क्षत्रिय वंशों का विस्तार , kshatriya vansho ka vistar: उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय कुलों के वंशज अयोध्या, प्रतिष्ठान और गया तथा दूसरी शाखाओं से अपना परिवार, सेना, कुलगुरु और पुरोहित, विश 26 और सेवक लेकर भारतवर्ष और दूसरे देशों में फैले। इन्हीं के प्रसार, प्रत्यावर्तन, संघर्ष और दूसरी जातियों के साथ समन्वय का इतिहास मुख्यतः भारतवर्ष का इतिहास है।
कासल के अन्तर्गत होने के कारण गोरखपुर जनपद का सम्बन्ध विशेषकर अयोध्या के सूर्यवंश से रहा है, यद्यपि विवाह, युद्ध और प्रसार के सिलसिले से और वंश के क्षत्रिय भी इस जनपद में आ बसे । इसलिये इस अध्याय में गोरखपुर जनपद के सम्बन्ध से मुख्य सूर्यवंश पर प्रकाश डाला जायेगा और प्रसंगतः और वंशों की चर्चा की जायेगी।
आर्य जाति के विस्तार का क्रम इक्ष्वाकु के वंशजों ने भी जारी रखा। पुराणों के अनुसार इक्ष्वाकु के सौ पुत्र (वास्तव में वंशज) थे। इनमें से प्रसिद्ध विकुक्षि, निमि और दण्ड थे। विकुक्षि जेठे होने के कारण अपने पिता के बाद अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठे। निमि ने तिहुत में एक नये वंश की स्थापना की जो विदेहवंश कहलाया। इस वंश के राजा मिथि ने मिथिला नामक नगरी बसायी जो विदेह राज्य की राजधानी हुई। दण्ड दक्षिण में गये और उन्हीं के नाम पर वहाँ के विशाल वन का नाम दण्डकारण्य रखा गया।
इक्ष्वाकु के और पुत्रों में से 52 उत्तरापथ (भारत का पश्चिमोत्तर) में गये इसके नेता शकुनि थे। इक्ष्वाकु के शेष पुत्र दक्षिणपथ (भारत का दक्षिणी भाग) में गये और वहाँ अपना राज्य स्थापित किये। इस बीच में चन्द्रवंश अथवा ऐलवंश का विकास होना भी शुरू हुआ। प्रतिष्ठान के राजा पुरूरवा के दो पुत्र हुये (1) आयु और (2) अमावसु। आयु प्रतिष्ठान के सिंहासन पर बैठे और अमावसु ने कुछ पश्चिम हट कर अपने लिये एक नया राज्य स्थापित किया जिसकी राजधानी कान्यकुब्ज (कन्नौज) हुआ। ३० आयु के दो पुत्र थे- (1) नहुष और (2) क्षत्रवृद्ध।
नहुष प्रतिष्ठान के राजा हुये और क्षत्रवृद्ध ने पूर्व हटकर अपना राज्य स्थापित किया जिसकी राजधानी काशी हुई। नहुष के पुत्र ययाति बड़े वीर विजयी और प्रतापी हुये। ये भारतवर्ष के प्रथम चक्रवर्ती थे। इन्होंने सम्राट की उपाधि धारण की। दिग्विजय के अवसर पर इन्होंने अयोध्या को छोड़कर सारा मध्यदेश, उत्तरापथ का बहुत बड़ा भाग, मध्यभारत आदि को जीता। ययाति के पाँच पुत्र हुये- (1) यदु, (2) तुर्बुसु, (3) द्रुह्यु, (4)
अनु और (5) पुरु। ययाति को सांसारिक भोगों की प्रबल इच्छा थी। उन्होंने अपने बुढ़ापे में पुत्रों से यौवन मांगा। औरों ने इनकार कर दिया, परन्तु सबसे छोटे पुरु ने प्रसन्नता से अपना यौवन पिता को दे दिया। इस कारण से ययाति ने अपने छोटे पुत्र पुरु को प्रतिष्ठान का पैतृक राज्य दिया और शेष पुत्रों को अपने साम्राज्य का बाहरी भाग दिया।
यदु का राज्य चर्मणवती (चंबल), वेत्रवती (बेतवा) और सुक्तिमती (केन) के किनारे था; द्रुह्यु का राज्य यमुना के पश्चिम और चम्बल के उत्तर यदुवंशियों की एक शाखा दक्षिण में जाकर ‘हैहयवंश’ करके प्रसिद्ध हुई। गंगा-यमुना दोआब का उत्तरी भाग अनु को मिला; सोन के किनारे, जहाँ ययाति ने सूर्यवंशी कारूपों को हराया था, तुर्बुसु ने अपना राज्य स्थापित किया।
चन्द्रवंशियों के इस विस्तार से सूर्यवंशी क्षत्रिय कुछ निष्प्रभ से हो गये। उनके कारूप और नाभाग वंश के राज्य नष्ट हो गये। कोसल राज्य तीन तरफ से घिर गया। ऐसा जान पड़ता है कि सौद्युम्नों पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ा। मान्धाता – अयोध्या के राजा श्रावस्त के समय में फिर सूर्यवंशी कोसलराज्य की श्रीवृद्धि हुई। श्रावस्त ने अपने राज्य के उत्तरी भाग में श्रावस्ती नाम की नगरी बसायी जो आगे चलकर ब्राह्मण और बौद्ध साहित्य में बहुत प्रसिद्ध हुई। 32 युवनाश्व (द्वितीय) और उनके पुत्र मान्धाता के समय में अयोध्या राजवंश की विशेष उन्नति और श्रीवृद्धि हुई। मान्धाता ने यदुवंशी राजा शशिबिन्दु की लड़की विन्दुरती से विवाह करके अपनी स्थिति पुष्ट कर ली और फिर दिग्विजय करना प्रारम्भ किया।
मान्धाता की दिग्विजयी सेना प्रतिष्ठान के पौरव और कान्यकुब्ज राज्यों को रौंदती हुई यमुना के पश्चिम में पहुँची। मान्धाता ने वहाँ के द्रुह्यु गांधार को हराया। गांधार को विवश होकर पश्चिमोत्तर भागना पड़ा और नया प्रदेश राजा जहाँ वह बसा उसका नाम गांधार पड़ा।
मान्धाता इसके पहले ही आनवों को हरा चुके थे, जो कोसल और द्रुह्यु राज के बीच में पड़ते थे। ऐसा जान पड़ता नये विवाह-सम्बन्ध के कारण यादवों से मान्धाता का संघर्ष नहीं हुआ। इन विजयों है कि के फलस्वरूप मान्धाता सूर्यवंश का पहला चक्रवर्ती सम्राट हुआ। जैसा वह राजनैतिक क्षेत्र में प्रसिद्ध हुआ वैसा ही धार्मिक क्षेत्र में भी। मान्धाता एक बहुत बड़ा वज्ञकर्ता और मंत्रकार था।
मान्धाता के तीन पुत्र हुये (1) पुरुकुत्स, (2) अम्बरीष और (3) मुचुकुन्द। अयोध्या के सूर्यवंशी साम्राज्य को इन तीनों पुत्रों ने मध्य भारत होते हुये नर्मदा के किनारे तक पहुँचाया। पुरुकुत्स की स्त्री का नाम नर्मदा था। उसी के नाम पर नदी का नाम नर्मदा पड़ा। पुरुकुत्स तो अयोध्या का राजा हुआ किन्तु मुचुकुन्द ने नर्मदा के किनारे, जहाँ विन्ध्य और ऋक्ष (सतपुडा पर्वत की श्रृंखलायें मिलती हैं, मान्धाता नाम की नगरी बसायी। इसके बाद फिर कोसल का भाग्यचक्र नीचे की तरफ घूमा और कान्यकुब्ज के चन्द्रवंशियों और दक्षिण के हैहयों का भाग्यसूर्य चमका। 34: कान्यकुब्ज कुश के भाई अमूर्तरयस् ने सौद्युम्नों को हरा कर मगध में एक राज्य की स्थापना की। हैहय राजा कार्तवीर्य के पुत्र सहस्रार्जुन ने मान्धाता नगरी को जीत लिया और नर्मदा से लेकर हिमालय तक के प्रदेशों को आक्रान्त किया।
इन आक्रमणों के समय बहुत से चन्द्रवंशी क्षत्रिय कोसल राज्य में आ गये। इसी समय अयोध्या में एक और विकट परिस्थिति उत्पन्न हुई। सूर्यवंशी राजा त्रय्यारुण ने अपने इकलौते पुत्र सत्यव्रत त्रिशंकु को निर्वासित करके अपने राज्य को कुलपुरोहित देवराज वशिष्ठ को सुपुर्द कर दिया। चन्द्रवंशी राजा गाधि के पुत्र विश्वामित्र ने बारह वर्ष के प्रयत्न के बाद त्रिशंकु को अयोध्या का राज्य दिलाया। सत्यव्रत त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चन्द्र हुये जो अपनी सत्यनिष्ठा के लिये भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध हैं। उनके पुत्र रोहित हुये जिन्होंने रोहितपुर नाम का एक नगर बसाया।
हैहयों ने अपनी शक्ति को और भी बढ़ाया। इस समय तक उनकी पाँच शाखायें बन गयी थीं- (1) वीतिहोत्र, (2) शार्यात, (3) भोज, (4) अवन्ति और (5) तुण्डिकेर। सबको मिलाकर तालजंघ कहा जाता था। उन्होंने उत्तर भारत पर अपना आक्रमण जारी रखा। उन्होंने शक, यवन, पल्लव, पारद और कम्बोज जातियों की सहायता से गान्धार से लेकर कोसल तक के सभी प्रान्तों पर धावा मारा। उनके द्वारा अयोध्या के राजा बाहु सिंहासन से उतार दिये गये। बाहु ने भागकर और्व भार्गव के आश्रम में शरण ली। यहीं पर उनका देहान्त हुआ। आश्रम में ही उनकी गर्भवती रानी से सगर नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ।
इस प्रकार कुछ दिनों के लिये कोसल राज्य बाहरी आक्रमण का शिकार हुआ। बहुत सी बाहरी गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का जातियाँ यहाँ आकर बस गयीं। पुराणों के अनुसार यह सभी जातियाँ क्षत्रिय थीं और उनके भी पुरोहित वसिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) आपक थे। लगभग बीस वर्ष तक कोसल-राज्य की यही अवस्था रही। हैहयों के उत्तर भारत पर आक्रमण सतयुग और त्रेता के संधिकाल में हुए थे। इसलिये पौराणिक कालगणना के सतयुग का अन्त यहाँ पर होता है।
सगर अनुसार यह कहा जा चुका है कि और्व भार्गव के आश्रम में सगर का जन्म हुआ। 35 और्व ऋषि ने ही उसके पालन-पोषण और शिक्षण की व्यवस्था की। सगर बालकपन से ही होनहार था। पहले उसने उत्तर भारत की राजनैतिक परिस्थिति का परिचय प्राप्त किया और फिर शक्तिसंचय प्रारम्भ किया। इधर वैशाली के करन्धम और काशी के प्रतर्दन नामक राजाओं के प्रत्याक्रमण से उत्तर भारत में हैहयों की शक्ति क्षीण हो रही थी।
बीस वर्ष की अवस्था में सगर ने हैहयों से अपना राज्य वापस लेने का प्रयत्न किया। उसने कोसल से उनको मार भगाया। इतना ही नहीं, सगर ने दक्षिण पर आक्रमण करके हैहयों के राज्य में ही उनको बुरी तरह से हराया और उनके जन-धन का विनाश कर अयोध्या के ऊपर उनके आक्रमण का बदला लिया। इसके बाद सगर ने विदर्भ पर आक्रमण किया। विदर्भ के राजा का नाम भी विदर्भ ही था। वह सगर से युद्ध में हार गया।
उसने सगर से अधीन सन्धि की और अपनी लड़की केशिनी का विवाह उससे कर दिया। सगर की ननिहाल वाले शूरसेन यादवों ने बिना युद्ध के ही सगर का स्वागत किया। सगर ने उत्तर भारत में अपने सभी शत्रुओं को दबाया। विदेशी जातियों को तो वह समूल नष्ट ही कर देना चाहता था किन्तु वसिष्ठ के कहने से उनको दलित करके छोड़ दिया। वास्तव में सगर ने एक नये युग ( त्रेता) का प्रारम्भ किया। वह अपने समय का दिग्विजयी सार्वभौम चक्रवर्ती राजा था।
भगीरथी –
सगर का बड़ा पुत्र असमंजस अत्याचारी था। इसलिये सगर ने उसको राज्याधिकार से वंचित कर उसके पुत्र अंशुमान् को अयोध्या का राजा बनाया।
अंशुमान् के बाद भगीरथ सूर्यवंश के प्रसिद्ध राजा हुए। इन्ही केसे हिमालय की उपत्यका में उलझी हुई गंगा की धारा मध्यदेश में उतरी सोना में कान्यकुरूण के चन्द्रवंशी राजा जह में भगीरथ का विरोध किया, क्योंकि उनके राज्य से होकर गंगा का मार्ग निकलता था। अन्त में भगीरथ भौर जब में समझौता हुआ गंगा को मध्यदेश में ऊपरी धार का नाम जाहसी और निचली पार का नाम भागीरथी दोनों राजाओं के नाम पर पड़ा।
रघु–
भगीरथ के बाद राजा कल्मापवाद के समय अयोध्या के राजवंश में गृह कलह उत्पन्न हुआ जिससे सूर्यवंशियों की शक्ति घट गयी। किन्तु दिलीप (द्वितीय खट्वांग ने फिर कोसल राज्य का संभाला और उसको श्रीवृद्धि की। दिलीप का पुत्र रघु बड़ा दिग्विजयी हुआ। इन्हीं के नाम से रघुवंश नामक सूर्यवंश की एक नयी शाखा प्रचलित हुई। रघु के दिग्विजय का वर्णन महाकवि कालिदास ने अपने रघुवंश में विस्तान के साथ किया है।” रघु ने पहले प्राची (पूर्व) दिशा की ओर प्रस्थान किया।
सर्वप्रथम रघु ने पूर्व में सुह्मदेश (पूर्वी बिहार और पश्चिमी बंगाल) को जोता, इसके बाद बंग (बंगाल) को वहाँ से दक्षिण मुड़कर उत्कल (उड़ीसा) कलिंग, पांड्य, केरल, मुरल और अपरान्त (काठियावाड़ और गुजरात) पर विजय प्राप्त किया। यहाँ से पश्चिम प्रस्थान कर फारस में पारसीकों का पराजित किया।
इसके अनन्तर उत्तर-पूर्व में हूगों और काम्योजों को हराया और वे फिर हिमालय प्रदेश और कामरूप को जीतते हुए अयोध्या वापस आ गये। दिग्विजय से लौटने पर रघु ने विश्वजित यज्ञ करके सम्राट् की उपाधि धारण की। रघु के पुत्र अज और अज के पुत्र दशरथ भी बड़े प्रतापी और चक्रवर्ती राजा हुए।
रामचन्द्र –
त्रेतायुग के प्रायः अन्त में दशरथ के पुत्र रामचन्द्र हुये।” ये भारतीय इतिहास के सबसे बड़े महापुरुष और हिन्दू-धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन में जो आदर्श अपने व्यवहार से भगवान् राम ने उपस्थित किया वह अब भी भारतीय जनता को शिरोधार्य है। इसीलिये रामचन्द्र मर्यादापुरुषोत्तम कहलाते हैं। अपनी विमाता कैकेयी के पहयंस से अपने भाई लक्ष्मण और श्री सीता के साथ ये अयोध्या सं अपने पिता द्वारा निर्वासित किये गये। अपने वनवास के समय प्रयाग, चित्रकूट आदि स्थानों में घूमते हुये वे पंचवटी में आये। इसके पहले ही दक्षिणपथ के पश्चिमी भाग में आर्य क्षत्रियों के उपनिवेश और राज्य स्थापित हो गये थे, किन्तु पूर्व का भाग अभी उनके अधिकार में नहीं था। इसका अधिकांश तो जंगल था और नदियों की घाटियों और जनस्थानों में वानर, ऋक्ष, राक्षस आदि अर्द्धसभ्य और बर्बर जातियाँ बसती थीं। परन्तु आर्य क्षत्रियों और राजाओं से पूर्व वहाँ ब्राह्मण ऋषि-मुनि पहुँच गये थे।
ये लोग तपस्या करते और अपने धर्म और संस्कृति के प्रचार में लगे रहते थे। इनको इस प्रचार कार्य में राक्षसों से बड़ी बाधा पहुँचती थी। भगवान् राम ने इनकी रक्षा की प्रतिज्ञा की और दण्डकारण्य में बहुत से राक्षसों को मारा भी। इससे लंका के राक्षस राजा रावण से उनका बैर हो गया और उसने छल से सीता का अपहरण किया। रामचन्द्र ने दक्षिण की वानर, ऋक्ष आदि जातियों के नेता हनुमान्, सुग्रीव, जाम्बवन्त इत्यादि से मैत्री करके लंका पर आक्रमण किया।
युद्ध में रावण मारा गया और सीता वापस आयीं। इस सारी कक्षा का ऐतिहासिक महत्त्व यह है कि सारा दक्षिणापथ (लंका तक) राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से रामचन्द्र के द्वारा आर्यप्रभाव में लाया गया वनवास से लौटने पर उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया और भारतवर्ष के प्रायः सभी राजाओं ने उनका आधिपत्य स्वीकार किया।
रामचन्द्र और गोरखपुर जनपद –
रामचन्द्र के समय में ही गोरखपुर जनपद विशेष प्रकाश में आया। अश्वमेध यज्ञ के बाद उन्होंने अपने साम्राज्य को अपने भतीजों और पुत्रों के बीच माण्डलिक राज्यों में बाँट दिया। केकय-देश के राजा युधाजित् के निमंत्रण और सहायता से भरत ने अपने दो पुत्रों तक्ष और पुष्कल के साथ सिन्धु नदी के दोनों तट पर स्थित गन्धर्व देश (गांधार) जीता था। वह सारा प्रदेश भरत के पुत्रों को मिला।
तख ने तक्षशिला और पुष्कल ने पुष्कलावती नाम की राजधानी बसायी और वहीं पर राज्य करने लगे।” शत्रुघ्न ने यमुना के पश्चिम सात्वतों को हराया और माघव लवण नामक राक्षस को मारकर मथुरा को अपनी राजधानी बनाया। वहाँ पर उनके पुत्र सुबाहु और शूरसेन ने राज्य किया। शूरसेन के नाम पर वह प्रदेश शूरसेन कहलाया। लक्ष्मण के पुत्रों को जब मांडलिक राज्य देने की बात आयी तब
रामचन्द्र ने लक्ष्मण से कहा–
” हे सुमित्रा के पुत्र ! ये तुम्हारे दोनों कुमार अंगद और चन्द्रकेतु धर्म के तत्त्व को समझने वाले और राज्यशासन के लिये आवश्यक दृढ़ पराक्रम वाले हैं। राज्य में इनका अभिषेक करने की मेरी इच्छा है ऐसा देश बतलाओ जो रमणीय और बाधारहित हो और जहाँ पर ये दोनों धनुषधारी आनन्द से विचरण कर सकें। वह ऐसा प्रदेश हो जहाँ न तो राजा को पीड़ा और न आश्रमों का विनाश हो हे सौम्य ऐसा ही देश बतलाओं जिसको (इन कुमारों को) देकर हम अपराधी न कहलायें।
राम के ऐसा पूछने पर भरत ने कहा-
“यह कारूपथ देश रमणीय और निरापद है। वहाँ पर महात्मा अंगद का पुर (राजधानी) और चन्द्रकेतु का सुन्दर और निरापद चन्द्रकान्त नामक पुर स्थापित कीजिये। “
“भरत का कथन रामचन्द्रजी ने मान लिया। उस देश को अच्छी तरह सुशासित करके (पहले) अंगद का वहाँ प्रवेश कराया। उनके लिये अंगदीया नाम की सुन्दर पुरी निवेशित (स्थापित) हुई। यह पुरी अत्यन्त सुन्दर और सुन्दर कर्म करने वाले राम से भलीभाँति सुरक्षित थी। मल्ल चन्द्रकेतु की मल्लभूमि में स्वर्गपुरी के समान सुन्दर प्रसिद्ध चन्द्रकान्ता नाम की नगरी बसायी गयी।
“इसके पश्चात् यह प्रबन्ध करके युद्ध में दुराधर्ष राम, लक्ष्मण और भरत बहुत प्रसन्न हुये और कुमारों का राज्याभिषेक कर दिया। अभिषेक करके उन दोनों राजकुमारों को अंगद को पश्चिमी भूमि और चन्द्रकेतु को उत्तर की भूमि में सावधानी पूर्वक स्थिर कर दिया।
अंगद और चन्द्रकेतु के राज्यलाभ का जो वर्णन वाल्मीकि रामायण में दिया। हुआ है उसका समर्थन महाकवि कालिदास अपने महाकाव्य रघुवंश’ में इस प्रकार करते हैं- ” रामचन्द्र जी की आज्ञा से लक्ष्मण ने अपने पुत्र अङ्गद और चन्द्रकेतु को कारापथ (वास्तव में कारुपथ) का राजा बनाया।” वायु और विष्णु पुराण भी इस बात से सहमत हैं कि लक्ष्मण ने अपने दो पुत्रों अङ्गद और चन्द्रकेतु को हिमालय के निकट दो प्रदेश राज्य करने के लिये दिया जिनकी राजधानियों क्रमशः अङ्गदीया और चन्द्रचक्रा (= चन्द्रकान्ता) थीं। अब प्रश्न यह है कि उपर्युक्त ‘रुचिर, निरापद, राजा को पीड़ा न देनेवाला और आश्रमों का विनाश न करने वाला’ कारुपथ प्रदेश कहाँ था?
पुराणों के अनुसार यह हिमालय की तलहटी में होना चाहिये। रामचन्द्र के युग में, पूर्व में प्रागज्योतिष (कामरूप) से पश्चिम में गान्धार तक दृष्टि डालने से, उस काल के राज्यों को स्थिति और की तलहटी का भावी इतिहास ध्यान में रखते हुये, यही निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ आधुनिक बस्ती का पूर्वी और गोरखपुर का पश्चिमी भाग है वहीं कारुपथ स्थित था।
इसके पक्ष में सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वाल्मीकि रामायण में कारुपथ के पूर्वोत्तरी भाग को, जहाँ चन्द्रकेतु की राजधानी चन्द्रकान्ता बसायी गयी थी, मल्लभूमि कहा गया है। भारतीय इतिहास में एक ही मल्लभूमि या मल्लराष्ट्र मालूम है और वह है गोरखपुर जनपद का मल्लराष्ट्र जिसका विस्तृत वर्णन बौद्ध साहित्य में भरा पड़ा है।