गोरखपुर के कपिलवस्तु के शाक्य

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गोरखपुर के कपिलवस्तु के शाक्य , Gorakhpur ke kapilvastu ke shakya:

कपिलवस्तु के शाक्य वंशपरिचय –

बौद्धग्रंथ दीघनिकाय में शाक्यों का वंशपरिचय इस प्रकार दिया हुआ है। “शाक्य लोग राजा इक्ष्वाकु को अपना पूर्वज मानते हैं। प्राचीन काल में राजा इक्ष्वाकु की एक प्रिय रानी थी। उससे उत्पन्न राजकुमार को अपना राज्य देने के लिये अपनी बड़ी रानी से उत्पन्न राजकुमारों ओक्कामुख, करकंड, हत्त्थिनिक और सिनीपुर को राज्य से निर्वासित कर दिया। अपने निर्वास के वाद से राजकुमार हिमालय की तलहटी में एक कमल सागर के किनारे रहते थे। वहाँ पर एक बड़ा शाक उपवन था।

अपने रक्त के दूषित होने के भय से उन लोगों ने अपनी बहनों से विवाह किया। राजा इक्ष्वाकु ने अपने मंत्रियों से पूछा कि उस समय राजकुमार कहाँ पर थे। मंत्रियों ने उत्तर दिया, “राजन्, हिमालय की तलहटी में एक कमलसागर के किनारे एक बड़ा शाक-उपवन है। वहीं पर इस समय वे रहते हैं। अपने रक्त के दूषित होने के भय से अपनी बहनों से उन्होंने विवाह कर लिया है।” इस पर राजा इक्षवकु ने उत्कंठित शब्द कहे, “ये राजकुमार वास्तव में ‘शक्य’ हैं। वास्तव में राजकुमार बड़े समर्थ हैं। इसके पश्चात् वे शाक्य कहे जाने लगे। राजा वाकु शाक्य जाति के पूर्वज थे।” दीघनिकाय पर टीका करते हुये बुद्धघोष ने शाक्यों की वंश-कथा इस प्रकार लिखी है-

“कथा का क्रम इस प्रकार है। कहा जाता है कि कृतयुग के राजाओं में राजा महासम्मत के पुत्र राज नामक थे। राज के पुत्र वरराज, वरराज के कल्याण, कल्याण के वरकल्याण, वरकल्याण के मान्धाता, मान्धाता के वरमान्धाता, वस्मान्धाता के उपोसथ, उपोसथ के चर, चर के उपचर, उपचर के मखादेव पुत्र थे। मखादेव के वंशजों में 84000 क्षत्रिय हुये। इसके पश्चात् ओंक्काक (इक्ष्वाकु) के तीन वंश हुये। इनमें से तीसरे वंश वाले इक्ष्वाकु की पाँच रानियाँ थीं- भट्टा, चित्ता, जन्तु, जालिनी और विशाखा ।

इनमें से प्रत्येक की पाँच सौ दासियाँ थीं। सबसे बड़ी के चार पुत्र थे- ओक्कामुख, करकंड, हत्थिनिक और सिनीपुर। उसकी पाँच कन्यायें थीं- पिया, सुप्पिया, आनन्दा, विजिता और विजितसेना। नव बच्चों को जन्म देकर बड़ी रानी मर गयी। तब राजा ने दूसरी अत्यन्त सुन्दरी राजकुमार से विवाह किया और उसको अपनी पटरानी बनाया। उससे जन्तु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। पाँचवें दिन रानी ने उसका श्रृङ्गार कर के उसको राजा को दिखाया। राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और रानी को एक वर देने की प्रतिज्ञा की। रानी ने अपने सम्बन्धियों से परामर्श करके राजा से अपने पुत्र के लिये राज्य माँगा।

राजा ने उसकी भर्त्सना करते हुये कहा, “नीच स्त्री! तुम्हारा नाश हो। मेरे पुत्रों का तुम विनाश करना चाहती हो”। किन्तु उसने एकान्त में राजा को बारंबार उकसाया और कहा, “राजन्! वचनभंग आपको शोभा नहीं देता।” इसलिये राजा ने अपने पुत्रों से कहा, “मेरे पुत्रो ! तुम में से सबसे छोटे जन्तु को देखकर उसकी माता को एक वर दिया। वह अपने पुत्र के लिये राज्य चाहती है। तुम हाथी, घोड़े रथ जो कुछ चाहो (राजा के व्यक्तिगत हाथी, घोड़े और रथ को छोड़) लेकर बाहर चले जाओ और मेरी मृत्यु के पश्चात् वापस आकर राज्य पर शासन करो। ” ऐसा कहकर राजा ने आठ मंत्रियों के साथ राजकुमारों को बाहर भेज दिया।

“राजकुमारों ने शोक और विलाप करते हुये कहा, “पिताजी! हमारे अपराध क्षमा करें।” राजा और रानियों से विदा माँगते हुये उन्होंने कहा, “हम सभी भाई बाहर जा रहे हैं।” उसके बाद अपनी बहनों और चतुरङ्गिणी सेना के साथ उन्होंने प्रस्थान किया। बहुत से लोग यह सोचते हुये कि राजकुमार अपने पिता के मरने के बाद वापस आ जायेंगे, उनके साथ हो लिये। पहले दिन सेना एक योजन चली, दूसरे दिन दो और तीसरे दिन तीन। राजकुमारों ने आपस में परामर्श किया और कहा, “सेना बहुत बड़ी है। यदि किसी पड़ोसी राजा को परास्त करके उसका राज्य लेना हो तो यह पर्याप्त न होगी। फिर हम दूसरों पर अत्याचार क्यों करे? जम्बूद्वीप बड़ा विशाल है।

हम लोग कोई जंगल साफ कर नगर बसायें। इसलिये हिमालय की ओर चलते हुये नगर के लिये एक उपयुक्त स्थान चुना । ” ” उस समय हमारे बोधिसत्व एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए थे। वे कपिल नाम से पुकारे जाते थे। संसार का परित्याग कर वे यति हो गये। हिमालय की तलहटी में कमल सागर के किनारे शाक-उपवन में पत्तों की कुटी में निवास करते थे। वे भूकम्प विज्ञान जानते थे और अस्सी हाथ ऊपर आकाश और अस्सी हाथ नीचे पृथ्वी के दोषों को देख सकते थे।

जब सिंह, बाघ और दूसरे हिंसक जन्तु हरिण और शकरों का पीछा करते हुये और बिल्ली चूहों और मेढकों का पीछे करती हुई उस स्थान पर पहुँचते थे तो उनकी गति रुक जाती थी और वे वापस लौट आते थे। इस स्थान पर पृथ्वी पर सर्वोत्तम समझ कर कपिल ने वहाँ पर अपनी कुटी बनायी।” “राजकुमारों को एक नगर के लिये उपयुक्त स्थान की खोज में अपने प्रदेश की ओर आते देखकर कपिल ने उनसे आने का उद्देश्य पूछा और जानकर उन पर दया प्रदर्शित करते हुये कहा, “इस पर्णकुटी के स्थान पर बसाया गया नगर जम्बू द्वीप का प्रमुख नगर होगा।

यहाँ उत्पन्न होने वालों में से एक व्यक्ति दूसरे स्थान के एक सौ अथवा एक सहस्र मनुष्यों को परास्त करने में समर्थ होगा। नगर यहीं बसाओ और राजप्रासाद पर्णकुटी के ऊपर बनाओ। इस स्थान पर राजभवन बनाने से एक चाण्डाल – पुत्र भी चक्रवर्ती राजा को पराजित कर देगा। ” कुमारों ने पूछा, “भगवन्! क्या यह स्थान आपका नहीं है?” कपिल ने उत्तर दिया, “इस बात की बिल्कुल चिंता न करो कि यह स्थान हमारा है। किसी पर्वत के ढाल पर मेरे लिये एक कुटी बना दो और इस स्थान पर नगर बसाकर उसका नाम कपिलवस्तु रखो।” राजकुमारों ने वैसा ही किया और वहीं बस गये। “इसके पश्चात् मंत्रियों ने विचारा, “ये नवयुवक बड़े हो गये हैं। यदि ये अपने पिता के साथ होते तो वे विवाह-सम्बन्ध की व्यवस्था करते किन्तु अब तो यह हमारा काम है।

“इसलिये उन्होंने राजकुमारों से परामर्श किया। राजकुमारों ने कहा, “हम लोग न तो ऐसी क्षत्रिय कन्यायें देखते हैं जो हमारे समान हों और न ऐसे क्षत्रिय कुमार देखते हैं जो हमारी बहनों के समान हो। असमान कुल में विवाह करने से जो पुत्र उत्पन्न होंगे वह मातृ और पितृ दोनों पक्ष में दूषित होंगे। अतएव हम अपनी बहनों से ही विवाह करेंगे, अपनी जाति दूषित होने के भय से, अपनी बड़ी बहन को माता के स्थान पर रखकर, शेष के साथ उन्होंने विवाह किया। उनके पुत्र और कन्याओं की वृद्धि होने लगी। किन्तु उनकी बड़ी बहन को कुष्ट रोग हो गया और उसके अङ्ग कोविलार फूल की तरह से दिखाई पड़ने लगे।

राजकुमार यह सोचने लगे कि जो कोई इसके साथ बैठेगा, खड़ा होगा, भोजन करेगा उसको यह रोग हो जायेगा। इसलिये एक दिन उसको रथ में बैठा कर, मानो मृगया के लिये बन जाते हों, उसको एक घने जंगल में ले गये। वहाँ पर एक कमल बावली खोदकर उसके नीचे पृथ्वी में एक घर बनाया। उसमें अपनी बड़ी बहन को रख दिया। उसके पास खाने पीने के पदार्थ रख, ऊपर से मिट्टी भरकर राजकुमार वापस आये। उसी समय बनारस के राजा राम को कुष्ट रोग हो गया था। वह अपनी स्त्रियों और नाच-गान करने वाली लड़कियों से उदासीन हो, खिन्नता में राज्य अपने बड़े लड़के को देकर जंगल में चला आया।

यहाँ जंगल में रहकर फल-फूल पर निर्वाह करता हुआ शीघ्र स्वस्थ और स्वर्णवर्ण का हो गया। जबकि वह इधर उधर घूम रहा था एक खोखला वृक्ष देखा। सोलह हाथ इसके भीतर स्थान बनाकर, उसमें दर्वाजे और खिड़की बनाकर उसी में रहने लगा। अंगेठी में कोयले जलाकर, रात में लेटे लेटे पशुओं तथा पक्षियों के शब्द सुना करता था। यह देखा करता था कि अमुक स्थान पर सिंह आया था और अमुक स्थान पर बाघ । दूसरे दिन वहाँ जाकर उनके अवशिष्ट मांस को पकाकर खाता था।”

“एक दिन प्रातः काल वह आग जला कर बैठा हुआ था। राजा (इक्ष्वाकु) 44 की लड़की के मांस-गन्ध से आकृष्ट होकर एक बाघ उस तरफ आया और ऊपर से मिट्टी हटाकर ऊपर के आच्छादन में एक छेद कर दिया। छेद के रास्ते से बाप को देखकर राजकुमारी डरी और चिल्लाने लगी। राजा ने शब्द सुना, उसने पहचान कि स्त्री की आवाज थी और बड़े तड़के उस तरफ गया। उसने पूछा, “कौन है?” उत्तर आया, “देव! एक स्त्री ।” “तुम किस जाति की हो?” “मैं इक्ष्वाकु की पुत्री हूँ, भद्र।” “बाहर आओ।” “मैं बाहर नहीं आ सकती।” “क्यों?” “मुझको चर्मरोग है।”

” सारी वार्ता पूछकर और यह जानकर कि वह अपने क्षत्रिय-अभिमान से बाहर नहीं आ रही थी, राजा ने बतलाया कि वह भी क्षत्रिय है और उसके पास तक सीढ़ी डालकर उसको बाहर निकाल लिया। राजकुमार को वह अपने निवास-स्थान पर ले गया, उसको उस औषध-खाद्य को दिखाया जिसका सेवन कर वह स्वस्थ हो गया था, और थोड़े ही समय में उसको स्वस्थ और सुवर्ण वर्ण की बनाकर उसके साथ विवाह किया। पहली बार राजकुमारी ने दो बच्चों को जन्म दिया, फिर दो और इस प्रकार सोलह बार पुत्र उत्पन्न किया। इस तरह बत्तीस भाई पैदा हुये। वे क्रमशः बड़े होने लगे और पिता ने उनको सभी कलायें सिखायीं। ”दिन राजा राम के नगर के एक निवासी ने, जो उस पर्वत में रत्नो की खोज कर रहा था, राजा को देखा और उसको पहचान कर कहा, “राजन्! मैं आपको जानता हूँ।” राजा ने उससे सब समाचार पूछा। ठीक उसी समय राजपुत्र आ गये। उनका देखकर निवासी ने पूछा कि वे कौन हैं। ऐसा कहे जाने पर कि वे राम के पुत्र हैं, निवासी ने उनकी माँ के परिवार के बारे में पूछा।

यह सोच कर कि उसको एक मनोरंजक कथा मालूम हुई वह अपने नगर को वापस आया और राजा से पूरी कथा कह सुनायी। राजा ने अपने पिता को वापस लाने का निश्चय किया, चतुरङिङ्गणी सेना के साथ जंगल गया और अपने पिता से पुनः राज्य ग्रहण करने की प्रार्थना की। पिता ने उत्तर दिया, “पुत्र! बहुत राज्य कर लिया यहाँ पेड़ साफ कराकर मेरे लिये एक नगर बसा दो। ” ” राजपुत्र ने वसा ही किया । कोलवृक्षों के काटने और व्याघ्रपथ पर होने के कारण नगर के दो नाम पड़े- कोलनगर और व्याघ्रपद्या ।

पिता को प्रणाम करके वह अपने नगर को लौट गया। जब राजकुमार बड़े हो गये तो उनकी माता ने कहा, “पुत्रो ! कपिलवस्तु में रहने वाले शाक्य तुम्हारे मामा हैं। तुम्हारी ममेरी बहनों के बाल और वस्त्र उसी प्रकार हैं जैसे तुम्हारे। जब वे नहाने के घाट पर आवें तुम लोग एक-एक को जो तुम्हें पसन्द हो ग्रहण करो। राजकुमार वहाँ गये। जब शाक्य कन्यायें नहाकर अपने बाल सुखा रही थीं प्रत्येक ने एक-एक ग्रहण किया और उनको अपने नाम बताकर वापस चले आये। इस घटना को सुनकर शाक्य राजाओं ने विचारा, “यह ठीक ही हुआ, जब निश्चय है कि वे हमारे सजातीय हैं।’ और वे चुप मार गये। शाक्यों और कोलियों की उत्पत्ति इस प्रकार हुई। और तभी ” से दोनों परिवारों में विवाह सम्बन्ध की प्रथा बुद्ध के समय तक चली आयी।”

दीघनिकाय और उसकी टीका भगवान् बुद्ध के बहुत पीछे लिखी गयी और शाक्यों तथा कोलियों की उत्पत्ति और उपर्युक्त कहानियों के बीच में बहुत समय बीत | चुका था। अतः इन कथाओं में इतिहास और कल्पना का विचित्र मिश्रण दिखायी पड़ता है। फिर भी यदि कल्पनात्मक अंश को उनसे निकाल दिया जाये तो इतिहास की कई बातें स्पष्ट मालूम होती हैं। इनको निम्नलिखित प्रकार से रखा जा सकता है –

(1) शाक्य लोग इक्ष्वाकुवंश (अयोध्या के सूर्यवंश) की एक शाखा से उत्पन्न हुये। (2) शाकवन में बसने के कारण ये शाक्य कहलाये 166 (3) कपिलवस्तु में उनके बसने के पूर्व वहाँ ब्राह्मणों का उपनिवेश था। (4) शाक्यों में सगोत्र विवाह होता था। (5) शाक्यों और काशी के राजा के बीच विवाह सम्बन्ध चलता था। (6) इस विवाह – सम्बन्ध से एक कोलिय वंश की उत्पत्ति हुई। (7) इन दोनों वंशों में मामा की कन्या से विवाह सम्भव था।

अब प्रश्न यह हो सकता है कि सूर्य अथवा इक्ष्वाकु वंश की शाखा कपिलवस्तु में कब स्थापित हुई। इस सम्बन्ध में एक ही प्रामाणिक उल्लेख, जो कल्पना और अतिरंजन से रहित है, वाल्मीकि रामायण में मिलता है। उसके अनुसार लक्ष्मण के बड़े पुत्र अंगद को कारूपथ का पश्चिमी भाग (मोटे तौर पर बस्ती जिले का उत्तरी पूर्वी भाग) राज्य करने को मिला।

उनके साथ सूर्यवंशे सामन्त और सेना भी अवश्य ही आयी होगी। इस प्रदेश में शाक (साख) वृक्षों को बहुलता होने से इन सूर्यवंशी क्षत्रियों की स्थानीय उपाधि शाक्य हो गयी। ऐस जान पड़ता है कि आगे चलकर कपिलवस्तु को अधिक उपयोगी समझ कर अंगदीया छोड़कर शाक्यों ने अपनी राजधानी कपिलवस्तु में बना ली। आजकल के ऊँची जाति के हिन्दुओं को सगोत्र तथा मातुलकन्या विवाह असाधारण प्रधा मालूम होगी, किन्तु प्राचीन साहित्य में इसके अनेक दृष्टान्त भरे पड़े हैं।

दशरथ और कौसल्या तथा राम और सीता सभी एक वंश के थे। सुभद्रा अर्जुन की मातुल-कन्या थी। दाक्षिणात्यों में मातुल कन्या विवाह आज भी सर्वोत्तम विवाह माना जाता है। अतः शाक्यों की ये प्रथायें आर्यत्व और कुलीनता के विरुद्ध नहीं थीं। काशी के राजवंश से उनका विवाह सम्बन्ध इस बात का एक स्पष्ट प्रमाण है। कोसल के बुद्धकालीन राजा प्रसेनजित शाक्यों को अपना सगोत्रीय समझते थे और उनके यहाँ अपने विवाह का प्रस्ताव किया था। पौराणिक वंशावलियों में भी शाक्यों को सूर्यवंशीय माना गया है और शुद्धोदन और बुद्ध की गणना सूर्यवंशी राजाओं में की गयी है। विष्णु पुराण में इक्ष्वाकु वंशीं राजा वृहद्वल से लेकर बुद्ध तक वंशावली दी हुई है। इससे स्पष्ट है कि पुराणकार और तत्कालीन जनता शाक्यों को सूर्यवंशी क्षत्रिय मानती थी।

शाक्यों का गोत्र पाली साहित्य में गौतम बतलाया गया है। गौतम सात गोत्रऋषियों में से एक ऋषि हैं और वे शुद्ध आर्य-परम्परा में गिने जाते हैं। कहीं-कहीं पर भगवान् बुद्ध स्वयं अंगिरस (अंगिरस् के वंशज) कहे गये हैं। शाक्यों की राजधानी आज से पचास वर्ष पहले शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु का पता लगाना बहुत कठिन था सं. 1932 वि. में श्री ए०सी०एल० कार्लायल ने बस्ती जिले में भुइला नामक स्थान पर अपनी खुदाइयों के आधार पर निश्चय किया था कि भुइला ही कपिलवस्तु है।

किन्तु बाद के अनुसंधानों ने उनके मत को असिद्ध कर दिया है। ये अनुसंधान कपिलवस्तु के आस-पास के स्थानों में हुये। सन् 1895 ई० के मार्च में बस्ती जिले के उसका बाजार के 38 मील पश्चिमोत्तर, नेपाल राज्य में, निगलीव गाँव के पास, निगली सागर नामक तालाब पर एक स्तम्भ के ऊपर मागधी (पाली) भाषा में एक उत्कीर्ण लेख मिला, इसमें लिखा हुआ है कि ‘अपने राज्यभिषेक के चौदह वर्ष के बाद राजा (अशोक) प्रियदर्शी स्वयं इस स्थान आया और पूजा की। उसने बुद्ध कोनाकमन (पूर्व बुद्ध) के स्तूप पर आकार करा दिया।’ फाहियान ने अपने यात्रा वर्णन में इस स्तूप की चर्चा की है

कपिलवस्तु के भग्नावशेषों को एक योजन (7-8 मील) पूर्व बतलाया है। कि निगलीव का प्रस्तर स्तम्भ अपने मूल स्थान में नहीं है। अतः कपिलवस्तु से इसक दूरी और दिशा ठीक नहीं बतायी जा सकती। सं. 1953 वि. में नेपाल राज्य में निगलीव से 13 मील दक्षिण-पश्चिम पडरिया नामक गाँव के पास एक दूस स्तम्भ मिला जिस पर निम्नलिखित उत्कीर्ण लेख है; “जब देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा के अभिषेक के बस वर्ष बीत चुके थे, क स्वयं यहाँ आया और इस स्थान की पूजा की क्योंकि शाक्य मुनि बुद्ध यहीं उत्पन हुये थे, उसने एक पत्थर की प्राचीर स्थापित की और एक पत्थर का स्तम्भ ख कराया। क्योंकि भगवान् बुद्ध वहाँ उत्पन्न हुये थे इसलिये लुम्बिनी ग्राम का क उठा दिया गया और (उपज का) आठवाँ भाग भी (जिसके ऊपर राजा क अधिकार था) उसी ग्राम को दे दिया गया। ” पाली74 और संस्कृत 75 साहित्य दोनों में भगवान् बुद्ध के जन्म स्थान का न (लुम्मिनी) लुम्बिनी है और यह बतलाया गया है कि जब भगवान् बुद्ध की मात्र मायावती प्रसव कराने के लिये कपिल वस्तु से अपने मायके देवदह जा रही थ रास्ते में ही लुम्बिनी वन में उनका जन्म हुआ। इस स्तम्भ के पास ही में एक हिस मंदिर में भगवान् बुद्ध के जन्म का दृश्य एक पत्थर के ऊपर अंकित है। इस स्तम से यह बात निश्चित हो जाती है कि कुछ मील दूर यहाँ से पश्चिम दिशा कपिलवस्तु होगा। सब बातों पर विचार करते हुये यहाँ से 14 मील उत्तरपश्चिक तिलौरा कोट ही प्राचीन कपिल वस्तु के स्थान पर मालूम होता है। शाक्य राज्य का विस्तार – शाक्यों का राज्य कारूपथ के पश्चिमी भाग (वर्तमान गोरखपुर जिले पश्चिमोत्तर और बस्ती जिले का पूर्वोत्तर) में फैला हुआ था। प्राचीन यूना नगर- गणतंत्रों से क्षेत्रफल में काफी बड़ा था। शाक्य-राज्य की पूर्वी सीमा रोहि नदी थी। रोहिणी के पूर्व में कोलिय गणतंत्र का राज्य था। धम्मपद-अट्ठकथा नामक बौद्ध ग्रंथ से मालूम होता है कि रोहिणी नदी के पानी के लिये दोनों गणतंत्रों में कभी-कभी झगड़ा भी होता था।



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Rajveer Singh
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Hello my subscribers my name is Rajveer Singh and I am 30year old and yes I am a student, and I have completed the Bachlore in arts, as well as Masters in arts and yes I am a currently a Internet blogger and a techminded boy and preparing for PSC in chhattisgarh ,India. I am the man who want to spread the knowledge of whole chhattisgarh to all the Chhattisgarh people.

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