गोरखपुर में पिप्लीवन के मौर्य , Gorakhpur me pipalivan ke maurya:
पिप्पलीवन के मौर्य –
वंश-परिचय-
जब तक बौद्ध साहित्य का पूरा अध्ययन नहीं हुआ था और केवल पाटलिपुत्र के साम्राज्यवादी मौयों का ही पता था तब तक मौयों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचित्र कल्पनायें की गयी थीं। विष्णुपुराण में नन्नदें के उन्मूलन और मौयों के आगमन का वर्णन इस प्रकार दिया हुआ है – ततश्च नव चैतान्नन्दान् कौटिल्यो ब्राह्मणः समुद्धरिष्यति। तेषामभावे मौर्याः पृथ्वीं भोक्ष्यन्ति। कौटिल्य एवं चन्द्रगुप्तं उत्पन्नं राज्येऽभिषेक्ष्यति (इसके पश्चात् ब्राह्मण कौटिल्य इन नव नन्दों का उन्मूलन करेगा। उनके अभाव में मौर्य पृथ्वी का भोग करेंगे। कौटिल्य उत्पन्न (प्रस्तुत) चन्द्रगुप्त को के लिये अभिषिक्त करेगा) ।
राज्य विष्णुपुराण पर टीका करते हुये श्रीधर स्वामी ने ‘उत्पन्नं’ की व्याख्याओं की है-नन्दस्यैव भार्यायां मुरासंज्ञायां सञ्जातम् (अर्थात् नन्द की मुरा नामक भार्या में उत्पन्न)। श्रीधर स्वामी को मौर्यों का प्राचीन इतिहास मालूम नहीं था। इसलिये ‘मौर्य’ शब्द की व्युत्पत्ति बतलाने के लिये उन्होंने ‘मुरा’ की कल्पना कर ली।
इनसे बढ़कर दुढिराज शास्त्री ने मुद्राराक्षस की टीका करते समय अपनी भूमिका में कल्पना के बल पर मुरा की पूरी कथा लिख दी और उसको नापिती कन्या (शूद्रा) बतलाया। फिर क्या था? यह बात प्रचलित हो गयी कि मौर्य मुरा नामक नाइन से उत्पन्न शूद थे। किन्तु मौयों की व्युत्पत्ति ढूंढ निकालने की धुन में न तो उत्पर्युक्त विद्वानों को और न उनके अनुयायियों को यह बात ध्यान में आयी कि संस्कृत व्याकरण के अनुसार मुरा का अपत्य ‘मौरेय’ होगा, ‘मौर्य’ नहीं। मौयों के शूद्र होने के पक्ष में जो दूसरा प्रमाण दिया जाता है वह है मुद्राराक्षस नामक नाटक का ‘वृषल’ शब्द |
चाणक्य चन्द्रगुप्त को इसी शब्द से सम्बोधित करता है। वृषल शब्द का कोष और स्मृति में दिया हुआ अर्थ प्रायः व्रात्य अथवा ‘शूद्र’ है। किन्तु सोचने की बात है कि मंत्री चाहे कितना भी शक्तिमान् हो राजा को ‘शूद्र’ शब्द से बार-बार सम्बोधित नहीं कर सकता। वास्तव में वृषल शब्द यूनानी ‘बैसिलियस’ (राजा) का संस्कृत रूपान्तर था जिसका प्रयोग केवल चन्द्रगुप्त के लिये होता था। यूनानी राजा सेल्यूकस से सम्बन्ध हो जाने के बाद उसको यह उपाधि मिली थी। संस्कृत व्याकरण से भी इस मत की पुष्टि होती है (वृषलो गृज्ञ्जने शूद्रे चन्द्रगुप्तेऽपि राजनि) अर्थात् ‘वृपल’ शब्द का प्रयोग गृञ्जन (लहसुन), शूद्र आर चन्द्रगुप्त राजा के लिये होता है। आजकल कोई भी विद्वान् मुरा (कल्पित नाइन) से मौयों की उत्पत्ति को मानने के लिये तैयार नहीं है।
बौद्ध साहित्य में मौर्यों को स्वतंत्र गणतांत्रिक जाति बतलाया गया है और उनके क्षत्रिय होने के कई उल्लेख हैं। बौद्धग्रंथ महावंश में मौयों की चर्चा निम्नलिखित प्रकार से की गयी है। मोरियानं खत्तियानं वंसे जातं सिरीधरं । चंद्रगुत्तो ति पञ्जतं चणक्को वम्हणो ततो।। (मौर्य क्षत्रियों के वंश में उत्पन्न चन्द्रगुप्त को चाणक्य ब्राह्मण प्रचण्ड क्रोष से नवें धननन्द का विनाश कर समस्त जम्बूद्वीप के राजपद पर बैठाया।) दूसरे बौद्धग्रंथ दिव्यावदान में चन्द्रगुप्त का पुत्र विन्दुसार अपने को मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहता है त्वं नापिती अहं राजा क्षत्रियो मूर्द्धाभिषिक्तः । कथं मया सार्धं समागमो भविष्यति । (तुम नाई की लड़की और मैं मूर्द्धाभिषिक्त क्षत्रिय हूँ।
मेरे साथ तुम्हारा समागम कैसे होगा ? इसी ग्रंथ में अशोक भी अपने को क्षत्रिय कहता है देवि, अहं क्षत्रियः कथं पलाण्डु परिभक्षयामि (हे रानी! मैं क्षत्रिय हूँ। प्याज कैसे खाऊँगा ) ? महापरिनिव्वाण सुतान्त” में लिखा है कि भगवान् बुद्ध के अवशेष में भाग लेने के लिये मौयों ने निम्नलिखित सन्देश के साथ मल्लों के यहाँ अपना दूत भेजा – अथ खो पिप्पलिबनिया मोरिया कोसिनारकानं मल्लानं दूतं पाहेसुं भगवा पि खत्तियो मयं पि खत्तिया । [ इसके पश्चात् पिप्पलीवन के मौर्यों ने कुशीनगर के मल्लों के पास यह कहकर दूत भेजा कि ‘भगवान् भी क्षत्रिय हैं, हम भी क्षत्रिय हैं। ‘] महावंश टीका में लिखा हुआ है कि मौर्य लोग उसी जाति के थे, जिस जाति के भगवान् महावंश, महावस्तु, ललितविस्तर आदि ग्रंथों से प्रमाणित है कि बुद्ध सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। अतः मौर्य भी उसी वंश के हुये ।
मौर्यो की राजधानी-
पाली साहित्य में मौर्यों (मोरियों) की राजधानी पिप्पलीवन बतलाया गया है। चीनीयात्री हुयेनसंग, जो भारतवर्ष में पश्चिम से पूर्व की ओर यात्रा कर रहा था. अपने यात्रावर्णन में लिखता है कि वह मौयों की राजधानी पिप्पलीवन से, पूर्वोत्तर दिशा में घने जंगलों और जंगली जानवर तथा डाकुओं से मुठभेड़ करते हुये काफी • दूर चलकर, कुशीनगर पहुँचा। इसलिये स्पष्ट है कि पिप्पलीवन कुशीनगर (वर्तमान कसया) से दक्षिण-पश्चिम दिशा में था। यह स्थान शाक्य और कोलिय राज्य के बाहर होना चाहये। मल्लों की राजधानी कुशीनगर और पावा निश्चत ही हैं। अतः मौर्य राज्य कोलियों के रामजनपद के उत्तर-पूर्व और मौर्यो की राजधानी भी उसी के बीच कहीं होनी चाहिये। सारी परिस्थिति पर विचार करते हुये सबसे हपले कार्लायल” ने राजधानी अथवा उपधौलिया के विस्तृत डीहों ( टीलों) को प्राचीन पिप्पलीवन का भग्नावशेष निर्धारित किया, जो बहुत ही उपयुक्त है। यह स्थान गोरखपुर शहर से 14 मील दक्षिण-पूर्व गुर्रा नदी के किनारे है।
पश्चिम में राप्ती नदी से लेकर पूर्व में फरेंद नदी तक, चार मील लम्बाई और पौने दो मील चौड़ाई में प्राचीन नगर (राजधानी) के अवशेष फैले हुये हैं। यह विस्तार प्रथम डीह घाट से लेकर गुर्रा नदी तक है। फिर गुर्रा नदी के पूर्व में उपधौलिया का डीह है और वहाँ से दो तिहाई मील की दूरी पर राजधानी नामक गाँव है। राजधानी के उत्तरपूर्व एक विस्तृत आयताकार पुराने दुर्ग का अवशेष है जिसको सहनकोट कहते हैं। यह अब भी फरेंद के किनारे बरगद, शाल और जामुन के घने जंगल के बीच स्थित है। राप्ती से लेकर फरेंद तक फैला हुआ यह विस्तृत डीह एक ही प्राचीन नगर का भग्नावशेष है। इसका अब भी नाम राजधानी है जो इस बात को प्रकट करता है। कि यहाँ पर प्राचीन काल में किसी राज्य की राजधानी थी। लंका के बौद्ध साहित्य के अनुसार न्यग्रोध ( वटवृक्ष) वन में स्थित मौयों की राजधानी यही थी।
मौर्यराज्य का विस्तार-
यह गोरखपुर जनपद का मध्यवर्ती राज्य था। इसके दक्षिण-पश्चिम में कोलिय राज्य और उत्तर-पूर्व में मल्लों का राज्य फैला हुआ था। इसकी दक्षिणी सौमा राप्ती और सरयू और उत्तरी सीमा मल्ल राज्य था। यह पश्चिम में राप्ती के किनारे डीह घाट से लेकर पूर्व में वर्तमान बरहज कस्बे तक विस्तृत था। इसमें बहने खाली नदियाँ राप्ती, गुर्रा, फरेंद (पूर्व में बथुआ) और करुणा (कुर्ना) थीं और इन्हीं के किनारे मौर्यो की समृद्ध बस्तियाँ थीं। अब भी इन नदियों के किनारे राजधानी के अतिरिक्त मीठाबेल, नाथनगर, रुद्रपुर, दीनापार, मदनपुर, बराँवसमोगर, महेन, कपरवार, बरहज, आदि में प्राचीन नगरों के ध्वंसावशेष हैं।