बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan

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बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan
बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan

नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे बस्तर में काकतीय वंश का शासन Baster me kaktiya vansh ka shasan के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।

बस्तर में काकतीय वंश का शासन Baster me kaktiya vansh ka shasan

पराधीन भारत के 555 देशी रियासतों में से एक वस्तर रियासत था। पहले सी.पी. एंड बरार के प्रशासन क्षेत्र के अन्तर्गत यह आता था। तब उसका क्षेत्रफल 13 हजार वर्गमील से कुछ अधिक था। यह रियासत 200 10 और 17°40° उत्तरी अक्षांश तथा 800 30′ से ८२° 15° पूर्वी देशांश रेखाओं के मध्य अवस्थित था। इस अंचल में अंग्रेजों से पूर्व काकतीय वंश का शासन था।’ ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

काकतीयों से पूर्व यह अंचल नाग शासकों द्वारा शासित था। इन्हीं नागों को पराभूत कर काकतीयों ने अपना राज्य शासन प्रारंभ किया था। काकतीयों की नागों से अनेक लड़ाइयां हुई और क्रमशः काकतीय शासन का विस्तार बस्तर अंचल में हुआ। इस लड़ाई के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी प्राप्त नहीं है। न ही कोई शिलालेख, न साहित्यिक स्रोत से इस पर कोई प्रकाश पड़ता है। 

प्रामाणिक जानकारी के उपलब्ध न होने पर इतिहासकारों ने तथ्यों को तोड़ मरोड़कर खींचतान कर अपनी अवधारणा को प्रस्तुत किया है और अर्थ का अनर्थ किया है। बस्तर में काकतीय शासन का शुभारंभ किस तिथि से हुआ? यह अभी शोध की गर्त में है। इतिहासकारों का एक वर्ग चौदहवीं शताब्दी से तो दूसरा वर्ग पन्द्रहवीं शताब्दी से बस्तर में काकतीय शासन का शुभारंभ मानता है और अपने तर्क प्रस्तुत करता है। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

बस्तर के काकतिया वंश एवं फरिश्ता इतिहासकार 

लगभग 100 वर्षों के अंतराल का यह प्रश्न मूलतः इतिहासकार फरिश्ता लिखित हिस्ट्री आफ डक्कन खण्ड एक में वर्णित प्रसंग से उठ खड़ा हुआ है। इस ग्रंथ में फरिश्ता ने उल्लिखित किया है- “बहमनी शासक ने खान अजीम को वारंगल के राय के विरुद्ध एक सेना के साथ भेजा। अजोम ने बारंगल के राय को 1424 ई. में परास्त किया और मार डाला? फरिश्ता ने वारंगल के शासक का नाम नहीं लिखा है और इसी कारण विवाद की स्थिति निर्मित हुई ।

वारंगल पर 1323 ई. और 1424 ई. दोनों तिथियों में आक्रमण हुआ। पहला आक्रमण दिल्ली सल्तनत की सेना ने 1323 ई. में किया था और तत्कालीन काकतीय शासक प्रताप रूद्रदेव द्वितीय को अंतिम रूप से परास्त कर वारंगल से काकतीय शासन को समाप्त किया था। कर्नल हेग ने 1323 ई. में ही वारंगल से काकतीय शासन की समाप्ति और परास्त शासक प्रताप रूद्रदेव द्वितीय के भाई अन्नमदेव का बस्तर की ओर प्रयाण माना है। बस्तर राज परिवार का संस्थापक अन्नमदेव को ही उन्होंने माना है।

फरिश्ता का उल्लेख अपनी जगह पर सही है। वारंगल का अंतिम पतन 1424 ई. में हुआ मगर इस तिथि में वहां काकतीय वंश का शासन नहीं था और न ही उस तिथि से बस्तर के इतिहास का कोई संबंध है जो इतिहासकार पंद्रहवी शताब्दी में बस्तर में काकतीय शासन का आरंभ होना मानते हैं वे फरिश्ता के उपरोक्त वर्णन से ही भ्रमित हुए प्रतीत होते हैं। यद्यपि परिश्ता ने पराजित वारंगल शासक का नाम नहीं लिखा है, फिर भी तोड़-मरोड़कर गोटी बैठाने का प्रयास करने वालों ने उसे ही बस्तर राजवंश से संबंधित घटना मान लिया। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

बीसवीं शताब्दी में बस्तर के काकतिया वंश 

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में छत्तीसगढ़ के सामंतीय राज्यों के बारे में जानकारी एकत्र करने का शासकीय प्रयास हुआ और फलस्वरूप फ्यूडेटरी स्टेटस् गजेटियर नामक ग्रंथ 1909 ई. में हुआ। इस ग्रंथ में बस्तर राजपरिवार के बारे में इस प्रकार वर्णन है- “महान काकतीय नृपति प्रतापरूद्र 1424 ई. में अहमद शाह बहमनी से युद्ध करते हुए अपने जीवन व साम्राज्य से हाथ धो बैठे। उनका भाई अन्नमदेव वारंगल छोड़कर बस्तर में साम्राज्य स्थापित किया। इस वर्णन में फरिश्ता द्वारा वर्णित प्रकरण को ही आधार बनाया गया प्रतीत होता है। और शासक का नाम प्रतापरूद्र अपनी ओर से जोड़ा गया। क्योंकि फरिश्ता ने शासक का नाम नहीं लिखा है।

फ्यूडेटरी स्टेटस् गजेटियर के पश्चात् प्रकाशित प्रन्थों व लेखों में भी, गजेटियर में वर्णित तिथि का ही उल्लेख करना प्रारंभ किया। वस्तर के प्रशासक डब्लू व्ही. ग्रिक्सन ने 1938 ई. में प्रकाशित अपने पथ में 1425 ई. से बस्तर में काकतीय शासन का प्रारंभ माना है। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

सेंसस रिपोर्ट 1961 में लिखा है- इस तरह से अन्नमदेव बस्तर राज्य के संस्थापक कहे जा सकते हैं, जिन्होंने 1424 ई. में इसे स्थापित किया। श्री एम.एम. जोशी ने लिखा है “काकतीय वंश के अंतिम स्वतंत्र शासक प्रतापरूद्र मुसलमान आक्रमणकारी अहमद शाह बहमनी से पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पराभूत हुए और मार डाले गये। 1150 से 1425 ई. तक वारंगल पर काकतीयों का शासन रहा।

अन्नमदेव प्रतापरूद्र के भाई थे। अन्नमदेव ने गोदावरी नदी को पार किया और बस्तर आकर नया साम्राज्य स्थापित किया। एचिसन ने 1930 ई. 6. में लिखा है- “मुसलमानों से पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रतापरूद्र परास्त हुए और उसका भाई बस्तर में साम्राज्य स्थापित किया। व्ही. राघवैह ने भी पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में काकतीय राजवंश का शासन प्रारंभ लिखा है।

पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में बस्तर में अन्नमदेव के शासन का प्रारंभ मानने वालों में श्री सुन्दरलाल त्रिपाठी प्रमुख है। बस्तर पर खोज कार्य करने वाले आधुनिक इतिहासकारों में केवल त्रिपाठी ही पन्द्रहवीं शताब्दी के पक्षधर हैं। अपने लेख “क्या बस्तर राजवंश काकतीय था। *१. तथा वृहद लेख “दंडक चित्रकूट चक्रकूट और बस्तर कोरापुट 2* 10 में यह दर्शाने का प्रयास किया है कि “छिदक नागवंश के पश्चात् अन्नमदेव ने पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थाश में बस्तर में अपना राज्य शासन प्रारंभ किया। उल्लेखनीय है कि श्री त्रिपाठी अन्नमदेव को 11 काकतीय नहीं मानते। बस्तर में शासन करने वाले अन्नमदेव को वे तेलगु चोड़ अन्नमदेव मानते है।

बस्तर में काकतीय शासन का प्रारंभ चौदहवीं शताब्दी से मानने वाले इतिहासकारों की भी एक लंबी सूची है। पी.एच.डी. हेतु काकतीय युगीन बस्तर पर शोध कार्य करने वाले डॉ. केके बस्तर पर डी लिट हेतु शोध करने वाले डॉ. हीरालाल शुक्ल और प्रस्तुत लेख के लेखक यहाँ मानते हैं कि बस्तर पर काकतीय शासन का प्रारंभ चौदहवीं शताब्दी में हुआ, बस्तर भूषण लोडीगुडा तरंगिणी बस्तर आरण्यक, मेमोरेडा आन द इंडियन स्टेटस् (193775), इम्पिरियल गजेटियर, सी.पी. फ्यूडेटरी स्टेटस् (1906 पृ. 3) जैसे ग्रंथों के लेखकों ने चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में बस्तर पर काकतीय शासन का प्रारंभ माना है।

बस्तर के काकतिया वंश के रियासत के परिवारों के वंशवली 

बस्तर रियासत के अनेक सात परिवारों के यहां राजपरिवार की वंशावली को अनेक प्रतियां उपलब्ध है। सभी वंशावलियां यही दिखाती है कि दहवीं शताब्दी के प्रारंभ में अन्नमदेव ने बस्तर में काकतीय शासन का प्रारंभ किया। “दंतेवाड़ा के शिलालेख में वर्णन मिलता है कि प्रतापरूद्र काकतीय थे, उनके पूर्वज सोमवंशी, पांडव अर्जुन के संतान थे तथा हस्तिनापुर छोड़कर आवरंग (औरंगल वारंगल) में आ बसे थे। प्रतापरूद्र के भाई अन्नमदेव ने बस्तर में राज्य स्थापित करने के लिये। आवरंगल छोड़ा।

बस्तर रियासत के बारे में आधुनिक काल में प्रामाणिक जानकारी प्रदान करने वाला पहला लेख कैप्टन ब्लट का मिलता है। 6 अप्रैल 1795 ई. को ब्लंट कॉकर में था और उसने कांकेर राजा से बस्तर राजा दरयाव देव 14 के बारे में जानकारी प्राप्त की थी। इस नामोल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि 1795 ई. के आस-पास दरयाव देव बस्तर के नृपति थे। 1795 ई. के पश्चात् के बारे में प्रामाणिक जानकारी मिलती है। बस्तर के शासकों का काल निर्धारण करने वाले सभी लेखकों के वृतांत 1795 ई. के पश्चात् के लगभग मिलते जुलते हैं।

प्रतापरूद्र द्वितीय और उसके भाई अन्नमदेव के बारे में एक मत होना आवश्यक है। इसी से गुत्थी सुलझाने में आसानी होगी। प्रतापरूद्र द्वितीय का भाई अन्नमदेव था। यह प्रमाणित होने पर स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि बस्तर में काकतीय राजवंश के शासन का प्रारंभ चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

बस्तर में काकतीय शासन का प्रारंभ

बस्तर में काकतीय शासन का प्रारंभ चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ, इसकी पुष्टि के लिये निम्नलिखित तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं:

  1.  बस्तर में काकतीय शासन का प्रारंभ करने वाला अन्नमदेव काकतीय वंश का था और प्रतापरूद्र का भाई था। यह तथ्य दंतेवाड़ा के 1760 संवत् के शिलालेख से पुष्ट होता है। उल्लेखनीय है कि बस्तर में काकतियों का सर्वप्रथम शिलालेख यही हैं। न केवल प्रतापरूद्र तथा अन्नमराज का नामोल्लेख उसमें है, वरन् इनके पश्चात के शासकों का भी क्रमबद्ध नामोल्लेख है।
  2. जूनागढ़ के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टि कर्नल इलियट जिनके प्रशासन क्षेत्रान्तर्गत बस्तर आता था, ने 27 मई 1856 ई. को बस्तर के बारे में एक रिपोर्ट तैयार की। यह रिपोर्ट बस्तर आकर दंतेवाड़ा सहित अनेक स्थलों का दौरा करने के बाद प्राप्त पूछतांछ के बाद तैयार की गई थी। इस रिपोर्ट में इलियट ने लिखा है “प्रतापरूद्र के उत्तराधिकारी उनके भाई अन्नमदेव हुए जो दंतेश्वरी देवी के द्वारा वारंगल छोड़े जाने और अन्यत्र बसने की सलाह देने पर वारंगल छोड़े 17 पीढ़ी से इनका परिवार बस्तर में निरंतर राज्य कर रहा है।
  3. चार्ल्स इलियट के पश्चात बस्तर रियासत के बारे में कुछ और विस्तार से रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाले सी ग्लासफर्ड थे। वे सिरोचा के डिप्टी कमिश्नर थे। 30 सितम्बर 1862 ई को इन्होंने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट में उन्होंने बस्तर राजपरिवार के बारे में लिखा है- “प्रतापरूद्र का भाई अन्नमदेव उसका उत्तराधिकारी हुआ। अनेक वर्षों तक (वारंगल में) राजसिहासन पर बने रहने के पश्चात् उस समय मुसलमानों का आक्रमण हुआ। इस पर उसकी गृह देवी (ईट देवी) देतेश्वरी अन्नमदेव को दर्शन देती हैं और परामर्श देती हैं कि वारंगल छोड़कर अन्यत्र नया साम्राज्य स्थापित करें। देवी के मार्गदर्शन में अन्नमदेव दूसरे साम्राज्य की तलाश में निकले। ” इस प्रकार ग्लासफर्ड के अनुसार इस अन्नमराज (अन्नमदेव) का शासन प्रारंभ हुआ। 1323 ई. में दिल्ली सल्तनत की मुसलमान सेना प्रतापरूद्ध द्वितीय का परास्त होना ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित वृत्तांत है। एकाधिक प्रमाण उसके मिलते हैं। इस वृत्तांत से भी चौदहवींशताब्दी के प्रारंभ में बस्तर पर काकतीय शासन के सभारंभ की पुष्टि होती है।
  4. बस्तर के बारे में बस्तर के किसी निवासी के द्वारा लिखित पहली पुस्तक “बस्तर भूषण ” है। 1908 ई. में प्रकाशित इस महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखक ठाकुर केदारनाथ हैं, जो रियासत बस्तर की सेवा में थे और बस्तर को काफी गहराई से जाना था। बस्तर भूषण में इन्होंने लिखा है- “करीब छः सौ वर्षों से यहां (बस्तर में) उनके (राजा रूद्रप्रताप देव के) पूर्वज लोग राज्य करते रहे हैं। 7 सन् 1908 में लिखित पुस्तक में लगभग 600 वर्षों से राज्य करते रहना गया है- स्पष्ट है शासन का प्रारंभ 1308 ई. के लगभग अर्थात् चौदहवीं शताब्दी से ठाकुर जी ने माना है। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )
  5. रियासत कालीन बस्तर के कुछ महत्वपूर्ण रिकार्ड्स जगदलपुर स्थित जिलाध्यक्ष कार्यालय के रिकार्ड रूम में सुरक्षित रखे हैं। इनमें से एक नस्ती में बस्तर राजाओं की वंशावली दी गई है। इसमें उल्लेखित है- ‘ते राजा (प्रतापरूद्र) के भाई अन्नमदेव महाराज औरंगल त्यागि बस्तर में आये। ते राजा संवत 1377 के साल में मिति बैसाख सुदी 8 के रोज बुधवार के गर्दा में बैठे। उम्र 32 के उर ते (वारंगल में) राज किता बीस बरस 45 राज्य गद्दी भोग किये।’ इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि अन्नमदेव प्रतापरूद्र का भाई था और वारंगल में बीस वर्षों तक शासन करने के पश्चात् वह बस्तर आया। 18. चौदहवी शताब्दी के प्रारंभ में काकतीय शासन का प्रारंभ बस्तर में हुआ। यह वृत्तांत इसकी पुष्टि भी करता है ।
  6. बस्तर में अन्नमदेव परंपरा के शासक प्रवीरचन्द्र भंजदेव हुए। इनका शासनकाल 1936 से 1947 ई तक था। प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने राज परिवार में सुरक्षित रखी वंशावली व अन्य दस्तावेजों के आधार पर बस्तर के काकतीय नृपतियों का इतिहास लिखा है। लोहडीगुडा तरंगिणी नामक इस प्रकाशित ग्रंथ में अन्नमदेव से लेकर प्रवीरचन्द्र भंजदेव काकतीय तक के जीवनकाल व प्रमुख घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत किया है। इस ग्रंथ में भी उन्होंने अन्नमदेव को प्रतापरूद्र का भाई बतलाया है और सिंहासनारोहण मिति बैसाख शुक्ल 8 बुधवार के दिन संवत 1370 के साल लिखा है। 19. संवत को ई. सन् में परिणत करे पर 1313 ई. अर्थात् चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ की 1370 तिथि बनती है। अन्नमदेव से लेकर अन्य सभी काकतीय शासकों के सिंहासनारोहण व शासनकाल का वर्णन इस पंथ में प्रस्तुत किया गया है। किस तिथि व किस वार को सिहासनारोहण हुआ इसका भी वर्णन प्रस्तुत किया गया है। ग्रंथ के लेखक स्वयं काकतीय वंशी राजा हैं। अतः इसकी प्रमाणिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )
  7. बस्तर में काकतीय राजवंश के शासन का प्रारंभ 15वीं शताब्दी से मानने वाले इतिहासकार यह विस्मृत कर बैठे कि 1424 ई. में अन्नमदेव परंपरा के चौथे शासक राज्य कर रहे थे। लोहंडीगुडा तरंगिणी व अन्य लोगों के पास सुरक्षित राज वंशावलियों से यह तथ्य प्रतिपादित होता है।
  8. सन् 1324 ई. का टेमरा सती शिलालेख एक प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस शिलालेख में नाग राजा हरिशचन्द्र का उल्लेख है। इस शिलालेख के पश्चात् और कोई दूसरा शिलालेख नाग राजाओं का अप्राप्त है। इससे प्रमाणित होता है कि 1324 ई. के पश्चात् नाग राजा बस्तर में नहीं रहे। नागों को काकतीयों ने परास्त किया था, यह अनेक प्रमाणों से पुष्ट है। 1324 है का टेमरा सतो शिलालेख एक वजनदार प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। डॉ. हीरालाल शुक्ल ने इस तिथि से ही बस्तर में चालुक्य (काकतीय) शासन का प्रारंभ माना है। 20 उल्लेखनीय है कि बस्तर इतिहास पर गहन शोध कर श्री शुक्ल ने डी. लिट की उपाधि प्राप्त की है। बस्तर पर उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बस्तर के बारे में अधिकृत जानकारी रखने वाला इन्हें माना जाता है। अपने नवीनतम ग्रंथ में उन्होंने चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ से बस्तर में चालुक्य (काकतीय) शासन का प्रारंभ माना है। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )
  9. बस्तर के काकतीयों (चालुक्यों) पर पी.एच.डी. हेतु शोध कार्य करने वाले डॉ. के. के. झा ने लिखा है- “वारंगल से सत्ता च्युत होने के बाद काकतीय प्रतापरूद्र तथा उनके लघु भ्राता अन्नमदेव ने बस्तर में अपने लिए नये राज्य की स्थापना की टेमरा (लोहंडीगुड़ा ब्लाक में स्थित एक गांव में ही 1324 ई. को नागों को निर्णायक रूप से पराजित कर अन्नमदेव ने अपने नए स्थापित राज्य की राजधानी मधोता को बनायी।
  10. अनुभूतियां व किवंदन्तियां भी इतिहास के लिए बड़े महत्वपूर्ण होते हैं। बस्तर में प्रचलित अनुश्रुति से भी यही पुष्टि होती है कि अन्नमदेव वारंगल छोड़कर बस्तर आये और अपना राज्य स्थापित किए। अनुश्रुति है- “चालको वंशी राजा अन्नमदेव आरंगल के पाट करता आरू बस्तर के पूर करता” अर्थात् “चालुक्यवंशी राजा अन्नमदेव ने वारंगल का परित्याग कर बस्तर में नये राज्य की स्थापना की।
  11. बस्तर का इतिहास दक्षिण भारत से संबद्ध रहा है। दक्षिण भारत के इतिहास पर शोधपरक कार्य करने के लिए प्राध्यापक नीलकंठ शास्त्री प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भी वारंगल पर लिखते हुए राय व्यक्त की है कि बस्तर के शासक प्रतापरूद्र के भाई अन्नमदेव को अपना पूर्व पुरुष मानते हैं। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )
  12. भारतीय विद्या भवन, बंबई ने भारत के इतिहास को भारतीयों के ढंग पर लिखवाया और प्रकाशित किया है। अनेक खंडों में प्रकाशित इस इतिहास माला की एक कड़ी द देहली सल्तनत है। इस पथ में वारगंल पर कई पृष्ठ लिखे गये हैं। वारगंल पर उलग खाँ के आक्रमण और शासक प्रतापरूद्र के वीरतापूर्ण प्रतिशोध का उल्लेख करते हुए – 23. काकतीयों का पंथ में वर्णित है सन् की चौदहवी शताब्दी ने काकतीय साम्राज्य के पतन और कोंडाबड़ के रेडिडयों जैसे अनेक छोटे-छोटे प्रमुखों का उदय देखा।” पतन इस ग्रंथ ने चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में माना है। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि बस्तर में काकतीय शासन का प्रारंभ चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ। कुछ प्रश्न चिन्ह अनुतरित खड़े हैं। जिनका समाधान आवश्यक है। ये हैं

(1) रतनपुर के शासक पर बस्तर राजा ने आक्रमण किया। जिसे विफल बनाया ठाकुर माखनसिंह ने और पुरस्कार स्वरूप संवत 1501 अर्थात् 1534 ई. में 42 गांव जागीर के रूप में प्राप्त किए। (गुंडरदेही की जमींदारी) रतनपुर के पर आक्रमण करने वाला बस्तर का शासक कौन था? प्रवीरचन्द्र भंजदेव ने पुरुषोत्तम देव को आक्रमणकारी शासक बतलाया है। यह सही नहीं है, क्योंकि पुरुषोत्तम देव का शासनकाल प्रवीरचन्द्र  भंजदेव के अनुसार ही 1408 ई. से 1439 ई. तक था।

जबकि गुंडरदेही जमींदारी प्राप्ति का प्रमाण 1534 ई का मिलता है। जमींदार को जो जागीर दी गई, उसमें केवल बस्तर राजा को पराजित करने का उल्लेख है, बस्तर राजा का नाम नहीं है। बस्तर के इतिहास पर प्रफुल्लकुमारी देवी के काल में प्रकाशित एक ग्रंथ में वर्णन है के वीर नारायण देव ने रतनपुर पर चढ़ाई की। रतनपुर नरेश से रायपुर के बूढ़ा तालाब के पास मुठभेड़ हुई। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

वीर नारायण देव पराजित हुए और हाथी पर सवार हो भागे। इस प्रकार से पुरुषोत्तम देव और वीरनारायण देव दोनों के बारे में रतनपुर पर आक्रमण का ब्योरा मिलता है (वीरनारायण देव का रतनपुर आक्रमण और फलस्वरूप माखनसिंह को गुंडरदेही को जमींदारी प्राप्त होना सही प्रतीत होता है।

(2) बस्तर के सीमावर्ती राज्य जेपुर का इतिहास “नंदपुर ए. फोरसेकन किंगडम नामक ग्रंथ में मिलता है। 1939 ई. में प्रकाशित इस ग्रंथ के लेखक कुमार विद्याधर सिगदेव हैं। इस ग्रंथ के पृ. 43 पर बस्तर के राजा प्रताप का वर्णन है। ई. सन् 1610 में उसे बस्तर पर शासन करते बतलाया गया है। प्रताप ने कुतुबशाही साम्राज्य में लूटमार मचायी थी। उसे दंडित करने के लिये प्रधानमंत्री मीर मोहम्मद ठमीन को भेजा गया जिसने बस्तर की राजधानी तक पहुंचकर राजा को भयाक्रांत किया। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

लोहंडीगुड़ा तरंगिणी व अन्य राजवंशावलियों के अनुसार 1610 ई. में बस्तर पर वीरसिंह शासन कर रहे थे। 26 प्रतापदेव नामक काकतीय शासक 1501 ई. में शासन प्रारंभ किये थे। राजवंशावली की नकल जो जिलाध्यक्ष कार्यालय के रिकार्डरूम में संग्रहित है, उससे ज्ञात होता है कि वीरसा का पुत्र (वीरसिंह) प्रताप के नाम से बंदित था। 27 वीरसा वीरसिंह का काल 1610 ई. के लगभग था, ऐसा प्रतीत होता है कि यही वीरसिंह, प्रताप शा के नाम से जाना जाता है।

उल्लेखनीय है कि दंतेवाड़ा के शिलालेख में राजाओं की जो सूची दी हुई है, उसमें प्रताप देव का नामोल्लेख नहीं है। नरसिंह देव के पश्चात् जगदीश राय को राजा बतलाया गया है। प्रतापदेव शासक थे या नहीं? शासक थे तो उनका शासनकाल क्या था? 1501 ई या 1601 ई.? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त होना है। ( बस्तर में काकतीय वंश का शासन | Baster me kaktiya vansh ka shasan )

(3) काकतीय वंश के इतिहास पर तीसरा प्रश्नचिन्ह जो अनुतरित खड़ा है, वह है, राजा दिकपाल देव के शासनकाल का निर्धारण। प्रवीरचन्द्र भंजदेव के अनुसार इनका कार्यकाल 1620 ई. से 1649 ई. तक था। डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार 1680 28 ई. से 1700 ई. का है। दंतेवाड़ा शिलालेख संवत 1760 अर्थात् 1703 ई. का है, जिसमें राजा दिकपाल देव द्वारा नवरंगपुर विजय और तत्पश्चात् दंतेवाड़ा के कुटुम्ब जात्रा का वर्णन है। इसकी तिथि पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता। प्रवीर ने लिखा है कि राजा दिकपाल देव के सिंहासन पर बैठने की तिथि 1677 संवत गलत है।

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Source : Internet

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