गोरखपुर के निवासी , गोरखपुर की जातिया Gorakhpur ke nivasi , Gorakhpur ki jatiya :
गोरखपुर जनपद में, हिन्दुस्तान के और भागों की तरह कई हजार वर्षा से कई मानव जातियों का मिश्रण होता रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि किसी भी मानव जाति को उसके शुद्ध रूप में दूसरे से अलग करना असंभव है। बहुत से जातिशास्त्र के विद्वानों ने तो यहाँ तक कहा है कि भारतवर्ष में मूल मानव श्रेणियों का इतना सम्मिश्रण हुआ है कि आज कल सभी भारतीय एक जाति के हैं।” यह मिश्रण की प्रक्रिया महाभारत के समय में ही काफी दूर तक पहुँच चुकी थी। इसीलिये नहुपोपाख्यान में जाति का अर्थ पूछने पर युधिष्ठिर ने नीचे लिखा उत्तर दिया था :
जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते। संकरत्त्वात्सर्ववर्णानां दुष्परीक्ष्येति मे मतिः ।। सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः । तस्माच्छीलं प्रधानेष्टं विदुर्ये तत्त्वदर्शिनः ।। 10
[हे महासर्प (यक्ष)! जाति तो केवल मनुष्य के अर्थ में समझना चाहिये। सभी वर्गों के सम्मिश्रण से इसकी परीक्षा करना कठिन है, यह मेरा मत है। सभी मनुष्य सभी वर्ग की स्त्रियों में सदा संतान उत्पन्न करते रहे हैं। इसलिये धर्म का तथ्य समझनेवालों ने शील (आचार) को ही प्रधान रूप से वांछनीय बतलाया है।]
परन्तु इतिहास और जातिशास्त्र के अध्ययन के लिये समाज में काफी सामग्री है। जनता में विभिन्न प्रकार के लोग हैं। उनके रंग; खोपड़ी की लम्बाई, नाक की बनावट; कद की ऊँचाई, मुँह, जबड़े तथा टुड्डी आदि की रचना आदि को देख कर बतलाया जा सकता कि समाज में किन-किन मानव श्रेणियों के लोग आकर मिले हैं। गोरखपुर में बसनेवाली मानव श्रेणियों को मोटे तौर पर तीन भागों में बाँटा जा सकता है :
(१) गोरी जाति ·
इसमें से अधिकांश प्राचीन भारतीय आर्यों के वंशज हैं। इनके साथ प्रथम शताब्दी विक्रम से लेकर पाँचवी शताब्दी तक पश्चिमोत्तर से आनेवाली जातियों के वंशज थोड़ी मात्रा में शामिल हैं। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में मध्य एशिया से श्री आनेवाले तुर्क, ईरानी, अरब (सामी) तथा मिश्री (हामी) थोड़ी संख्या में और आधुनिक काल में आनेवाले इने गिने कुछ युरोपीय सम्मिलित हैं। इनका रंग गोरा जा जलवायु के कारण प्रायः गेहुँआ हो गया है; कद ऊँचा; भूरे या काले, मुलायम, सीवे या लहरदार वाल; घनी दाढ़ी और मूँछें; लम्बा शिर; नुकीली और ऊँची नाक; सीधी और बड़ी आँखें होती हैं।
(२) पीली जाति –
इनमें मंगोली जातियों की गणना है, जैसे, चीन-किरात मंगोल, तातार आदि। इनका रंग पीला, कद मध्यम या नाटा; वाल रूबे और सीये; नाक और चेहरा
चपटा गोला कपाल गहरी और तिछी आँखें होती हैं। इस जाति के लोग जनत के उत्तर नेपाल में प्रायः पाये जाते हैं और पहाड़ों से उतरकर गोरखपुर शहर में शुद्ध रूप में बसे हुये हैं। साधारण जनता में इनका छींटा अल्प मात्रा में कहीं-कहीं दिखायी पड़ता है। नेपाल से आने वाले लोगों में प्रायः किरात हैं। थारू जाति में। इनकी कुछ तत्त्व मिल गया है।
(३) काली जाति –
इसमें द्रविड़, कोल, शवर और मुंडा जाति के लोग सम्मिलित हैं। इनका रंग काला, कद छोटा, घने बाल, नाक चौड़ी और शिर लम्बा होता है। ये जातियाँ मूल में विन्ध्य पर्वत के पास रहती थीं। धीरे-धीरे उत्तर खसकती हुई वे गोरखपुर जनपद में पहुंची।
जनपद में कुछ जातियों के ऐसे अंश हैं जो उपर्युक्त विशेषताओं को अभी तक अधिक या कम मात्रा में धारण किये हुये हैं। किन्तु इन मानव श्रेणियों का इतना आपस में मिश्रण हो चुका है कि एक ही जाति में, कभी-कभी एक ही परिवार में, सभी मानव श्रेणियों के लोग दिखायी पड़ते हैं। इसलिये जातिशास्त्र के अनुसंधान का महत्त्व केवल शास्त्रीय है, व्यावहारिक नहीं। जाति शास्त्र की दृष्टि से हिन्दू, मुसलमान और ईसाई में कोई भेद नहीं।
रिसली महोदय ने अपनी पुस्तक ‘पीपुल्स ऑफ इंडिया’ में सारे भारतवर्ष को निम्नलिखित सात जातीय भूमियों में बाँटा है।
(1) आर्य काश्मीर, पंजाब और राजस्थान में। –
(2) आर्य द्रविड संयुक्त प्रान्त और बिहार में। (3) मंगोल वर्मा, आसाम और नेपाल में।
(4) मंगोल-द्रविड़ – बंगाल और उड़ीसा में।
(5) तुर्क ईरानी सिन्धु उस पार सीमान्त, सिंध और विलोचिस्तान में। (6) शक द्रविड़ गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण में। (7) द्रविड़ मद्रास और दक्षिण में।
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इस विभाजन के अनुसार गोरखपुर जनपद (संयुक्त प्रान्त में) आर्य-द्रविड़ मिश्र जाति का अधिष्ठान है। रिस्ली महोदय इस जाति को ‘हिन्दुस्तानी जाति’ कहते हैं।