गोरखपुर के पशु पक्षी , Gorakhpur Ke Pashu Pakshi: प्राकृतिक बनावट, वनस्पति की विभिन्नता और हिमालय की निकटता के कारण गोरखपुर जनपद वनपशुओं और पक्षियों का अद्भुत संग्रहालय बन गया है। भारतवर्ष में मिलने वाला शायद ही कोई ऐसा पशु हो जो यहाँ न पाया जाता हो। गहन और विस्तृत वनों ने हिंसक और उपयोगी पशुओं को आश्रय दिया है।
आधी शताब्दी पहले जब जंगलों का विस्तार कम नहीं हुआ था, ऐसे पशुओं की संख्या बड़ी थी। उस समय तक पडरौना जाने वाले डाकियों का रास्ता बाघ रोक देते थे। वनों के हास के साथ इन पशुओं की संख्या भी कम होती जा रही है। अब भयानक हिंस्र पशु प्रायः डोमखण्ड के जंगलों में ही मिलते हैं। बाघ के दर्शन तो कम होते हैं किन्तु चीते, तेंदुआ, भालू और शूअर अधिक मिलते हैं।
शुअर तो सरयू के झाऊ और सरपत के जंगलों में भी पाया जाता है। उत्तर के जंगलों में भेड़िया भी मिलता है। जनपद में कई प्रकार के हिरण पाये जाते हैं। वे जंगल और मैदान दोनों स्थानों में घूमते हुये मिलते हैं। चितकबरे हिरण संख्या में अधिक और कृष्णसार तथा रोहित कम हैं। नील गाय वनों के बाहरी भाग, झाड़ियों और बड़े-बड़े बागों में रहते हैं परन्तु इनका प्रधान निवास स्थान आजकल सरयू का दिवारा है। अन्य जंगली जानवरों में लंगूर, लाल बन्दर, गीदड़, लोमड़ी, खरगोश आदि की गिनती हो सकती है।
जलचर पशुओं में घड़ियाल, सूँस और नाक प्रसिद्ध हैं। कछुये और बड़ी-बड़ी मछलियाँ नदियों और तालों में पायी जाती हैं। साँप यहाँ का एक परिचित रेंगने वाला जन्तु है। इसकी कई जातियाँ हैं-करइत, गेहुँअन, धामिन, डोंड़हा आदि। जनपद के उत्तरी भाग में सामान्यतः प्रतिवर्ष 550 मनुष्य साँप काटने से मरते हैं। जलचरों में मेढक, जॉक आदि की भी गणना हो सकती है।
घरेलू पशुओं को पालने के लिये जनपद में साधन-वन, झाड़ी, परती बहुत थे, किन्तु वे धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं। इसका फल यह हुआ है कि गोवंश की अवस्था आजकल दयनीय है। अच्छी जाति की गायें और बैल खेरी और बहराइच की ओर से मँगाये जाते हैं। दूध देने वाले पशु गाय और भैंस अधिक संख्या में महराजगंज और पडरौना में मिलते हैं, क्योंकि वहाँ गोचर भूमि अधिक है।
दक्षिणी भाग में ऐसे पशुओं की संख्या कम है और वे स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकते। गाय, बैल और भैंस के उपरान्त घोड़े का स्थान आता है। जनपद में घोड़े की अपनी कोई जाति नहीं है। प्रायः घोड़े बाहर से मँगाये जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर सब जगह टाइन और टट्टू ही मिलते हैं जिनसे बोझ ढोने और इक्का खींचने का काम लिया जाता है।
गदहों की संख्या और शारीरिक अवस्था उत्तरोत्तर क्षीण और शोचनीय होती जा रही है। इनका उपयोग केवल धोबी और कुम्हार करते हैं, किन्तु वे इनके पालन पोषण के ऊपर ध्यान कम देते हैं। जनपद का जलवायु ऊँटों के अनुकूल नहीं है। कुछ लोग शौकिया ऊँट बाहर से मँगा कर पालते हैं। हाथियों की संख्या ऊँटों से बहुत अधिक है। पहले जनपद के जंगलों में हाथी उत्पन्न होता था, किन्तु आजकल बाहर से मँगाया जाता है। बड़े-बड़े जमीदार और रईस हाथी को व्यक्तिगत सवारी के लिये रखते हैं। ये सभी जगह समान रूप से पाये जाते हैं।
भेंड़ और बकरियाँ किसानों के लिये दो और उपयोगी पशु हैं। भेड़ों की संख्या बकरियों से कम है और ये प्रायः दक्षिण में ही पायी जाती हैं। ये प्रायः ऊन के लिये पाली जाती हैं जिससे कम्बल तैयार होता है। इनके गोबर से उत्तम खाद का काम लिया जाता है।
इन दोनों पशुओं के वंश भी खराब हो रहे हैं और उनके सुधार का कोई प्रबन्ध नहीं हो रहा है। कुत्ते जंगली और पालतू दोनों ही अवस्था में मिलते हैं। ग्रामीण और शहरी कुत्तों का भी ठीक रीति से पालन नहीं होता; वे अनाथ होकर इधर उधर घूमा करते और डंडे खाते फिरते हैं।
पशुओं की तरह जनपद में पक्षियों की भी विविधता है। मैदान में बिहार करने वाले पक्षियों के अतिरिक्त वनों, तालों और नदियों के तलहटियों को अपने कलरव से मुखरित करने वाली कितनी ही चिड़ियायें दिखायी पड़ती हैं। काले और भूरे तित्तिर, चकोर, बटेर, जलमुर्गे आदि विशेष आकर्षण के पक्षी हैं।
शरद के प्रारम्भ में बहुत से पक्षी हिमालय से मैदानों में उतर आते हैं जिनमें खंजन, घाटों आदि प्रसिद्ध हैं। हारिल, सुआ, कबूतर, पंडुक, सारस, बत्तख और बगले भी काफी संख्या में मिलते हैं। कौये और किलहटी तो बहुत बड़ी संख्या में सर्वत्र पाये जाते हैं।