गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जिला का इतिहास Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur jila ka itihas : भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास और पुरातत्त्व के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० विमलचरण लॉ द्वारा लिखी हुई ‘क्षत्रिय क्लैन्स इन बुद्धिष्ट इंडिया” (बौद्ध भारत में क्षत्रिय जातियाँ)। इससे मालूम हुआ कि बौद्ध काल में बस्ती के पूर्वार्द्ध से लेकर पूर्व में दरभंगा तक (प्राचीन काल में पश्चिम में कपिलवस्तु से लेकर पूर्व में विदेह [ मिथिला ] तक) गणतंत्री ( पंचायती) राज्यों की एक श्रृंखला चली गयी थी।
इसके लगभग बीच में सदानीरा (बड़ी गंडक) बहती थी। इसके पश्चिम के गणतंत्री राज्यों का एक संघ मल्ल-राष्ट्र की अध्यक्षता में और सदानीरा के पूर्व के गणतंत्री राज्यों का संघ वज्जिसंघ था। पश्चिमी संघ में शाक्य, कोलिय, मौर्य और मल्ल गण-राज्य थे। ये छोटे छोटे पंचायती राज्य थे। इन सबका विस्तार प्राय: गोरखपुर जनपद के सम-विस्तर था।
बौद्ध साहित्यो से गोरखपुर के प्रमाण
इन राज्यों में दो बड़े प्रयोग हुये-(1) गणतांत्रिक (पंचायती राज्य-प्रणाली और (2) बौद्ध धर्म जैसी महती धार्मिक सुधारण। ये दोनों ही घटनायें सारे भारतवर्ष के इतिहास को प्रभावित करने वाली थीं। ज्यों ज्यों इस विषय की अन्य अंग्रेजी में लिखी पुस्तकें और मूल बौद्ध साहित्य का मैं अध्ययन करता गया त्यों-त्यों इनके साथ गोरखपुर जनपद का महत्व मेरी दृष्टि में बढ़ता गया। केवल इस युग का ही एक पूरा इतिहास लिखा जा सकता था।
बौद्ध साहित्य, पुराणों और महाकाव्यों के अध्ययन से मालूम हुआ कि गोरखपुर जनपद का सम्बन्ध बौद्धकाल से भी पहले प्रसिद्ध कोसल राज्य से था। बुद्ध का परवर्ती गोरखपुर जनपद का इतिहास उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना की बौद्धकालीन, फिर भी काफी मनोरंजक है। इस तरह मैंने निश्चय किया कि गोरखपुर जनपद का इतिहास महत्वपूर्ण और इसके लिये पर्याप्त सामग्री है। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
ब्रिटिश सरकार के समय गोरखपुर
मेरे लिये गोरखपुर जनपद का विस्तार बहुत कुछ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक है, केवल राजनैतिक नहीं। वृटिश सरकार ने गोरखपुर जनपद का काफी अंग-भंग कर रखा है। नेपाल के साथ युद्ध के बाद सुगौली के संधि के अनुसार अंग्रेजों ने नेपाल से कुमायूँ और नैनीताल ले लिया और उसके बदले में बुटवल और गोरखपुर- जनपद की उत्तरी तराई का कुछ भाग नेपाल सरकार को दे दिया। इसके पश्चात् सं० 1914 वि० की राज-क्रांति में नेपाल ने बृटिश सरकार की जो सेवा की उसके उपलक्ष में गोरखपुर की तराई का और एक बड़ा भाग भी नेपाल को मिल गया। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
इस प्रकार जनपद के उत्तरी भाग का विच्छेद हो गया। इसी तरह सं० 1927 वि० में बस्ती का पूरा जिला गोरखपुर से निकाल कर एक अलग जिला बना दिया गया। प्राचीनकाल में कोसल राज्य में तमसा (टोंस) के उत्तर का प्रदेश (आजमगढ़ का उत्तरी भाग) सम्मिलित था। तमसा के दक्षिण में काशी का राज्य था। मल्लों का गणराष्ट्र सरयू के दोनों किनारों पर विस्तृत था। अभी अकबर के समय तक सलेमपुर-कोटला (आजमगढ़ में) एक परगना था। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
गोरखपुर का विस्तार
परन्तु कोटला का भाग धीरे धीरे गोरखपुर से अलग कर दिया गया । बृटिश सरकार की यह नीति अभी तक जारी है और इस समय देवरिया (प्राचीन देवपुर) का भाग गोरखपुर से अलग हो रहा है। मैंने गोरखपुर जनपद के इतिहास में उसके विच्छिन्न अंगों का भी आवश्यक समावेश किया है, क्योंकि गोरखपुर के अतीत से उनका अभिन्न सम्बन्ध है।
इस पुस्तक में आज से लगभग छः हजार वर्ष पहले मूल आर्य क्षत्रिय-राज्यों की स्थापना से लेकर सं० 1977-78 वि० तक का धारावाही इतिहास देने का प्रयत्न किया गया है। बिल्कुल सामयिक घटनाओं और प्रवृत्तियों का इतिहास इसमें नहीं आ सका। कारण, उनकी धारायें अभी स्थिर होकर पूर्ण इतिहास नहीं हो पायी हैं। यदि पुस्तक का दूसरा संस्करण निकला तो उसमें आजकल का सामयिक इतिहास भी आ जायेगा।
यह इतिहास राष्ट्र और जनपद की दृष्टि से लिखा गया है। व्यक्तियों में केवल उन्हीं का उल्लेख किया गया है जिन्होंने जनपद के इतिहास को किसी प्रकार से प्रभावित किया है। अनावश्यक और अर्थहीन घटनाओं और व्यक्तियों के विवरण से पाठक के मस्तिष्क पर बोझ डालना इतिहास का उद्देश्य नहीं समझा गया है। जनपद के ऐतिहासिक अभिनय में प्रमुख भाग लेने वाली क्षत्रिय जातियों का इतिहास यथासंभव विस्तार से लिखा गया है। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
रामायण एवं महराभरात में गोरखपुर का वर्णन
गोरखपुर जनपद के इतिहास की सामग्री कई स्रोतों में बिखरी पड़ी है। इसका सबसे पुराना इतिहास पुराणों, बाल्मीकि रामायण और महाभारत में मिलता है। इस युग में यह जनपद पहले कोसल के सूर्यवंशी राज्य का उपनिवेश था और • इसको बड़ा ही ‘सुरम्य और निरापद’ वर्णित किया गया है। पीछे यहाँ कोसल के ही अधीन माण्डलिक राज्यों की स्थापना हुई। महाभारत के समय में यहाँ मल्लराष्ट्र और गोपालक दो स्वतंत्र राज्यों का पता लगता है।
महाभारत के बाद बौद्धकालीन इतिहास के लिये बौद्ध, जैन और ब्राह्मण साहित्य में प्रचुर सामग्री मिलती है। इससे मालूम होता है कि इस जनपद में कई स्वतंत्र गणतंत्री (पंचायती) राज्यों की स्थापना हो गयी थी। इन्हीं छोटे-छोटे राज्यों में गणतांत्रिक राज्य प्रणाली (पंचायती राज्य) का बहुत बड़ा प्रयोग किया गया था। इन्हीं राज्यों ने बौद्ध धर्म जैसी महती धार्मिक सुधारणा को जन्म दिया। वास्तव में गोरखपुर जनपद का सुवर्णकाल यही था। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
गोरखपुर में मौर्या साम्राज्य की स्थापना
इसके बाद उत्तर भारत में बड़े बड़े साम्राज्यों का उदय हुआ और गोरखपुर जनपद का राजनैतिक स्वातंत्र्य उनमें विलीन हो गया। किन्तु एक बड़े आश्चर्य परन्तु गर्व की बात यह है कि गोरखपुर जनपद में स्थित मौर्य-गण के एक क्षत्रिय – राजकुमार चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र के मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। इन साम्राज्यों के समय में गोरखपुर पहले मगध साम्राज्य और फिर कान्यकुब्ज साम्राज्य की श्रावस्ती (कोसल- अवध)- भुक्ति (प्रान्त) का एक अधीन हो गया। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
इस काल में जनपद का राजनैतिक महत्त्व विशेष नहीं रहा, किन्तु इसकी धार्मिक महत्ता बनी हरी। विदेश से बौद्ध यात्री यहाँ आते रहे, जिन्होंने अपने यात्रा वर्णन में इसकी चर्चा की है। इस काल के इतिहास के ऊपर यात्रा वर्णन, उत्कीर्ण लेख, प्राचीन सिक्के तथा भारतीय साहित्य से प्रकाश पड़ता है। तेरहवीं शताब्दी विक्रम में देश के ऊपर तुर्कों के आक्रमण जोरों से शुरू हुये और कान्यकुब्ज का गहडवाल साम्राज्य नष्ट हो गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि गोरखपुर केन्द्रीय शासन से बाहर निकल गया। इसकी एकान्तता और दुर्गमता के कारण तुर्क इस पर अपना आधिपत्य नहीं स्थापित कर सके, यद्यपि वे इसकी सरयू तटवर्ती दक्षिणी सीमा तक पहुँचते थे और इसको अपने राज्य के भीतर समझते थे। इस समय में कई एक स्थानीय क्षत्रियवंशों ने अपनी प्राचीन जातीय भूमि में छोटे छोटे राज्य स्थापित किये जो प्रायः अर्द्ध स्वतंत्रावस्था में जनपद के ऊपर शासन करते रहे। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
मुगलो के साथ गोरखपुर का संघर्ष
अकबर के समय में मुगलों ने गोरखपुर जनपद पर अपना आधिपत्य जमाने का प्रयत्न किया। उनको आंशिक सफलता भी मिली। फिर भी कई एक राजवंशों ने उनकी अधीनता स्वीकार न की और उनके साथ संघर्ष बराबर जारी रखा। मुगलों के आधिपत्य में भी जनपद का आंतरिक शासन स्थानीय राजवंशों के ही हाथ में था। इस काल का इतिहास स्थानीय राज्यों की वंशगत परम्परा और मुलसमानों द्वारा लिखे हुये जीवन-चरित्र और इतिहासों में मिलता है। इस युग में जो सन्त महात्मा हुये उनका इतिहास उनकी साम्प्रदायिक परम्परा और साहित्य में सुरक्षित है। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
मुगल साम्राज्य के ह्रास के बाद गोरखपुर जनपद अवध के नवाबों के आधिपत्य में चला गया, जिन्होंने सैनिक खर्चे के बदले में इसको अंग्रेजों को सौंप दिया। अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई। सं० 1914 वि० की राजनैकि क्रांति में इस जनपद ने विदेशी शासन को अपने यहाँ से उखाड़ फेंका। परन्तु गद्दार देश-द्रोहियों की सहायता से अंग्रेज फिर वापस आ गये और गोरखपुर जनपद अंग्रेजों के विशाल भारतीय साम्राज्य का एक जिला बन गया। सं० 1914 वि० में जो राजनैतिक विप्लव प्रारम्भ हुआ था वह अभी तक जारी है और गोरखपुर जनपद उसमें अपना उचित भाग लेता रहा है। तत्कालीन इतिहास की सामग्री इस्ट इंडिया कम्पनी के पत्र-व्यवहार, वृटिश पार्ल्यामेंट के कार्यवाही- विवरण और स्थानीय परम्परा तथा जनश्रुति में पायी जाती है। ( गोरखपुर जिला की सम्पूर्ण जानकारी , गोरखपुर जनपद की सम्पूर्ण जानकारी Gorakhpur jila ki sampurn jankari, Gorakhpur janpad ki sampurn jankari )
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास तथा संस्कृति विभाग के अध्यक्ष श्री डॉ० अनन्त सदाशिव अलतेकर ने इस ग्रन्थ का प्राक्कथन लिखकर मेरे ऊपर जो अनुग्रह किया है इसके लिये मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ। ‘ग्रन्थ लिखने के समय विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष श्री डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी तथा अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर श्री डॉ० रामावध द्विवेदी (गोरखपुर जनपद के ही निवासी) से जो प्रोत्साहन और सुझाव मिलते रहे हैं, इसके लिये मैं उनका ऋणी हूँ। ग्रन्थ लिखने में जिन लेखकों से सहायता मिली है उनके प्रति आभार प्रदर्शन यथास्थान पादटिप्पणियों में किया गया है। ऐतिहासिक सामग्रियों के एकत्रित करने में मेरे प्रिय शिष्य तथा मित्र श्री पं० केशवचन्द्र मिश्र, एम०ए०, बी०टी०, श्री पं० सच्चिदानन्द त्रिपाठी, एम०ए०; श्री पं० कन्हैयाशरण पांडेय, एम० ए०; श्री ठाकुर रामवृक्ष सिंह, एम०ए० और श्री पं० विशुद्धानन्द पाठक, बी० ए० से काफी सहायता मिली है। एतदर्थ मै उन सभी का आभारी हूँ। निम्नलिखित चित्रों के पुनर्मुद्रण के लिये मैं पुरातत्त्व विभाग का कृतज्ञ हूँ :”
(1) भगवान् बुद्ध का खड़ा चित्र (गान्धार शैली)
(2) बोधिसत्त्व का चित्र (सारनाथ)
(3) भगवान् बुद्ध का बैठा चित्र
(4) भगवान् बुद्ध का लेटा चित्र (धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा, सारनाथ) (महापरिनिर्वाण मुद्रा, कुशीनगर)
(5) महानिर्वाण स्तूप (कुशीनगर)
(6) विष्णु मूर्ति (गुप्तकालीन, हुई पार्क, गोरखपुर)
इन चित्रों का सरवाधिकार इसी विभाग के लिये सुरक्षित है। भगवान् बुद्ध के गुप्तकालीन खड़े चित्र (मथुरा) के पुनर्मुद्रण की अनुमति के लिये कर्जन न्यूजियम ऑफ आर्केओलाजी, मथुरा के क्यूरेटर महोदय का आभारी हूँ।
इस ग्रन्थ को जनता के सामने उपस्थित करने में मुझे कितनी सफलता मिली है, इसकी समीक्षा उदार विद्वान् और पाठक करेंगे। यदि उनका परामर्श और सुझाव मुझे प्राप्त हुआ और परमात्मा की दया से इस ग्रन्थ का दूसरा संस्करण निकला तो इस ग्रन्थ का फिर परिवर्धन और संशोधन कर दिया जायेगा। मुझे इस बात का बड़ा खेद है कि पुस्तक में प्रूफ सम्बन्धी छापे की बहुत सी अशुद्धियाँ रह गयी हैं। पुस्तक के अन्त में एक शुद्धि-पत्र दे दिया गया है। कृपया उसके अनुसार भूल सुधार कर पाठक इसको पढ़ें। यदि इस पुस्तक ने जनता में अपने जनपद के इतिहास जानने में कुछ भी रुचि उत्पन्न की तो मैं अपना परिश्रम सफल समझँगा।
Credit :- राजबली पाण्डेय, काशी विश्वविद्यालय,मार्गशीर्ष शुक्ल 5, 2003 वि०