गोरखपुर का जलवायु कैसा है ? Gorakhpur ka Jalwayu kaise hai : मनुष्य के आचार तथा स्वभाव और भूमि की उपज के ऊपर जलवायु का जितना प्रभाव पड़ता है उतना और किसी वस्तु का नहीं। हाँ, जलवायु पर भी स्थिति और प्राकृतिक बनावट का असर अनिवार्य रूप से पड़ता है। जनपद की स्थिति 2605′ और 27° 29′ उत्तरी अक्षांशों के बीच है समुद्र तट से इसकी दूरी पर्याप्त है और इसकी ऊँचाई भी समुद्र तल से सामान्यत: 316 फीट से अधिक नहीं है।
इस अवस्था में गोरखपुर का जलवायु प्रायः बनारस के समान होना चाहिये था। परन्तु यहाँ न तो गर्मियों में प्रान्त के पश्चिमी जिलों की भाँति असह्य गर्मी और न जाड़ों में कड़ाके का जाड़ा पड़ता है। इसका कारण है हिमालय की निकटता और वर्षा का आधिक्य इन दोनों कारणों से स्वभावतः उष्णता कम हो जाती है।
वैशाख और जेठ के महीने में भी तापमान 550 से कभी ऊँचा नहीं जाता और साधारणतः 5000 के लगभग रहता है। गंगा-यमुना के दोआब में जिस प्रकार का ज्वालायुक्त बवंडर गर्मी के दिनों में चलता है उसका अनुभव यहाँ कभी भी नहीं होता है।
वर्ष में अधिक से अधिक दो या तीन सप्ताह कड़ी गर्म हवा यहाँ चलती है किन्तु उसमें प्रान्त के पश्चिमी भागों जैसी धूल नहीं मिली होती गर्मियों में यहाँ आँधिया भी कभी कभी आती हैं किन्तु हिमालय के निकट पहुँचते-पहुँचते उनका वेग कम हो जाता है।
वर्ष अधिक दिनों में यहाँ पर पूर्वी पवन बहता है जिसमें बराबर नमी बनी रहती है। गर्मी की ही तरह जनपद में जाड़ा भी कठोर और निर्दय नहीं होता। शीतकाल का मध्यम तापमान 50° है। पूस माघ में वर्षा हो जाने पर जाड़े की तीव्रता कभी-कभी बढ़ जाती है।
प्रान्त के कुछ पहाड़ी स्थानों को छोड़कर गोरखपुर जनपद में सबसे अधिक वर्षा होती है। सामान्यतः प्रतिवर्ष 55 इंच पानी बरसता है। अधिक वर्षा के सालों में मध्यम मान 75 इंच पहुँच जाता है। सूखा पड़ने पर भी वर्षा 26.7 इंच से कम नहीं होती।
जनपद में सब स्थानों पर वर्षा समान नहीं होती। महराजगंज और पडरौना में पर्वतों की निकटता और जंगलों के आधिक्य के कारण दक्षिण और पूर्व के तहसीलों की अपेक्षा वर्षा अधिक होती है। जिस वर्ष देवरिया में 46 इंच पानी बरसता है उस वर्ष महराजगंज में 60 इंच से ऊपर पानी पड़ जाता है। वर्षा के सम्बन्ध में एक बात याद रखने की है कि जिस वर्ष 30 इंच से कम पानी बरसता
है उस वर्ष खेती को हानि पहुँचती है और कहीं कहीं दुभिक्ष की संभावना उपस्थित हो जाती है। जाड़ों में भी यहाँ थोड़ी-बहुत वर्षा हो जाती है। कभी-कभी इस वर्षा से लाभ भी होता है किन्तु अधिकतर इससे हानि ही होती है। यह वर्षा पूस के अन्त में होती है जब कि खेती प्रौढावस्था में पहुँच चुकी होती है। इससे जौ तथा गेहूँ के फूल झड़ जाते तथा सरसों और मटर की फसल खराब हो जाती है।
कभी-कभी माघ के अन्त और फागुन के प्रारंभ में भी वर्षा होती है। इससे जाड़ा एक दम बढ़ जाता है और पानी बरसने से पशुओं को बड़ा कष्ट होता है। इसमें बहुसंख्यक जानवर मर जाते हैं। इसलिये माघ के अंतिम छ और फागुन के प्रारंभिक छ दिन को ‘चमर वरहा’ (चमारों के बारह दिन) कहते हैं।
जनपद के उत्तरी भाग का जलवायु स्वास्थ्य के लिये अच्छा नहीं है। तराई की भूमि नीची और जंगलों के आधिक्य के कारण यह भाग मलेरिया से आक्रान्त रहता है और यहाँ पर हाथीपाँव, घेघें और अण्डवृद्धि की बीमारियाँ होती हैं। यह लिखा जा चुका है कि इन प्रदेशों में इस प्रकार का जलवायु प्राचीन काल में नहीं था और यहाँ आर्यों के समृद्ध उपनिवेश बसे हुये थे।
किसी भौगर्भिक कारण से उत्तर की भूमि धँसकर नीची हो गयी और वहाँ पानी जमा होने से जलवायु अस्वास्थ्यकर हो गया जिसका परिणाम यह हुआ कि वहाँ की बस्तियाँ भी नष्ट-भ्रष्ट हो गयीं और बसने वाले लोग अन्यत्र खिसक गये। फिर आधुनिक युग में जंगलों के काटने और वर्षा की मात्रा कम हो जाने से ये प्रदेश अपेक्षाकृत शुष्क और स्वास्थ्यकर हो रहे हैं। जनपद के दक्षिणी भाग का जलवायु उत्तम है और जनपद की अधिकांश जनसंख्या इसी भाग में बसती है।