गोरखपुर की नदिया , गोरखपुर में बहने वाली नदिया Gorakhpur ki Nadiya , Gorakhpur me Bahne wali Nadiya : दोस्तों जैसे आप लोग जानते ही होंगे की हमारे गोरखपुर में बहुत सारी नदिया बहती है , इनमे से कुछ नदिया दूसरे जिले से भी होकर आती है , तो आज हम आपको मुख्यता सभी नदिया के बारे में बताने जा रहे है ।
सरयू नदी
गोरखपुर की नदिया में सरयू न केवल इस जनपद की प्रधान नदी है किन्तु इसकी गणना उत्तर भारत की प्रमुख नदियों में से है। हिन्दू समाज में धार्मिक दृष्टि से सरयू की बड़ी महत्ता है परन्तु उससे किसी भी प्रकार कम उसकी लौकिक महत्ता नहीं है। इसका प्राचीन नाम सरयू अभी तक जनता में प्रचलित है। प्राचीन साहित्य में इसका नाम कहीं कहीं सरभू भी मिलता है जो सरयू का ही रूपान्तर जान पड़ता है। इसकी तेज और विशाल धारा वर्षा के दिनों में घहर घहर की आवाज करती हुई आगे बढ़ती है, इसलिये जनता में इसका घाघरा नाम भी प्रसिद्ध हो गया। किन्तु अधिकतर लोग इसको सरयू नाम से ही सम्बोधित करते हैं। कहीं-कहीं इसका ‘देहवा’ नाम भी प्रचलित है।
धुरिया पार के परगने में मझदीप के पास यह गोरखपुर जनपद को स्पर्श करती है और वहीं से गोरखपुर के साथ फैजाबाद, आजमगढ़ और बलिया की सीमा बनाती हुई पूर्व की ओर बहती हुई चली जाती है। इसका कछारा जिसको स्थानीय बोली में देवार कहते हैं बहुत विस्तृत और चौड़ा होता है। चम्बल के बाद
भारतीय नदियों में प्रसार इसी का अधिक है। अपने विशाल अंग में अनेक छोटी। बड़ी नदियों का जल लेकर सरयू उफनाती हुई बहती है। परन्तु जब कभी जलराशि किनारों को छोड़कर बाहर निकलती है तब आसपास की भूमि जलमग्न हो जाती है और कितने गाँव बाद में डूब जाते हैं। तुर्तीपार और भागलपुर के पास इसे करीली चट्टान से होकर बहना पड़ता है, इसलिये इसका विस्तार यहाँ संकुचित हो गया है।
पसर का प्रवाह तेज है, फिर भी दूर तक इसमें नावें जल सकती हैं। नाव चलाने के योग्य होने के कारण अत्यन्त प्राचीन काल से यातायात का साधन सरयू रही है और इसने देश के राजनैतिक और आर्थिक जीवन को प्रभावित किया है। इसके किनारे पर बड़े-बड़े नगर बसे हुये थे जो सभ्यता, राजनीति और व्यापार के केन्द्र थे।
गोरखपुर जनपद में सरयू के किनारे पर स्थित गोला बाजार, बहलगंज, राजपुर, बरहज भागलपुर आदि पिछली शताब्दी तक अपनी समृद्धि के लिये प्रसिद्ध थे। दूर के प्रदेशों के साथ नावों द्वारा इनका व्यापार चलता था। आधुनिक युग में रेलों ने इनको श्रीहत बना दिया है। इन नगरों की महत्ता घटाने में रेलवे के साथ सरकारी नीति भी उत्तरदायी है। जलमार्गों का विकास कर नदियों को फिर व्यापार का उत्तम साधन बनाया जा सकता है। राप्ती
सरयू के बाद जनपद की दूसरी मुख्य नदी राप्ती है। इसका प्राचीन नाम अचिरावती का भ्रष्ट रूप रावती बहुत दिनों तक चलता रहा और पीछे बिगड़ कर राप्ती के रूप में आजकल प्रचलित है। यह विशेष लम्बी नदी नहीं है। नेपाल में ही बुटवल की पहाड़ियों में इसका उदत है। वहाँ से बहराइच, गोंडा और बस्ती को सींचती हुई गोरखपुर जनपद को परगना हवेली के मगलहा स्थान पर स्पर्श करती है। कुछ मीलों तक आधुनिक बस्ती और गोरखपुर की सीमा बनाती हुई जनपद के भीतर प्रवेश करती है
और बहती हुई बरहज के पास सरयू में मिल जाती है। जनपद की राजधानी गोरखपुर नगर राप्ती के बायें किनारे पर स्थित है। जनपद के उत्तरी भाग की प्रायः सभी छोटी-छोटी नदियाँ राप्ती में आकर मिलती हैं। अतः वर्षा ऋतु में इसमें प्राय: भीषण बाढ़ आती है जिससे जन-धन की हानि होती है। यह गहरी और अपेक्षाकृत शान्त नदी है। इसलिये बाढ़ में अपने साथ जो मिट्टी लाती है उसको छोड़ती जाती है। इसको बालू मिली मिट्टी भी थोड़े दिनों में उपजाऊ हो जाती है।
राप्ती भी नाव चलाने योग्य नदी है। प्राचीन काल में लकड़ी, अनाज और दूसरी वस्तुओं का प्रभूत व्यापार राप्ती से नाव के द्वारा होता था। आज भी बरसात में इसमें चलती हुई नायें दिखायी पड़ती हैं। परन्तु स्थानीय व्यापार को प्रोत्साहन तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि ग्रामीण कारोबार को विकसित होने का अवसर नहीं मिलता।
घूंघी और घमेल
प्रकृति ने गोरखपुर जनपद को अलंकृत करने के लिये जिन साधनों का अवलम्बन किया है उनमें जाल की भाँति बिछी हुई नदियों का विशिष्ट स्थान है। जल से भरी हुई छोटी-छोटी नदियाँ बड़ी नदियों के साथ मिलकर जनपद के एक छोर से दूसरी छोर तक मनोहारी दृश्य उपस्थित करती हैं। इनमें से घूघीं जनपद के उत्तरी भाग में आकर राप्ती में मिलती है। नेपाल की तराई में ही इसका उदय होता है और कुछ दूर तक यह गोरखपुर और बस्ती की सीमा बनाती हैं। गर्मी के दिनों में इसको योंही पार किया जा सकता है। नेपाल में इसका नाम तिनान है।
वहाँ इसमें बाँध बाँधकर सिंचाई का काम लिया जाता है। घूँधी के दक्षिण में घमेल जो राप्ती का एक अति प्राचीन छोड़न है, तराई के कई नालों का जल लेकर राप्ती में आकर मिलती है। इसमें छोटी-छोटी नावें चल सकती हैं। एक दिन वह था जब घमेल ने उसका और धानी के बीच व्यापार और यातायात का अनुपम साधन उपस्थित किया था। परन्तु रेलों से अब इसकी उपयोगिता नष्ट हो गयी है।
रोहिणी
राप्ती की सहायक नदियों में रोहिणी मुख्य है। एक लम्बा रास्ता तय करने के बाद यह डोमिनगढ़ और गोरखपुर के बीच राप्ती में मिल जाती है। संगम के ऊपर कुछ दूर तक इसमें नावें चल सकती हैं किन्तु यातायात के लिये कभी भी इसका पूरा लाभ नहीं उठाया जा सका। कारण, परगना विनायकपुर तक इसमें पत्थर के ढोके प्रवाह के साथ मिलते हैं जो नावों के लिये खतरनाक हैं। परन्तु रोहिणी सिंचाई का काम बराबर होता आया है। इससे बड़ी विस्तृत भूमि साँची जाती है।
किस्सान इससे नाले निकाल कर दूर-दूर तक इससे जल ले जाते हैं और फिर भी पानी का बिल्कुल अभाव नहीं होता। कारण यह है कि रोहिणी में मिलने ती बघेल, मही, पियास, बलिया, चिलुआ, और कलना आदि अनेक नदियां
इसको जलप्रदान करती रहती हैं। नेपाल में इसके जल को रोककर सिंचाई का | प्रबन्ध किया गया है। अर्थशास्त्रियों के सुझाव पर कुछ दिन पूर्व एक सरकारी योजना जनपद के उत्तरी भाग में इसके द्वारा सिंचाई के लिये बनी थी, किन्तु वह कार्यान्वित नहीं हुई।
मझना
यह राप्ती की एक सहायक नदी है। कितनी नदियों का जल लेकर यह राप्ती में मिलती है, इसका जानना बड़ा मनोरंजक है। तुरा नाम का एक नाला परगना हवेली से प्रारम्भ होता है और आगे चलकर गुर्रा नामक दूसरे नाले से मिल जाता है। गुर्रा रामगढ़ और नरही तालों से जल लेती हुई कुछ दूर तक राप्ती के समानान्तर बहती है। फिर फरेंद नामक नदी से मिलकर अपना आकार बढ़ा लेती है। फिर वह और दक्षिण चलकर मझने में मिल जाती है। मझने में एक और नदी मिलती है जिसका नाम कुर्ना (करुणा) है। यह बालकुआं के पास से निकलती है और रुद्रपुर के आगे (दक्षिण) मझने से मिल जाती है;
रुद्रपुर के आगे मझने बथुआ कहलाने लगती है। इन सब जलस्रोतों को समेटती हुई मझने समोगर के पास राप्ती में प्रवेश कर जाती है। मझने का प्राचीन नाम मध्यमा ( प्राकृत मज्झिमा) इसलिये था कि वह राप्ती और फरेंद की मध्यस्थता करती है। इसके किनारे प्रसिद्ध स्थान रुद्रपुर और मदनपुर है। इसके नटवर्ती प्रदेशों में मौर्यकालीन बस्तियों के लगातार ध्वंसावशेष मिलते हैं।
आमी
प्राचीन काल में आमी का नाम अनोमा था। यह बस्ती के रसूलपुर परगने से निकलती है और एक लम्बा चक्कर करके सोहगौरा के पास राप्ती में मिल जातो. है। यद्यपि गर्मियों में इसका आकार क्षीण हो जाता है, बरसात में अपने आस-पास की भूमि को जलप्लाबित कर देती है। भगवान् बुद्ध ने कपिलवस्तु से प्रस्थान कर कोलियों के रामजनपद होते अनोमा को पार किया था। तैरना
यह जनपद की एक छोटी नदी है। उनवल परगने से निकलती है और भेंड़ी ताल में बहती हुई राप्ती में मिल जाती है। इसके किनारे के बैल तेज चाल वाले होते हैं।
कुँवानो
कुँवानो का उद्गम बहरायच जिले में है। यह गोंडा और बस्ती जिले को
साँचती हुई गोरखपुर जनपद में प्रवेश करती है और शाहपुर के पास सरयू में मिल
जाती है। यहाँ आने पर इसको गहराई बढ़ जाती है, फिर भी इसके द्वारा व्यापार बहुत कम होता है। इससे केवल सिंचाई काम लिया जाता है। उपर्युक्त सभी नदियाँ जनपद के दक्षिणी और पश्चिमी भाग में हैं। नदियों है का जो घना जाल इस भाग में बिछा है वह पूर्वी भाग में नहीं है। पूर्व की नदियों
में उल्लेखनीय केवल छोटी और बड़ी गंडक हैं। इनकी सहायक नदियों में जल केवल वर्षा ऋतु में ही आता है।
छोटी गंडक
इसका प्राचीन नाम हिरण्यवती है। नेपाल इसका उद्गम है। यहां से अपना स्वच्छ जल लेकर यह मैदान में उतरती है और सरयू के साथ संगम तक इसका जल विमल रहता है। संभवतः अपने निर्मल जल अथवा अपने बालू के साथ हिरण्य (सोना)-कण लाने के कारण यह हिरण्यवती कहलाती थी। इस नदी में नावें चल सकती है किन्तु व्यापार के लिये इसका समुचित उपयोग अभी तक नहीं किया गया है। छोटी गंडक में मिलने वाली खनुआ, सुन्दर, घाघी, मौन, घघर, दोहरो काँधी, कोइलार आदि कई छुद्र नदियाँ हैं जो केवल वर्षा ऋतु में उमड़ती है और फिर सूख जाती हैं। छोटी गंडक थोड़ी दूर तक सारन ओर गोरखपुर की सीमा बनाती है और जनपद के दक्षिण-पूर्व कोने पर सरयू में मिल जाती है। बड़ी गंडक –
यद्यपि यह जनपद की सीमा को केवल दो स्थानों पर स्पर्श करती है वह भी थोड़ी दूर तक परन्तु जनपद के सम्पूर्ण पूर्वी भाग पर इसका काफी प्रभाव पड़ता है। नेपाल में हिमालय की बर्फीली चोटियों से निकल कर उसकी घाटियों में बहती हुई जनपद की उत्तरी से केवल दस मील की दूरी पर मैदान में प्रवेश करती है। इसकी धारा बड़ी तेज है। गर्मियों में भी इसकी धारा का वेग हरद्वार में गंगा के वेग से दूना रहता है। इसमें नाव चलाना बड़ा ही संकटपूर्ण और कठिन है।
इसके ऊपर पुल बनाने में इंजीनियरों कि कितने प्रयत्न निष्फल गये। इस नदी का उपयोग बिजली की शक्ति उत्पन्न करने में किया जा सकता है, किन्तु भारतवर्ष में अभी जलशक्ति से बिजली उत्पन्न करने का काम विकसित नहीं हुआ है। इसमें बराबर जल अधिक होने के कारण प्राचीन काल में इसका नाम सदानीरा था। आज कल इसका प्रचलित नाम नारायणी है, क्योंकि पहाड़ों से लुढकते हुए पत्थर के
सुडौल नारायण इसमें अपने आप प्रवाहित होते हैं। इसी कारण से नेपाल में इसका नाम शालिग्रामी भी है। प्राचीन काल कोसल राज्य और विदेह राज्य की सीमा सदानीरा ही रहती थी। बौद्ध काल में भी पूर्व (बिहार) और पश्चिम (गोरखपुर जनपद) के गणतंत्रों के बीच सीमा यही थी।
बड़ी गंडक में प्रायः बाढ़ आया करती है। इसका पानी उपनदियों में पहुँचकर बड़ा ही सर्वनाश करता है। इसी प्रकार जब छोटी गंडक में बाढ़ आती है तब उसका पानी उल्टा सहायक नदियों में चढ़ जाता है और आसपास के प्रदेश को पानी से डुबो देता है।