
नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।
बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh
भारतीय इतिहास के रचियताओं ने इतिहास में नागवंशी राजाओं का वर्णन आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है। नागवंशी राजाओं का इतिहास कठिन एवं दुर्लभ है। फिर भी इतिहास में रुचि रखने वाले शोध के विद्यार्थी नागों के मनलुभावन इतिहास से अनभिज्ञ नहीं होंगे।
बस्तर के वनों में नागवंशी शासकों का इतिहास, शिलालेख, गढ़ किला बिखरा पड़ा है। इस वंश के शासक कहां से और कैसे इस अंचल में प्रवेश किये इस विषय पर विद्वानों का भिन्न-भिन्न मत है। वर्तमान बस्तर जिले के अभिलेखों के अवलोकन से ज्ञात होता है, कि ग्यारहवीं सदी के प्रारंभ में वर्तमान बस्तर उड़ीसा के कुछ भागों में नागवंशी राजाओं ने अपना राज्य कर लिया था। उस समय बस्तर चक्रकोट के नाम से जाना जाता था। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
नागों का राज्य कई भागों में बंटा था बारसूर दन्तेवाड़ा, हमीरगढ़ भेजी चिन्तलनार चक्रकोट, भ्रमरकोट और उड़िसा में कमलकोट शाखा के उल्लेख बस्तर राजवंश के इतिहास में मिलता है। नागवंश नरेश अपने को काश्यप गोत्र छिन्दक कुल के मानते थे। तथा उन्होंने भोगवती पुरवेश्वर की उपाधि प्राप्त की थी।
छिन्दक नाग वंश के प्रथम शासक नृपति भूषण का उल्लेख एर्राकोट से प्राप्त शक संवत 945 (1023 ई) के खंडित शिला लेख में मिलता है। उसकी उपलब्धियों के सम्बन्ध में और कोई उल्लेख नहीं मिलता है। नाग राजाओं के वंश परम्परा में धारा वर्ष जगदेक भूषण, मधुरान्तक देव, सोमेश्वर प्रथम, कान्हर, राज भूषण जोगेश्वर द्वितीय, कान्हर, जगदेक भूषण, नरसिंह जयसिंह, हरिशचन्द्र देव (बारसूर) हरिशचन्द्र देव (कोट) का उल्लेख इतिहास से मिलता है। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
नाग राजाओं के साथ युद्ध करने वाले शासक
नाग वंश के शासकों का उल्लेख चक्रकूट के शासक के रूप में मध्य कालीन इतिहास में आया है। दक्षिण भारत के इतिहासकार डॉ. ए.के. नीलकंठ शास्त्री ने अपने दक्षिण भारत के इतिहास पृ. नं. 155, 157 में लिखा है। तेलंगाना (आंध्रप्रदेश) के सोमेश्वर देव प्रथम चक्रकूट के शासक धारा वर्ष को 1042 ई में अपना अधिपत्य स्वीकार कराया था। इस अभियान में काकतीय सरदार भोल और उसके पुत्र येत ने बुद्ध का संचालन किया था। उन्होंने आगे लिखा है 1066 में वीर राजेन्द्र ने भी नाग प्रदेश चक्रकुट में प्रवेश किया था।
दक्षिण भारत का राजनैतिक इतिहास
ले. डॉ. राममनोहर मिश्रा
दक्षिण (भारत) तेलंगाना के अनूम को विषय जागीर का तारतम्य आंध्र राज के वारंगल में हनुम कोंडा नामक स्थान से किया गया है। और वहां का काकतीय राजा प्रोल प्रथम था। वह कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम (1043-1068 ई) का सामंत था। अपने अधिपति की ओर से चक्रकुट के नागों कोकण के शिलाहारों तथा भद्रंग एवं कांडपति के शासक दुर्ग को पराजित किया और पुरकूट के राजा जोन का युद्ध में वध कर दिया। पुरकूट का समीकरण बस्तर के निकट परकोट नगर से किया गया है और चक्रकूर के समीप ही स्थित रहा होगा। भद्रंग को पहचान नहीं की जा सकी है। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
डॉ. राममनोहर मिश्र के लेख के आधार पर सोमेश्वर प्रथम का विजय अभियान कोकड के पश्चात् वर्तमान बस्तर पर कहा गया है। आक्रमणकारी कोंकड़ के पश्चात महाराष्ट्र की सीमा पार कर पुरकूट नामक नगर पर आक्रमण किया। पुरकूट नगर वर्तमान परलकोट ही रहा होगा, क्योंकि परलकोट का भू-भाग महाराष्ट्र के चान्दा जिला से लगा है। उसके पश्चात् भद्रंग पर आक्रमण का उल्लेख है। भद्रंग की तुलना वर्तमान भेजरीपदर राजनगर से की जा सकती है। क्योंकि यह क्षेत्र पूर्व से ही घनी आबादी वाला क्षेत्र था, और नाग राजाओं की राजधानी रही है।
तीसरा उल्लेख चक्रकोट का आता है, चक्रकोट वर्तमान चिवरकोट है और चौथा आक्रमण कांडपति का आता है, यह नगर वर्तमान में एक गांव है। यह स्थान बीजापुर तहसील के कुटरू जमींदारी से 10 कि.मी. की दूरी पर है और वह गाँव काडलापति के नाम से जाना जाता है। 13300 ई. के आस-पास अन्नम देव के गोंड सामंत सन्यासी शाह ने नाग राजा से कांडलापर्ति छीन लिया, और कुटक को राजधानी बनाया। सन्यासी शाह के वंशधर कुटरू के जमींदार कहलाये (आ. बस्तर इतिहास एवं परमपराएं)(डॉ. रामकुमार बेहार, नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव) ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
तेलंगाना के ओरांगल के अन्नम देव काकतीय (चालुक्य) 1330 ई. के आसपास वर्तमान बस्तर के दक्षिण सीमा से लगे गोदावरी इन्द्रावती नदी के संगम पार कर भद्रकाली नामक स्थान में पड़ाव डाला और अपनी बिखरी शक्ति बटोर कर नाग प्रदेश के छोटे-छोटे राजाओं पर विजय अभियान के लिये निकल पड़े।
नाग प्रदेश पर आक्रमण
1. सर्व प्रथम अन्नमदेव भोपालपटनम की ओर बड़े, उन्हें नगर किला सुनसान मिला। वहां के नाग राजा अन्नम देव का मुकाबला न कर भाग गया। यह उनकी प्रथम सफलता थी। उन्होंने अपने सामंत नाहरसिंह पामभोई को क्षेत्र का सामंत मनोनीत किया और ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
2. बीजापुर में कुट-पुट युद्ध अवश्य हुआ, किन्तु बीजापुर क्षेत्र अन्नम देव के अधिकार में आ गया उनकी दूसरी विजय थी। इसलिये इस स्थान का नाम विजयपुर रखा गया।
3. कुटरू वारंगल से भागे गोंड सामंत सन्यासी शाह अपने राजा अन्नमदेव को ढूंढते महाराष्ट्र के अहेरी सूरजगढ़ होते हुये वर्तमान बस्तर के पश्चिम भाग से इन्द्रावती नदी पार कर नाग प्रदेश पर आक्रमण किया। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
सन्यासी शाह कांडला पति के नाग राजा को परास्त किया और पासेबाड़ा, फरसेगढ़, गुदमा तोयनार गढ़ों का स्वामी बन बैठा। सन्यासी शाह कान्डला पति के स्थान पर कुटक को अपनी राजधानी के लिये चुना कुटरू नाम के सम्बन्ध में एक किवदंती इस प्रकार बतलाई जाती है।
सन्यासी शह वर्तमान कुरक गांव के एक वृक्ष के नीचे अपने साथियों के साथ विश्राम कर रहे थे। उन्हें एक पक्षी की आवाज निरन्तर सुनाई दे रही थी। कुट-कुट कुटर शाह इस पक्षी की आवाज सुन इतने प्रभावित हुये कि अपने विजीत राज्य का नाम कुटरू रख दिया। (कुटरू जमींदार के जानकारी अनुसार ) के अन्नम देव से जा मिले। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
बीजापुर:- बीजापुर में रुक कर आसपास के क्षेत्र में बचे नाग सामंतों के इलाका कोतापल्ली, पामेड, फोटकेल, और गंगालूर अन्नमदेव के अधिकार में आ गया। इस क्षेत्र को प्राप्त करने के सम्बन्ध में कहा गया है, ओरांगल से बिछड़े सामंत सैनिक चेरला की ओर से नाग प्रदेश में प्रवेश किया और इन इलाकों को जीतते बीजापुर में अपने राजा से भेंट किया। उनके वीरता से प्रभावित हो कोतापल्ली और पामेड़ गंगालूर गोंड जाति के सामंतों को और फोदकेल का सामंत राऊत (पादप) जाति के सामंत को बनाया अपने सेनापति सामंतों के साथ रणनीति तय कर आगे बढ़े।
भैरवगढ़:- भैरमगढ़ में नाग राजा हरिश्चन्द्र देव आक्रमणकारी राजा अन्नमदेव का रास्ता रोके अपने योद्धाओं के साथ खड़ा था। युद्ध में हार जीत का फैसला हुये बिना ही नाग योद्धा भाग गये। इस क्षेत्र में हत्या सरदार को सामंत बना बारसूर की ओर प्रस्थान किया। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
बारसूर:- बारसूर के युद्ध में नाग राजा हरिश्चन्द्र देव का धोखे से अर्धरात्रि में अन्नमदेव ने वध कर दिया, और किला पर अधिकार कर लिया। इस क्षेत्र के सामंत हल्वा जाति को बनाया गया, उनके साथ तेलंगा, हल्वा सैनिक रखा गया।
किलेपाल:- किलेपाल का क्षेत्र गोंड जाति के सामंत को दिया गया।
दन्तेवाड़ा:- दन्तेवाड़ा में छुट-पुट युद्ध के पश्चात अन्नमदेव के अधिकार में आ गया। गढ़मिरी कटेकल्याण के नाग राजाओं ने आत्म समर्पण कर अपना राज्य बचा लिया। उन्हें उनके क्षेत्र का सामंत स्वीकार कर लिया गया। सावधानी की दृष्टि से तेलंगा और हल्वा जाति के सैनिक रखे गये। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
हमीरगढ़:- कल्याण के पश्चात् अन्नमदेव हमीरगढ़ पहुंचे। हमीरगढ़ के राजा रामचन्द्र देव, अपने मित्र राजाओं के साथ अन्नमदेव का स्वागत किया। उनके सहयोगी तीरथगढ़ चन्दरगिरी, मुण्डागढ़ (कोलेग) चिन्द्रगढ़ और सुकमा के राजा सम्मिलित थे। उन्होंने सुकमा के सामंत अपने संबंधी को बनाया और शेष गढ़ यथावत रहने दिया। उस इलाके के देख रेख के लिये हल्बा तेलंगा जाति के सरदारों के साथ सैनिक रखा गया। जगह-जगह धुरवा जाति के सैनिकों को चौकी बिठाई गई।
केशलूर:- केशलूर राजा के अन्तर्गत, ऐशंकोट, पाराकोट, मठकोठ, रैकोट और मुरुमगढ़ (मुरमा) का इलाका आता था। इस क्षेत्र में बिना लड़े ही अपने अधिकार में ले लिया। इस क्षेत्र का प्रबंध कर माहपाड़गढ़ और बागराउड़ गढ़ पर अधिकार कर लिया। इस क्षेत्र के प्रबंध के लिये कोरामी जाति के सरदारों घुरवा सैनिकों को रखा गया। (आगे चल कर कोरामी वंशधर अमनोत भतरा कहलाये) ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
उडिसा कोटपाड़ का राजा विक्रमदेव नाग था, प्रथम तो उन्होंने अन्नमदेव के साथ बुद्ध किया। परास्त हो आत्म समर्पण कर दिया। वे हमीरगढ़ के राजा रामचन्द्र देव के दामाद थे, और वे स्वयं इस अभियान में सम्मिलित थे। उनकी रानी चन्द्र प्रभा देवी पुत्र कृष्ण चन्द्र देव के प्रार्थना पर विक्रम देव को कुछ शर्तों के साथ अपना सामंत स्वीकार कर लिया गया। इस इलाके में हत्या और धुरवा कोरामी जाति के सैन्य बल रखा गया।
राजा अन्नमदेव लगातार सफलता प्राप्त करते चले जा रहे थे। यह आश्चर्य का विषय है, किन्तु इसके कई कारण रहे होंगे। नागवंशी राजा सामंत आपस में लड़कर बिखर चुके थे, टूट गये थे। इनकी आर्थिक स्थिति कमजोरी योद्धा सैनिकों के स्थान पर कुछ गिनती के सैनिक जिन्हें लठैत कहा जाय इन राजाओं के पास थे। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
आये दिन एक-एक गाँव बगीचा तालाब खेत के लिये आपस में लड़ पड़ते थे। सीमा विवाद मवेशी अन्य लूटपाट की घटनाओं को लेकर तलवार उठा लेते थे और वे सिमट कर पंच कोशी राजा बन चुके थे पंचकोशी राजाओं का उल्लेख वर्तमान समय पर भी सुनने को मिलता है। इन पंचकोशी राजाओं के आश्रित प्रजा इनकी आपसी विवाद से तंग आ चुके थे। वे दुविधा की स्थिति में पड़ जाते कि किसका साथ दें, किसका विरोध करें और भी अनेक कारण रहे होंगे।
राजा अन्नमदेव आक्रमणकारी थे फिर भी उन्हें आशा से अधिक सफलता मिल रही थी। शक्ति शाली देवी से वरदान प्राप्त राजा को प्रजा ने स्वीकार किया और उनकी मदद के लिये आगे आये। वे ही राजा के भेदिया और मार्ग दर्शक बने। राजा भी ऐसे लोगों को उचित सम्मान किया और उन्हें सैनिक एवं शासकीय सेवा में समान अधिकार दिया। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
उमरकोट:- राजा अन्नमदेव आंधी तूफान की तरह आगे बढ़ रहे थे। उनका मुकाबला करने, कोई सामने नहीं आता था। उड़ीसा के कोटपाड़ के अतिरिक्त पोहागढ़ शालमीगढ़, उमरकोट, रायगढ़ा पर छुट-पुट टकराहट के पश्चात् अपने अधिकार में ले लिया। इन क्षेत्र में अमनीत भतरा तेलंगा हलबा धुरवा सैनिक रखे गये।
अन्नमदेव उनके सामंत सैनिक लगातार जीत से दुगुने उत्साह से विजय अभियान की गति तेज कर दिया। देवी दन्तेश्वरी का वरदान साथ था, देवी स्वयं उनके पीछे-पीछे चलती थी। उनके नुपुरों की आवाज राजा सुनते थे। पीछे मुड़ कर न देखने की चेतावनी देवी ने दे रखी थी, सिहावा, मगरलोड़ तक पहुंच गये। वे आगे बढ़े राजिम के पैरी नदी के पास एक घटना घटी, देवी दन्तेश्वरी के पायजेब (पैरी) में रेत घुस गया, छुन छुन की आवाज आनी बंद हो गई। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
राजा ने समझा देवी रुकने का इशारा कर रही है। राजा ने पीछे पलट कर देखा, दन्तेश्वरी आ रही थी वह नाराज हुई और स्थिर हो गई। राजा से अभियान समाप्त कर पीछे लौटने का निर्देश दिया। अन्नमदेव का उत्तरी राज्य सीमा पैरी नदी बनी नदी का नाम देवी के पायजेब (पैरी) के कारण पैरी नदी पड़ा वर्तमान समय पर भी यह नदी इसी नाम से जानी जाती है।
राजिम के स्थान पर राजा ने मगरलोड को अपने राज्य की उत्तरी सीमा बनाया। उनका यह अभियान अधूरा था। क्योंकि वर्तमान बस्तर के अनेक गढ़ किला अभी भी नागों के अधिकार में था। उसे जीतने पर उनकरा अभियान पूर्ण होता था। राजा के साथ उनका परिवार अन्य आश्रित प्रजा भी सात थे। उनके पास उपहार और लूट के हीरे जवाहरात सोना-चांदी से भरा खजाना भी साथ था। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
उनके योद्धा वारंगल से लगातार युद्ध करते आगे बढ़ रहे थे। राजा के पास महल नहीं था, वे खानाबदोशों के समान एक के बाद एक गढ़ किला जीतते राज्य का विस्तार करते घूम रहे थे। उन्हें परिवार और खजाना उपर्युक्त स्थान पर रखने की चिन्ता राजा और सामंतों को सताने लगा। वे राजधानी बनाने और नागों के शेष किलों पर अधिकार करने के दृष्टि से मगरलोड़ से अन्नमदेव ने अपनी वापसी यात्रा शुरू की।
कांकेर के राजा और अन्नम देव के मध्य समझौते में कई शर्त रखे गये, कांकेर का एक परगना देव डोंगरी अन्नमदेव को भेंट में दिया गया। कांकेर से लगा दादरगढ़ बस्तर की सीमा रेखा बनी। इस गढ़ पर राजा ने बिना लड़े ही अपना झंडा फहराया। तेलिन घाटी के पूर्व दिशा से आगे बड़े वर्तमान विश्रामपुरी के निकट पड़ाव डाला। कालान्तर में वह स्थान विश्रामपुरी के नाम से जाना जाने लगा। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
बड़े राजपुर शक्तिशाली नाग राजा का राज्य था वे पहाड़ी राजा के नाम पर विख्यात थे। उड़िया के पराजीत नाग राजा सामंत सैनिक वहाँ शरण लिये थे। बड़े राजपुर, गढ़धनोरा के शक्ति अन्नमदेव का मार्ग रोके खड़े थे। नागों का संयुक्त सेना ने भीषण युद्ध किया। किन्तु अन्नमदेव को विजय श्री प्राप्त हुई।
वे बड़े डोंगर का मार्ग लिये, बड़े राजपुर के पराजय से नागों का मनोबल टूट चुका था वे डोंगर से भाग खड़े हुये। देवी के आदेश पर बड़े डोंगर को अपना राजधानी बनाया, राजा अन्नमदेव का राजतिलक समारोह हुआ। दन्तेश्वरी अन्य देवी देवताओं के मंदिर बनाये गये। राजा और प्रवासी नागरिकों ने नगर बसाया। 147 तालाब खुदाया गया। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
राजतिलक समारोह दन्तेश्वरी मंदिर के सामने पहाड़ी के एक पत्थर पर सम्पन्न हुआ। इससे यह संकेत मिलता है। कि उस समय राजा के पास महल और सिंहासन नहीं था। अन्नमदेव से अंतिम शासक प्रवीर चन्द्र भंजदेव तक डोंगर के उसी पत्थर पर राजतिलक होता चला आ रहा था। इसे पखनागादी कहा जाता है। अपने राज्य का नाम देवी से प्राप्त अस्त वस्त्र से बस्तर रखा गया।
बड़े डोंगर में राजधानी की विधिवत व्यवस्था कर नाग राजाओं सामंतों के शेष गढ़ किला पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रमुख सेनापति सामंतों को भेजा। अंतागढ़ परतापुर, परलकोट, महिमा गवाड़ी छोटे डोंगर, धवडई, गढ़ बेगाल, ओरछा (महादेव पहाड़) जीत कर अपने अधिकार में कर लिया गया। इन गढ़ों में हलबा कोरामी सैनिक रखे गये। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
अब लोगों के पास दो शक्तिशाली राज्य भ्रमरकोट मंडल और चक्रकोट शेष थे। मदनारायण देव का मरदापाल, मधोता, राजपुर, मादला मुण्डागढ़, बोदरागढ़, केशरपाल, कोटगढ़, राजनगर भेजरी पदर, बस्तर भ्रामर कोट मंडल के अन्तर्गत आता था। इन गढ़ों को सहज ही जोत लिया गया। इन गढ़ों के नाग शासक चक्रकोट के राजा हरिश्चन्द्र देव के शरण में चले गये। इन गढ़ों पर कोरामी हल्बा धुरवा सरदार रखे गये।
चक्रकोट में अपार सैनिक योद्धाओं, राजा सामतों की सेना इकट्ठा हो गयी थी और वे अपनी हार का बदला लेने के लिये अंतिम युद्ध की तैयारी में जुट गये। सभी सामरिक महत्व के ठिकानों में सैन्यबल बिठा दी गई। इधर राजा अन्नमदेव अपने सैन्य बल के साथ नारंगपाल के मैदान में पड़ाव डाले हुये थे। चक्रकोट तीन ओर से घिर चुका था। बारसूर, किलेपाल करजकोट (करंजी)। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
इस समय नागों के पास गढ़िया, धाराठर, करेकोट, गढ़ चन्देला चक्रकोट राज्य के आधीन था। राजा अन्नमदेव चक्रकोट के राजा हरिशचन्द्र देव की पुत्री चमेली बावी के रूपगुण से मोहित हो चुके थे। वे राजकुमारी से विवाह कराना चाहते थे। वे संधि करना चाहते थे। उन्होंने संधि प्रस्ताव में यह शर्त रखी कि राजकुमारी के बदले चक्रकोट के शेष गढ़ में यथा स्थिति रहने दी जावेगी और जहां हमारा सैनिक ठिकाना है वहीं बस्तर राज्य की सीमा होगी। इस संधि में और कई बातें रही होगी।
नाग राजा हरिश्चन्द्र देव ने इस संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उन्होंने कहला भेजा बड़े राजकुल का राजा, राजकुमारी के बदले राज्य और जीवनदान पाने की अपेक्षा रण भूमि में वीर गति पाना बेहतर समझता है। अतः युद्ध हुआ प्रथम चरण में अन्नमदेव को पीछे हटना पड़ा, बारसूर किलेपाल से सैनिक सहायता बुलाई गई। गढ़िया और धाराठर पर बारसूर के सामंतों ने अधिकार कर लिया। हरिश्चन्द्र देव वीर गति को प्राप्त हुये। चमेली बावी अपने सहयोगी झालरमती नायकीन घोषिया नायका के साथ अग्नि में प्रवेश की।
नागों का एकमात्र मार्ग शेष था। सैनिक योद्धा हाथीदरहा होते पहाड़ के नीचे करेकोट गढ़ की ओर भागे सभी राजा विक्रम देव के राज्य गढ़ चन्देला पहुंचे। वहां भी अन्नमदेव के सैनिकों ने आक्रमण कर दिया। ( बस्तर में नाग वंश और काकतीय वंश के बीच संघर्ष | Bastar me Nag vansh aur kaktiya vansh ke bich sangharsh )
एक दन्तकथा के आधार पर
आक्रमणकारियों को चन्देला नगर महल सुनसान मिला। महल में सोने के पिंजरे में एक तोता फड़फड़ा रहा था। सैनिकों ने तोते को भोजन पानी दिया और पूछा तुम्हारा मालिक कहां है। तोते ने बतलाया कि सभी गोवर- चोला करपन (खोह) में छिपे हैं। सैनिकों ने उक्त खोह को ढूंढ निकाला। उस ओर मनुष्यों के पांव के चिन्ह दिखे वह खोह तीन ओर से पहाड़ों से घिरा है। पहाड़ी के मध्य खोह में घनघोर जंगल था।
उन्होंने नगर उजाड़ डाला और लकड़ी घास जलनशील पदार्थ खोह में फेंक कर आग लगा दी, और लौट गये। उनकी दृष्टि में खोह में छुपे मनुष्य जल मरे थे, किन्तु ऐसा नहीं था। उक्त खोह में एक गुप्त मार्ग है, उसी मार्ग से सब बच निकले। वे सब कहां गये यह अज्ञात है। वे अबूझमाड में बस गये हों बतला पाना संभव नहीं है। गढ़ बन्देला के पश्चात् राजा अन्नमदेव का विजय अभियान पूर्ण हुआ और वे बस्तर के स्वामी बन गये बस्तर राज वंश के इतिहास में बस्तर राज्य की व्यवस्था और राज की सीमा का विस्तार से उल्लेख किया गया है।
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