके संघटन और विभाजन का सैद्धान्तिक आधार वर्ण है।
वर्ण चार हैं- (1) ब्राह्मण (2) क्षत्रिय (3) वैश्य और (4) शूद वर्ण का आधार है समाज में श्रमविभाजन अर्थात् काम का बँटवारा। वर्ण की उत्पत्ति का संकेत ऋग्वेद जैसे अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ में मिलता है। अपने गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति चार वर्णों अथवा सामाजिक वर्गों में सम्मिलित हो जाता था। ब्राह्मण के कर्म अध्ययन अध्यापन; यजन-यावन और दान तथा प्रतिग्रह थे।
क्षत्रिय के कर्म अध्ययन, यजन, दान, प्रजारक्षण, प्रजापालन तथा प्रजारंजन था। वैश्य के कर्म अध्ययन, यजन, दान तथा कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य आदि प्रजापोषण सम्बन्धी कार्य थे। शूद्र के काम दान तथा समाज की शारीरिक सेवा थी। प्रारम्भ में चारों वर्णों के बीच में कोई अलंघ्य दीवाल नहीं थी। जन्म से ही कोई किसी वर्ण का अधिकारी नहीं होता था। वर्ण का परिवर्तन संभव था। विवाह और खान-पान में अन्तर्वर्ण सम्बन्ध था। व्यक्तिगत पवित्र्ता के अतिरिक्त समाज में नीच ऊँच अथवा अछूत का भाव नहीं था।
इससे समाज सजीब और – कर्मशील बना रहा। यह अवस्था गुप्तकाल (सं. 550 विक्रमीय) तक प्रायः बनी रही है। इसके बाद हिन्दू समाज शिथिल पड़ने लगा। अनेक सम्प्रदायों का उदय हुआ। वर्ण के भेद और उपभेद होने लगे। धर्म, भूगोल, व्यवसाय, कृच्छ आचार के आधार पर समाज के टुकड़े टुकड़े हो गये।
जिस आदिम जाति प्रथा को दबा कर वर्ण ने समाज में एक क्रम, व्यवस्था और समष्टि का आदर्श उपस्थित किया था, उस जाति प्रथा ने वर्ण को नीचे दबा दिया। धीरे धीरे वर्ण जातियों के रूप में रह गये हैं। अब उनका केवल जन्म है। वर्ण और वृत्ति में कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं रह गया है। अधिकार के साथ कर्तव्य की भावना बिल्कुल नष्ट हो गयी है। इस परिस्थिति ने समाज में विषमता और असंतोष उत्पन्न कर दिया है।