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छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye – Religious statues of Chhattisgarh
भारतीय धर्म, कला एवं प्रतिमा में सामंजस्य विभिन्न प्रकार से प्राप्त होने वाली संयुक्त प्रतिमाओं के माध्यम से देखने को मिलता है। शिल्प शास्त्र में दो प्रतिमाओं के संयुक्त स्वरूप को युग्म प्रतिमा तथा दो से अधिक प्रतिमाओं के संयुक्त स्वरूप को संघाट प्रतिमा कहा जाता है। प्राचीन भारतीय इतिहास में छठवीं शताब्दी ईसवी से बारहवीं शताब्दी ईसवी तक के काल को वस्तुतः संक्रमण का काल माना जाता है। क्योंकि इस काल में उत्तरी भारत के विशिष्ट ऐतिहासिक केन्द्रो में निर्मित शिल्पविधान में समन्वयवादी प्रतिमाओं का उद्गम हुआ है। जिसके विकासक्रम का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि धर्म समन्वय की ये प्रवृत्तियों तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक,धार्मिक एवं दार्शनिक परिस्थिति का परिणाम है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
इस काल में जनसामान्य ने अपनी विचार एक साथ धारा में साम्प्रदायिक भेदभाव का परित्याग कर धर्म-समन्वय, सामंजस्य तथा पारस्परिक सद्भावना को राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अनिवार्य माना और उन्हें इस बात का अहसास होने लगा कि ऐसे मंदिर एवं देव प्रतिमाएँ बनायी जाएँ जिसमें सभी मतावलम्बियों को समान रूप से उपासना एवं अर्चना करने का अवसर मिले इसी धारणा के परिणाम स्वरूप ही हरिहर अर्द्धनारीश्वर, हरिहर- पितामह, हरिहर- पितामह हिरण्यगर्भ तथा अन्य विविध प्रकार के युग्म एवं संघाट प्रतिमाओं की स्थापना की गई।
इस कोटि की प्रतिमाओं में मुख्यतः प्रधान देवता ब्रह्म विष्णु शिव की समन्वित प्रतिमाओं को प्रधानता दी गई है. जिसका प्रमाण मोढेरा, ओसिया, खजुराहो एवं भुवनेश्वर आदि की कलाकृतियों में देखने को मिलता है। इन प्रतिमाओं के संबंध में पौराणिक परिकल्पना, सर्वप्रथम विष्णुपुराण में मिलता है। जिसमें ब्रम्हम, विष्णु एवं महेश में त्रिगुणवाद (सत. रज और तम ) की परिकल्पना की गई है, जिससे इन तीनों प्रधान देवताओं में अभेद या समानता की भावना व्यक्त होती है।
यही भाव वायुपुराण के इस कथन से भी ज्ञात होता है जिसमें, इसकी समानता का समर्थन करते हुए कहा गया है कि त्रिदेव (ब्रह्म विष्णु महेश) मूल रूप में एक ही हैं। विष्णुपुराण में तो एक स्थान पर हरिहर के भेद को महत्व देते हुए विष्णु के मुख से कहा गया है कि हे शंकर! आप मुझे सर्वदा अपने से अभिन्न रूप में ही देखा करें देव असुर एवं मानवों से मुक्त इस जगत में जो मैं हूँ यही आप भी है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
इस विश्व के प्राणी अज्ञान देश आपने एवं मुझमें विभिन्नदर्शी हो जाते है। इससे संबंधित अन्य विवरण निम्न प्रकार से मिलते है, जैसे बृहन्नारदीय पुराण में कहा गया है कि वास्तविक [वैष्णवमतावलम्बी ये ही है, जो कि परमेश्वर शिव और परमात्मा विष्णु में समबुद्धि रखते हैं। इस पुराण के अनुसार महादेव हरिरूप और विष्णु शिवरूपी है। ब्रह्मपुराण में ब्रह्म, विष्णु एवं शिव को त्रिचा होते हुए भी एक कहा गया है।
इसी परिप्रेक्ष्य में जब हम छत्तीसगढ़ की संस्कृति में धर्म के विकासक्रम का अनुशीलन करते हैं तब ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र भी धर्म समभाव की दृष्टिकोण से परिपूर्ण था जिसके प्रमाण यहाँ के पुरावशेषों में दिखाई देते हैं। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अनेक राजवंशों ने शासन किया, जिनमें नलवंश, शरभपुरीय वंश, पाण्डुवंश मेकल के पाण्डुवंश, त्रि-कलिंगाधिपति सोमवंश, कलचुरी राजवंश तथा उत्तर कलचुरि राजवंश के अंतर्गत आने वाले फणिनागवंश, छिन्दकनागवंश, कांकेर के सोमवंश आदि आते है।
इन राजवंशों के द्वारा जारी अभिलेख और अन्य पुरातात्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उन्होंने अनेक धर्मों को आश्रय दिया था, जिसका ही प्रतिफल यहाँ से प्राप्त होने वाले अनेक विशिष्ट, युग्म एवं संघाट प्रतिमाओं के रूप में मिलता है। जिसमें हरिहर प्रतिमा, अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा, एवं हरिहर- पितामह हिरण्यगर्भ प्रतिमा जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है, इन्हीं को इस शोध पत्र में समावेशित किया गया है। जिसका संक्षिप्त विवरण निम्न है
हरिहर प्रतिमा |
शिव का यह रूप वैष्णव तथा शैव सम्प्रदाय में एकता स्थापित करता है। हरिहर प्रतिमा के उद्भव के संबंध में नारद पुराण से ज्ञात होता है कि समुद्र-मंथन के समय देवों और असुरों में अमृत वितरण के लिए विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया था, शिव मोहिनी रूप में मोहित होकर विष्णु से प्रेम करने लगे और विष्णु के सामीप्य की इच्छा से उनसे संयुक्त हो गये। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
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इसलिए प्रतिमा विधान में हरिहर स्वरूप में विष्णु वामार्द्ध और शिव दक्षिणाद्ध रूप में प्रदर्शित किये जाते हैं। उत्तरकामिकागम में हरिहर को हर्यद्ध कहते हुए उनको अर्द्धनारीश्वर कहा गया । वायुपुराण में हरिहर स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि सर्वप्रथम बीज रूप में आदि सर्गिक लिंग का निर्माण हुआ जो कालांतर में विष्णुरूपी योनि में संयुक्त होकर सृष्टि की उत्पत्ति का कारण सिद्ध हुआ ।
विष्णुपुराण में उल्लेखित है कि, शिव स्वयं अपने श्रीमुख से कहते हैं. कि ये हरि का ही अर्द्ध भाग है और विष्णु से अलग उनका कोई व्यक्तित्व नहीं है। रूपमण्डन एवं देवतामूर्तिप्रकरण में हरिहर की चतुर्भुजी मूर्ति का वर्णन है कि शिव को सदा दाहिने भाग में एवं विष्णु का शिल्यांकन वामाद्ध में ह्य वर्ण क्रमानुसार श्वेत एवं नीला, उनके चारों हाथों में एक हाथ वरद मुद्रा में तथा शेष हाथों में त्रिशूल, चक्र और कमल होना चाहिए। उनके दाहिने पाश्व में वृषन और याम पाश्र्व में गरूड़ होना चाहिए। यही प्रतिमा शास्त्रीय लक्षण इस क्षेत्र से प्राप्त इन प्रतिमाओं में भी मिलता है।
हरिहर प्रतिमा, भोरमदेव |
हरिहर प्रतिमा काली भोरमदेव मंदिर के उत्तर दिशा की शमिति पर यह प्रतिमा समाविष्णु का है। एकदा का अंकन है। प्रतिमा के बा और शिव वाहन नदी तथा दाहिने और रूका अन है। दाहिने भाग में जटा मुकुट तथा बायीं और किरीट मुकुट है। शिव के कानों में सपकार कुण्डल तथा हरि के कानों में मकराकृतकुडल है। यह प्रतिमा से और वैष्णवो धर्म की समन्वयता को प्रतिपादित करती है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
हरिहरप्रतिमा, मल्हार |
इस स्थल से डॉ. कृष्णदत्त बाजपेयी कृत उत्खनन द्वारा एक अष्टभुजी हरिहर प्रतिमा, जो वर्तमान समय में डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के संग्रहालय में प्रदर्शित है। यह प्रतिमा योगासन मुद्रा में प्रदर्शित है। इस प्रतिमा के बामाद्ध भाग में सनालपद्म, शंख, चक्र एवं गदा अंकित है तथा दक्षिणाद्ध भाग में कपाल, खद्वाग, अक्षमाला एवं त्रिशूल का अंकन है। चरण चौकी पर वाहन नंदी एवं गरुड़ का अंकन किया गया है।
हरिहर प्रतिमा, नगपुरा |
यह प्रतिमा दुर्ग जिले में नगपुरा नामक पुरास्थल से प्राप्त जो शिव मंदिर की उत्तरी जंघा भाग में अंकित इस हरिहर प्रतिमा के बाएं ऊपरी हाथ में गदा तथा निचले हाथ में चक्र का अंकन किया गया है। दायें ऊपरी हाथ में मुगदर (संभवत: त्रिशूल दण्ड) जैसी वस्तु तथा नीचे मातुलुंग पकड़े हुए प्रदर्शित हैं। प्रतिमा पदमासन की मुद्रा में विराजमान है। इनके सिर में मुकुरकान में कुण्डल एवं वक्ष स्थल क्षरित है। हाथों में कंगन का आभूषण दृष्टव्य है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
हरिहरप्रतिमा गण्डई |
इस पुरातात्विक स्थल के महादेव मंदिर के दाहिनी ओर बागेतुर्भुज हरिहर प्रतिमा का अंकन प्रवेशद्वार के चौखट के सिरदल के वाम पाश्वभाग मे प्रतिमा के दाहिने ऊपर के हाथ में त्रिशूल एवं निचले हाथ में अक्षमाला तथा पादपृष्ठ पर नंदी अंकित, यामाद्ध भाग के ऊपर के हाथों में शख, नीचे के हाथों में चक्र तथा पादपृष्ठ पर वाहन गरूड़ का अंकन दिखाई देता है
घुमनाथ मंदिर, सरगाव जो कि मुंगेली जिला के अंतर्गत यह मंदिर शिव को समर्पित उध्व पंक्तियों में हरिहर की प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में प्रतिमा चतुर्भुजी है, जो हरिहर प्रतिमा विधान के अनुसार निर्मित की गई है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा |
शिव का यह अर्द्धनारीश्वर रूप शैव एवं शाक्त धर्मों में एकता या सामजस्य का प्रतीक, देवता को उनकी शक्ति के साथ संयुक्त रूप में प्रदर्शित किया जाता है। रूपमंडन के अनुसार यह प्रतिमा शिव एवं पार्वती संयुक्त रूप का प्रतिनिधित्व करती है। अर्द्धनारीश्वर रूप का एक और नाम गौरीश्वर भी जिसके प्रतिमा लक्षणों का विवरण विष्णु धर्मोत्तरपुराण के अनुसार यह प्रतिमा प्रकृति और पुरूष के अभिन्न रूप का द्योतक मानी जाती है। यह शिव एवं शक्ति, नर एवं नारी तथा ब्रम्ह्म एवं माया आदि सृष्टि के द्वंद्वात्मक मूल कारणों के संयोग का प्रतिनिधित्व करती है।
ऋवेद में कहा गया है कि प्रत्येक पुरूष में अस्त्रीत्व और प्रत्येक स्त्री में अर्द्धपुरुष तत्व विद्यमान होता है। मार्कण्डेय पुराण में सृष्टि के इन दो मूल तत्वों को क्षोभ्य और क्षोभक के नाम से पुकारा गया है। जो वस्तुतः एक ही के दो तत्व है तथा संकोच और विकास से ही सृष्टि के कारण बनते हैं। भागवत पुराण में प्रसंग ज्ञात होता है कि प्रीतिवश शिव ने अपना आधा शरीर पार्वती को समर्पित कर दिया था। इस प्रकार शैव एवं शाक्त सम्प्रदायों के पारस्परिक समन्वयवादी दृष्टिकोण के कारण ही अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा के स्वरूप का निर्धारण एवं मूर्ति र निर्माण परम्परा का उद्भव हुआ। इस प्रतिमा में शरीर का वामाद्ध स्त्री रूप और दक्षिणाद्ध पुरुष का प्रतीक माना जाता है। विष्णुपुराण में मत्स्य पुराण एवं विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा का अंकन है।
सर्वप्रथम अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा का शिल्पांकन मूर्तिविज्ञान के क्षेत्र में कुषाण काल की मथुराकला में मिलता है। इस प्रतिमा का निर्माण गुप्तकाल तक अत्यधिक लोकप्रिय हो गया था. जिसका प्रसार भारत के अनेक राज्यों की मूर्तिकला में होने लगा। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ क्षेत्र के अनेक स्थानों से अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा की प्राप्ति हुई है राजिम (जिला गरियाबंद) के राजीवलोचन मंदिर के परिसर में स्थित बद्रीनारायण मंदिर के द्वार शाखा के बायीं ओर त्रिभंग मुद्रा में चतुर्भुजी प्रतिमा है।
दायी ओर की ऊपरी भुजा में सर्पयुक्त त्रिशूल तथा एक भुजा खंडित अवस्था में है । वाम ऊपरी भुजा पर दर्पण का शिल्पांकन है जबकि नीचे की भुजा स्पष्ट नहीं दिखाई देती। इस प्रतिमा का दायां भाग पुरुष का | पुरुषोचित आभूषणों से तथा बायां भाग स्त्री का स्त्रियोचित आभूषणों से सुसज्जित है। राजिम रामचन्द्र मंदिर की द्वार शाखा में भी अर्धनारीश्वर प्रतिमा का अंकन प्रतिमा विधान के अनुसार किया गया प्राप्त होता है।
अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा, सरदा |
सरदा के शिव मंदिर के द्वारशाखा की बायी शाखा के छठवें खण्ड में अर्द्धनारीश्वर की चतुर्भुजी प्रतिमा का अकन है सामान्यतः अर्धनारीश्वर प्रतिमा में प्रतिमा का वाम भाग पार्वती का होता है परन्तु इस प्रतिमा में वाम भाग शिव का तथा दक्षिण भाग पार्वती का अंकित है। शिव जटामुकुट तथा चन्द्रमायुक्त बाएं कर्ण में शिव मकर कुण्डल से सुशोभित ऊपरी बाएं हाथ में त्रिशूल तथा दाएं हाथ पार्वती के वक्ष स्थल पर है तथा बाएं भाग में पार्वती की दो भुजाओं में एक हाथ मुड़ा हुआ दूसरे पर दर्पण स्थित है। पार्वती का सिर करण्ड मुकुट युक्त प्रदर्शित है।
अद्धरीश्वर प्रतिमा, भोरमदेव |
शिव का यह रूप ललितासन मुद्रा में दाहिने ऊपरी हाथ में त्रिशूल तथा बाएं हाथ में दर्पण, नीचे दाहिनी हाथ में अक्ष माला तथा बायां हाथ जानु प्रदेश स्थित है। सिर के दाहिनी ओर. जटामुकुट तथा बाएं भाग में किरीट मुकुट सुशोभित है। दाहिना भाग पुरुष का प्रतीक शरीर का बाया भाग लास्य लिए हुए इस प्रतिमा में मुख मण्डल का आभा दाया मुख शिव की भीति जटाजूट चन्द्रकला और कानों में कुण्डल से तथा आधा बायां मुख पार्वती के स्त्रियोचित वस्त्राभूषण से अलंकृत है। शिव के मात्र दो नेत्र दिखाए गए हैं जो की प्रतिमा लक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा, देववलौदा |
इस पुरास्थल पर स्थित शिव मंदिर के दक्षिण जयाभाग (निचले आते) में अर्द्धनारीश्वर की एक चतुर्भुजी प्रतिमा है। जिसके दाएं एवं बाए ऊपरी हाथों में क्रमशः त्रिशूल एवं “डमरू धारण किए हुए अंकन है तथा निचले दाए एवं बाएं हाथों में अक्षमाला तथा कमण्डलु प्रदर्शित है। प्रतिमा का दाहिना भाग पुरूष तथा बायां भाग स्त्रियोचित सभी प्रकार के वस्त्राभूषण से सुसज्जित हैं। बायी ओर पैर के पास देवी के वाहन सिंह को अंकित किया गया है।
अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा, नारायणपुर |
नारायणपुर में स्थित विष्णु मंदिर प्रतिमा शिवशक्ति का सम्मिलित इस प्रतिमा के माध्यम से दृष्टिगोचर होता है।
अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा पाली |
अर्द्धनारीश् चतुर्भुजी प्रतिमा का दायां भाग पुरुष का तथा बाया भाग स्त्री का है। शिव के ऊपर के दायें हाथ में त्रिशूल तथा नीचे का दावा हाथ वरद मुद्रा में प्रदर्शित है। उन के बायें भाग के ऊपर हाथ में दर्पण तथा नीचे के हाथ में कलश है। शिव को सामान्य आभूषण द्वारा जबकि उमा को विभिन्न आभूषणों के सुसज्जित किया गया है, जैसे कि – हार केयूर कुण्डल और नुपूर यह प्रतिमा प्रभामण्डल से आच्छादन है प्रतिमा के दाएं भाग के पादपृष्ठ पर नदी का अंकन तथा बाएं भाग के पादपृष्ठ पर सिंह का अंकन दृष्ट है।
अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा, गण्डई |
शिव मंदिर के द्वारशाखा के आंतरिक भाग पर अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा षडभुजी, ललितासन मुद्रा में है। दाए भाग के ऊपर के हाथ में त्रिशूल, बीच के हाथ में साप तथा नीचे के हाथ में वरद मुद्रा में अक्षमाला प्रदर्शित है तथा बाएं हाथ के ऊपरी भाग में दर्पण, मध्य हाथ में अक्षमाला तथा नीचे का हाथ परदे को पकड़े हुए शिव के पादपीठ पर नदी अंकित है जबकि पार्वती के पर सिंह का अंकन मिलता है। अर्धनारीश्वर की एक स्थानक प्रतिमा का अंकन खरोद स्थित लक्ष्मणेश्वर मंदिर के मंडप के दायें तरफ के चौकोर अलंकृत स्तंभ में सामने की ओर है जो कि भिंग मुद्रा में है। इस प्रतिमा का अंकन प्रतिमा विधान के मापदंडों के किया गया है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
अर्द्धनारीश्वर प्रतिमा, सिरपुर |
महासमुद्र जिले के पुरातात्विक स्थल सिरपुर से नवीन प्रतिवेदित अर्धनारीश्वर प्रतिमा चामुण्डा मंदिर से प्राप्त हुई है
अर्धनारीश्वर प्रतिमा, ताला |
मुंगेली जिला में ताला नामक पुरातात्त्विक स्थल पर स्थित जेठानी मंदिर से खंडित अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा जिसका अकन प्रतिमाशास्त्र के अनुरूप किया गया है।
हरिहर- पितामह – हिरण्यगर्भ प्रतिमा |
ब्रह्म, विष्णु शिव ( त्रिदेव ) तथा सूर्य की संयुक्त प्रतिमा को ग्रंथों में हरिहर- पितामह हिरण्यगर्भ की सज्ञा प्रदान की गई है। मार्कण्डेय पुराण में इन चारों देवताओं के संयुक्त रूप की संकल्पना मिलती है।
अपराजित पृच्छा में भी इन चारों देवताओं की मिश्रित मूर्ति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इसमें देव को चार मुख एवं आठ बाहों से सुशोभित, संयुक्त रूप से प्रदर्शित होना चाहिए। सूर्य के दोनों हाथ पदम धारण किये हुए, शिव (रूद्र) खट्वांग एवं त्रिशुलधारी, पितामह अक्षसूत्र हाथों में लिए हुए तथा विष्णु शंख और चकधारी के रूप में शिल्पांकित होना चाहिए इसी प्रकार देवतामूर्ति प्रकारणा में भी विष्णु शिव ब्रह्म एवं सूर्य की समन्वित प्रतिमा का वर्णन हरिहरगर्भ नाम से किया गया है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
इस ग्रंथ के अनुग्रह देवता चतुर्मुख अष्टभुज और एक तुक चतुष्कोण स्थान पर आसीन हो पूर्वाभिमुख सूर्य के दोनी हाथों में पदम, दक्षिणाभिमुख रूद्र के दोनों हामी मेंग एवं विल पश्चिमाभिमुख पितामह के हाथ में कमण्डलु एवं सूत्र तथा उत्तराभिमुख विष्णु के हाथों में शंख और चक्र आयुध के रूप में अंकित होना चाहिए। इन्हीं प्रतिमा शास्त्रीय विधान से युक्त कुछ प्रतिमायें इस क्षेत्र से भी प्राप्त हुई है।
हरिहर – हिरण्यगर्भ प्रतिमा, देउरवीजा |
बेमेतरा जिला के देउरवीजा नामक पुरातात्त्विक स्थल में स्थित सीतादेवी मंदिर जो कि पूर्वाभिमुखी है, ऊर्धवविन्यास में पश्चिमी मध्यस्थ के आलिन्द में षड्भुजी हरिहर-हिरण्यगर्भ प्रतिमा का अंकन हुआ है। जिनके दाये हाथों में पदन, शंख, त्रिशूल तथा वाये हाथों में खट्वांग, चक्र व पद्म का अंकन दिखाई देता है। दे किरीटमुकुट, कुण्डलहार, यज्ञोपवीत व मेखला धारण किए हुए है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
हरिहर – हिरण्यगर्भ प्रतिमा, नगपुरा |
दुर्ग जिले के नगपुरा नामक ग्राम में स्थित शिवमंदिर की पश्चिमी जघा के ऊपरी मध्यरथ में भी षड्भुजी हरिहर हिरण्यगर्भ की प्रतिमा अंकित है। इसका अंकन प्रतिमा विधान के अनुसार किया गया है। इस प्रतिमा के ऊपरी दायें भाग में त्रिशूल, मध्य में शंख, तथा नीचे के हाथ में सनाल पद्म एवं ऊपरी बाएं हाथ में सर्प, मध्य में सनाल पद्म तथा नीचे चक्र का अंकन किया गया है। प्रतिमा के शिरोभाग में कर्णकुण्डल, गले मे हार यज्ञोपवित हाथों में जागन है ग्रह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में स्थापित है।
हरिहर – हिरण्यगर्भ प्रतिमा, डोंगररासपाड़ा |
बस्तर जिले के मैरमगढ़ नामक नगर के पास स्थित डोंगरपाडा नामक स्थल से हरिहर पितामह हिरण्यगर्भ की प्रतिमा में सूर्य, विष्णु ब्रह्म, एवं शिव को एक ही मुख के अंतर्गत प्रदर्शित किया गया है इस चतुर्देव की संयुक्त प्रतिमा एक ही रथ पर समभंग मुद्रा में अंकित है जिसमें सात दौड़ते अश्व जुते हुए हैं तथा सारथी अरूण अपने ऊपर उठे दाहिने हाथ से लगाम (रश्मि) पकड़े हुए हैं। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
प्रमुख देव किरीटमकुटधारी एवं कर्ण कुण्डल, कौस्तुभमणि से सुशोभित हार, ग्रैवेयक, यज्ञोपवित, अभ्यगमेखला एवं लम्बे उपानह धारण किए हुए हैं। एक देही एवं अष्टभुजी इस देवता के ऊपर उठे दोनों बाहों में पूर्ण विकसित सनालपद्म उनके को के ऊपर उठे हुए अंकित है । अन्य छः बाहों में दाहिने तीन हाथों में खुवा, त्रिशूल, एवं शंख तथा तीन वाम हाथों में वेद, खट्वांग एवं चक्र सुशोभित है जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह सूर्य, ब्रह्म, शिव एवं विष्णु के आयुध है।
हरिहर – हिरण्यगर्भ प्रतिमा, सरगाव |
मुंगेली जिला में सरगाव नामक पुरास्थल पर घूम्रनाथ मंदिर के ऊर्धव पंक्ति में हरिहर हिरण्यगर्भ के प्रतिमा का अंकन पद्मासन मुद्रा में किया गया है। इस है। प्रतिमा का निर्माण प्रतिमा विधान को ध्यान में रखकर किया गया है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
हरिहर – हिरण्यगर्भ प्रतिमा, किरारीगोदी |
किरारी गोदी के प्राचीन मंदिर के पूर्वी बाह्यमिति में मध्यस्थ के आदि में ऊपरी एवं नीचे के भाग में सूर्य तथा हरिहर की प्रतिमा उत्कीर्ण जिनके नीचे अश्वरथ अंकन है।
हरिहर – हिरण्यगर्भ प्रतिमा, डमरू |
बलौदाबाजार जिला के अंतर्गत पुरास्थल डमरू में, बस्ती के मध्य स्थल पर एक प्राचीन शिव मंदिर जो पश्चिमाभिमुख ज्ञात होता है। इस मंदिर के समीप स्थित महामाया मंदिर को बाहय भित्ति पर भी हरिहर-हिरण्यगर्भ की प्रतिमा कार अंकन मिलता है जिसका निर्माण प्रतिमा विधान को ध्यान में रखकर किया गया है। ( छत्तीसगढ़ की धार्मिक प्रतिमाये – Chhattisgarh ke Dharmik Pratimaye, Religious statues of Chhattisgarh )
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👉 छत्तीसगढ़ी भाषा छत्तीसगढ़ी बोली
👉 छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियाँ
विद्रोह :-
👉 मुरिया विद्रोह में आदिवासियों ने कैसे अंग्रेजो को धूल चटाई ?
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