
नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।
बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm
भारत वर्ष के हृदय स्थल ने स्थित मध्यप्रदेश राज्य के दक्षिण-पूर्व अंचल में बसा छत्तीसगढ़ का वर्तमान बस्तर क्षेत्र 17.46 उत्तर से, 20.34 उत्तरी अक्षांश एवं 80.15 पूर्व से, 82.1 पूर्व देशांतर के मध्य अवस्थित है। जिले के उत्तर में महानदी बेसिन, दक्षिण में गोदावरी घाटी पूर्व में कोरापूर (उड़ीसा) का पठार एवं सबरी घाटी तथा पश्चिम में वैनगंगा बेसिन और गोदावरी घाटी संभाग का सीमांकन करती है। अण्डाकार युक्त यह क्षेत्र उत्तर से दक्षिण 270 कि.मी. लम्बा एवं पूर्व से पश्चिम 188 कि.मी. चौड़ा है। उत्तर में रायपुर, दुर्ग तथा राजनांदगाँव जिले दक्षिण में आंध्रप्रदेश पूर्व में उड़ीसा तथा पश्चिम में महाराष्ट्र एवं आंध्रप्रदेश राज्य अवस्थित हैं।
प्राचीन काल से ही बस्तर जिले की अपनी एक विशिष्ट एवं अनुठी संस्कृति रही है। क्षेत्र में बिखरे पड़े शेव, वैष्णव, शक्ति, जैन एवं बौद्ध धर्म एवं उसके सम्प्रदायों से संबंधित पुरावशेष अंचल के गौरवशाली इतिहास एवं संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष को उजागर करते हैं। किसी क्षेत्र विशेष की समकालीन संस्कृति एवं सभ्यता के अध्ययन में वहाँ के क्षेत्रीय कलारूपों तथा परम्पराओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
बस्तर की प्रचानी संस्कृति एवं सभ्यता
बस्तर क्षेत्र की प्रचानी संस्कृति एवं सभ्यता के संदर्भ में यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि इससे संबंधित साहित्यिक साक्ष्य नितांत अल्पज्ञात है। यहां से प्राप्त विभिन्न राजवंशों के अभिलेखों से भी इस संबंध में कोई विशेष सहायता प्राप्त नहीं होती है।
प्राचीन बिखरे पड़े ध्वंसावशेष एवं कलावशेष ही इतिहास अध्ययन के सबल साधन हैं। क्योंकि भारत के अन्य क्षेत्रों की भांति बस्तर अंचल की कला के संवर्धन में राज्य प्रश्रय प्रधान कारण रहा है, परन्तु शिल्प कर्म का सीधा संबंध समाज जीवन से रहा है। अतः तत्कालीन सामाजिक मूल्यों तत्संबंधी मान्यताओं जनजीवन के संबंध में शिल्पियों के वैयक्तिक अनुभव आदि की अभिव्यक्ति उनकी कृतियों में जाने-अनजाने स्थान पाती रही है। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
जनपद काल से मौर्य युग तक बस्तर जिले में बौद्ध धर्म की स्थिति का स्वरूप अस्पष्ट है। सम्भवतः ऐसा इसलिए कि इस समय तक बौद्ध धर्म अपने मूलस्वरूप में प्रचलित मान्य होनपानी सिद्धान्तों एवं नीतियों पर अडिग था। इसमें प्रतीक पूजा ही मान्य थी। मूर्तिपूजा का कोई स्थान न होने के कारण तत्कालीन युग की मूर्ति शिल्प का अभाव अंचल में देखने को मिलता है।
बोद्ध धर्म से सम्बन्धित पुरावशेष वर्तमान बस्तर की सीमा से जुड़े उड़ीसा, आंध्रप्रदेश महाराष्ट्र तथा दक्षिण कोसल के अन्तर्गत बिलासपुर के मल्हार क्षेत्र, रायपुर के निकट सिरपुर नामक स्थान में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
प्रसिद्ध चीनी यात्री व्हेन सांग
प्रसिद्ध चीनी यात्री व्हेन सांग ने ई.स. 639 में दक्षिण कोसल की यात्रा की थी। उसने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि “मौर्य राजा अशोक ने दक्षिण कोसल की राजधानी के दक्षिण दिशा में एक स्तूप और अन्य इमारतों का निर्माण करवाया था। अशोक का एक लघु धर्म लेख जबलपुर के निकट रूपनाथ में आज भी विद्यमान है। अशोक के समय के ही दो भिति लेखा सरगुजा जिले के लक्ष्मणपुर के निकट रामगढ़ की सोतापेगा और जोगीमारा गुफाओं में पाये गये हैं। यह भारत की सबसे प्राचीन नाट्य शाला है।
इसके अतिरिक्त नंद मौर्य कालीन चांदी के सिक्के रायपुर जिले के तारापुर में तथा बिलासपुर जिले में अकलतरा के आस-पास पाये जाते हैं। बस्तर एवं उड़ीसा प्रांत में कई स्थानों से चांदी के पंचमार्क सिक्के प्राप्त हुए हैं। व्हेन सांग ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि दक्षिण कोसल का राजा नागार्जुन के समय में सद्वह था।” कनिंघम ने “सग्रह” को सातवाहन माना है। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
बस्तर अंचल के कोंडागांव एवं नारायणपुर अनुविभाग के मध्य 1978 में अध्येता को पुरातात्विक सर्वेक्षण के दौरान भोगापाल, बंडापाल, मिश्री एवं बड़गई प्रामों के मध्य विद्यावान वन में ध्वंस 7 टीले गौतम बुद्ध एवं सप्तमातृकाओं को प्रतिमा प्राप्त हुई है। 1990-91 में इन टीलों की मलवा सफाई का कार्य राज्य शासन के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के उप संचालक के निर्देशन में किया गया।
अध्येता का अनुमान है कि यहां ध्वंस ईट निर्मित स्थल मौर्य युगीन है। अवस्थित सप्तमातृका की प्रतिमा मध्य कुषाण कालीन तथा गौतम बुद्ध की प्रतिमा गुप्त कालीन है। सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में प्राप्त ईट निर्मित यह एक मात्र विशाल चेत्य मंदिर” है अनुमान है कि बौद्ध धर्म से संबंधित यह स्थल दक्षिण कोसल से महाकांतार तथा अन्य दक्षिणी राज्यों को जोड़ने वाले मार्ग पर अवस्थित है।
सम्भवतः यह वही राजमार्ग हो सकता है जिसका उपयोग गुप्त सम्राट दक्षिणापथ समुद्रगुप्त ने चौथी शती ई.स. में दक्षिणापथ अभियान के समय किया था। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर का मत यहाँ विशेष उल्लेखनीय है सभ्यता के अभ्युत्थान की आदिम अवस्था से ही प्राचीन दक्षिण कोसल के जनजीवन से सतत् समरसता बनाये रखने में इसकी सफलता का प्रधान आधार महानदी और उसकी सहायक नदियों द्वारा स्थापित सम्पर्क रहा है। इस नदी के तटीय मार्ग द्वारा ही मेचका सिहाया, काकरय (वर्तमान कांकेर) तथा भ्रमरकोट्य (बस्तर) होते हुये दक्षिण भारत के प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्रों के साथ इसका निरंतर सम्पर्क बना रहा है।
प्राचीन दक्षिण कौशल
प्राचीन दक्षिण कोसल का कलिंग तथा ओड़ के साथ युगयुगान्तर से चले आ रहे सांस्कृतिक संबंधों की स्थापना एवं विकास में सम्पर्क सूत्र के रूप में महानदी की भूमिका रही है। सम्राट अशोक के शिलालेख में विजित “अटवि’ (जंगली क्षेत्र) राज्यों के उल्लेख से यह प्रकट होता है कि दक्षिणापथ के इस मार्ग से ही सम्भवतः समुद्रगुप्त से कई शताब्दियों पहले सम्राट अशोक ने कलिंग राज्य पर आक्रमण कर विजित किया था। अनुमान है कि मौर्य सम्राट अशोक के कलिंग आक्रमण के पूर्व तत्कालीन “अवि वर्तमान बस्तर अंचल में बौद्ध धर्म का प्रवेश हो चुका था। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
“शाहबाजगढ़ी” से प्राप्त अशोक के तेरहवे शिलालेख में उल्लिखित है- “वहाँ (कलिंग में) ब्राह्मण, श्रमण, दूसरे पाषण्ड (पंथवाले) और गृहस्थ बनते हैं जिनमें ये विहित (प्रतिष्ठित है। ” अभिलेख के पैरा में उल्लेख है कि ऐसा कोई भी वैसा जनपद नहीं है, जहां मनुष्यों का किसी न किसी पापण्ड (पथ) में प्रीति न हो। ” अभिलेखीय विवरण से प्रकट होता है कि सम्राट अशोक के कलिंग आक्रमण के समय वहां सभी प्रकार की जातियां एवं पंथ के लोग निवास करते थे।
अटवि जनजाति
“अटवि” जनजातियों का उल्लेख करते हुए उसने लिखा है कि “जो भी अटवियों (वन्य प्रदेशों के निवासियों) देवों के प्रिय के विजित (राज्य) में हैं, उन्हें भी (वह) शान्त करता है और ‘ध्यान दीक्षित ‘ कराता है। अभिलेख की आठवीं पंक्ति में उल्लेख मिलता है कि “जो धर्म विजय है, वहीं देवों के प्रिय द्वारा मुख्य विजय मानी गई है। पुनः देवों के प्रिय की वह (धर्म विजय) यहाँ (अपने राज्यों में) और सब अंतो सीमांत स्थित राज्यों में उपलब्ध हुई है। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
यहां अभिलेखीय विवरण से ऐसा प्रतीत होता है कि उड़ीसा प्रांत से जुड़ा आधुनिक बस्तर तत्कालिक समय में कलिग राज्य के अधीन “अरवि “राज्य के नाम से जाना जाता था। यह सबसे निकटवर्ती वन्य राज्य था। कलिंग विजय के पश्चात् सम्भवतः यहां की जनजातियों ने विद्रोह कर स्वतन्त्र होने अथवा उत्पात मचाने का प्रयत्न करने पर अशोक ने तत्कालीन अटिव (अर्थात् बस्तर सम्मिलित) के इन निवासियों को न केवल शांत किया अपितु बोद्ध धर्म में अहिंसावादी सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाने का प्रयत्न भी किया।
कोटलीय अर्थशास्त्र में भी अरवि” सेना का महत्व प्रतिपादित है। पुराणों में “आटव्य शब्द पुलिद, विध्वमूलीय और वैदर्भ के साथ आया है। सतना जिला से प्राप्त एक ताम्रपत्र में इमाला राज्य के राजा ‘हस्तिन” को अठारह अटवि राज्यों का स्वामी कहा गया है।” डॉ. फ्लीट के अनुसार आरविक नरेश संयुक्त प्रांत के गाजीपुर से लेकर मध्यप्रदेश के जबलपुर तक फैले हुए थे। अशोक के तेरहवें शिलालेख से यह पूर्णतः सिद्ध हो जाता है कि कलिंग युद्ध के पश्चात् युद्ध की विभीषिका से द्रवित होकर उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर “शस्त्र युद्ध” को “धर्म युद्ध” में परिवर्तित कर दिया था। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
लेख में “ध्यान दीक्षित” तथा “धर्म विजय” शब्द बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार से सम्बन्धित है उसकी यह “धर्म विजय” उसके सभी विजित एवं सीमावर्ती राज्यों में फैल चुकी थी, फिर वर्तमान बस्तर अंचल का बौद्ध धर्म के प्रभाव से अछूता रहना असम्भव था। सम्राट अशोक सर्वास्तिवादी शाखा के आचार्य उपगुप्त के उपदेशों से अधिक प्रभावित था।
सम्प्रदाय महासंधिको को एक उपशाखा के रूप में प्रसिद्ध हुआ था। ” भोगापाल का चैत्य मंदिर भी इन्हीं चैत्य शिलावादी आचार्यों के धर्म प्रचार-प्रसार एवं निवास का प्रमुख केन्द्र रहा है। चैत्य में निर्मित निवास हेतु कोठरियां इसका प्रमाण हैं। अनुमान है कि बौद्ध आचार्य महादेव आंध्र एवं उड़ीसा से जुड़े बस्तर अंचल के इस दक्षिण कोसल एवं अन्य दक्षिणी राज्यों को जाने वाले प्राचीन भारतीय राजपथ के मध्य में अवस्थित भोगापाल के इस केन्द्र से अवश्य ही जुड़े रहे होंगे। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
यहाँ से छोटेडोंगर, गढ़लंका के निकट से ऐतिहासिक नगर बारसूर के पास से “बोधघाट स्थित इन्द्रावती नदी पार कर सुगमता पूर्वक उड़ीसा एवं वहां से आंध्र राज्य में पहुंचा जा सकता है। “बोधघाट” वस्तुतः “बोद्धघाट” का परिवर्तित रूप है भोगापाल से राजपुर के निकट “जेतगिरी” जो वास्तव में “चैत्यगिरी” का अपभ्रंश है। यहां पहाड़ी के ऊपर कई प्राचीन ध्वंसावशेष विद्यमान है। इस स्थल से सुगमतापूर्वक उड़ीसा के प्रमुख नगरों में आसानी से पहुंचा जा सकता है। अंचल में विद्यमान पुरावशेष एवं अभिलेखीय साक्ष्य बस्तर अंचल में बौद्ध धर्म के विकास एवं प्रभाव को प्रमाणित करते हैं।
मौर्य सम्राज्य के पतन के पश्चात्
मौर्य सम्राज्य के पतन के पश्चात् दण्डकारण्य के इस वनांचल में ब्राह्मण धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा। हिन्दू धर्म एवं संस्कृति में अवतारवादी मान्यताएं संयुक्त हुई। ई.स. को प्रथम शताब्दी में बौद्ध धर्म मे भी परिवर्तन वादी महासाधिक सम्प्रदाय का विस्तार एवं नवीन मान्यताएँ संयुक्त हुई फलस्वरूप बौद्ध धर्म के इस परिवर्तनवादी सम्प्रदाय ने हिन्दू संस्कृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर “महायान” के रूप में नया कलेवर महण किया। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
वास्तव में महायान बौद्ध धर्म के हिन्दूकरण का ही परिणाम था। भोगापाल चैत्य मंदिर के निकट एक ध्वंस मंदिर के पास काले प्रस्तर खण्ड की रखी माओं की तमा 130 x 63 x 14 से. मी. की है। प्रतिमा में सात देवियों क्रमशः ब्राह्मणी, माहेश्वरी इन्द्राणी कोमारी बाराही, नारसिंही तथा चामुण्डा एक हो शिलाफलक पर उत्कीर्ड़ मिलती है।
द्विभुजी मातृकाएं घाघरानुमा वस्त्र घुटनों के नीचे तक पहने हैं। कमरपट सामने लटक रहा है पैरों में कड़े कानों में कुण्डल, चौड़े कान, शीर्ष पर जुड़ा बना है। पुरुष मूर्ति कमर में पटका पहने सीधी सादी खण्डित मूर्ति है। कुषाण युग में सप्तमातृका पूजा के रूप में देवियों के विविध अवतारों की मान्यता हुई। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
कुषाण युग के बाद मातृकाओं की संख्या में वृद्धि होकर 10, 12, 16 मातृकाएँ मानी जाने लगी। चौसठ योगिनी भी इन्हीं का रूप है। सम्भवतः द्वितीय शताब्दी इस की यह प्रतिमा आन्ध्र सातवाहन युग में हुए अंचल में महायानी बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में हिन्दू धर्म के साथ सामंजस्य का प्रतीक है।
यहाँ अवस्थित बौद्ध एवं हिन्दू प्रतिमाएं तत्कालीन बस्तर के नलवंशी शासकों की धार्मिक सहिष्णुता की परिचायक है। मध्यकाल में सम्पूर्ण भारत में तांत्रिक पूजा साधना अपने चरमोत्कर्ष पर थी। बस्तर अंचल में भी शैव, वैष्णव एवं शक्ति तथा गाणपत्य धर्म में तंत्रपूजा साधना प्रारम्भ हुई। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
अंचल में बौद्ध धर्म
अंचल में बौद्ध धर्म पर भी इसका प्रभाव पड़ा। बौद्ध धर्म के महायानी सम्प्रदाय वज्रयान ने भी इसे स्वीकार किया और अंचल का भोगापाल स्थित केन्द्र जो विरक्त बौद्ध भिक्षुओं के त्याग, तप एवं संयम तथा सदाचार का केन्द्र था वज्रयानियों की भोगविलासपूर्ण तांत्रिक साधना का केन्द्र बन गया।
इस स्थल के संबंध में स्थानीय लोक देवोपासना के अन्तर्गत ग्रामीण आदिवासी बुद्ध प्रतिमा एवं सप्तमातृका को तंत्र-मंत्र जादू-टोना से मुक्ति दिलाने तथा मोहिनी विद्या कराने में प्रवीण मानते हैं। सप्त मातृकाओं को वे बुद्ध की पत्नियाँ मानते हैं। उनका कहना है कि देव (बुद्ध) अपनी सप्त-सात स्त्रियों के साथ जंगल में आनंद मनाता है। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
स्थानीय आदिवासी युवक युवतियाँ एक दूसरे को मोहित करने हेतु मूर्तियों को खुरचकर चूर्ण किसी खाद्य पदार्थ के साथ खिलाते हैं। उनका मानना है कि इससे वह स्त्री अथवा पुरुष मोहित हो जाता है। कार्यपूर्ण होने पर वे बुद्ध एवं मातृकाओं की प्रतिमाओं में बकरे, मुर्गा की बलि देते हैं, अंडे फोड़ते हैं तथा पास में उगी जंगली घास की अंगूठी बनाकर सिंदुर आदि के साथ चढ़ाते हैं। निःसंदेह मध्यकाल में बौद्धों की प्रचलित वज्रयानी साधना को आदिवासी अपनाये हैं।
बस्तर अंचल में बौद्ध धर्म के पतन की निश्चित जानकारी देना अत्यन्त कठिन है, लेकिन ऐसा लगता है कि सम्भवतः मध्ययुग में हुए विभिन्न धर्मों में तंत्रवाद के खिलाफ विशाल धार्मिक विप्लव ने तंत्रसाधना के माध्यम से भोगविलासपूर्ण जीवन जीने वाले तांत्रिक मठाधीशों की कमर तोड़ दी है। जनता ने भी पूरा समर्थन दिया। वैदिक धर्म में युगांत कारी परिवर्तन हुए जिससे, बौद्ध धर्म का हास होना प्रारम्भ हो गया और शनैः शनैः बौद्ध धर्म का वैदिक धर्म में विलोप होने लगा। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
11 वीं शताब्दी ई.स. के प्रारम्भ में बस्तर अंचल में कट्टर शैव धर्मावलंबी नाग राजसत्ता का अविर्भाव हुआ परिणाम स्वरूप चक्रकोट (बस्तर) में नवीन राजनैतिक परिवर्तन के साथ ही साथ बौद्ध धर्म का पतन हो गया। वस्तुतः वही धर्म चिरस्थायी होता है जिसकी बुनियाद सत्य, अहिंसा न्याय प्रेम और धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित हो तथा जिसमें मानवमात्र के प्रति कल्याण की भावना निहित हो।
बस्तर अंचल में मौर्यकाल से छिंदक नाग युग तक पुष्पित एवं पल्लवित बौद्ध धर्म ने अंत में समय की मांग के साथ न ही जनता का विश्वास प्राप्त करने का प्रयत्न किया और न ही समय के साथ समझौता किया। परिणामस्वरूप ई. सन् 11 वीं शदी के अंत तक बस्तर अंचल से बौद्ध धर्म का अस्तित्व समाप्त हो गया। ( बस्तर मे बौद्ध धर्म | Bastar me Baudh dharm )
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