बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav

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बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav
बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav

नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।

 बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav

मध्यप्रदेश के दक्षिण पूर्व में मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा जिला बस्तर है। बस्तर शब्द किवदंतियों के अनुसार “बांसतरी” शब्द से विकसित होकर बना है। बस्तर में 10वीं से 14वीं सदी के प्रारंभ तक छिन्दक नागवंशी राजाओं का राज्य था। उस समय इनके राज्य का विस्तार उड़ीसा व आंध्रप्रदेश तक था, तथा उसे चक्रकोट कहा जाता था। अंततः यह राज्य दक्षिण के काकतीय वंश के द्वारा हस्तगत कर लिया गया और काकतीय राजा अन्नमदेव ने बस्तर में 1313 में अपना राज्य स्थापित किया जो 600 वर्षों तक अर्थात भारत संघ में विलीन होने तक चला। 

अंग्रेजों के परोक्ष शासन के पहले बस्तर हिन्दू राजाओं द्वारा शासित था। सर्वोच्च विधायी और दांडिक शक्तियां राजा के हाथों में केन्द्रित थीं। निर्णय का आधार धर्मशास्त्रों की स्थापनायें और राजा का स्वविवेक था। इन धर्मशास्त्रों में मनु याज्ञवल्यक, वृहस्पति एवं नारद स्मृतियां अत्यन्त महत्वपूर्ण थीं। ( बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav )

नल-नाग युगीन अभिलेखों से स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं होता कि बस्तर में उन दिनों न्याय व्यवस्था कैसी थी। फिर भी कहा जा सकता है, कि परंपरागत रूप से राजा न्याय व्यवस्था का प्रमुख होता था। राजा को मृत्युदंड देने या मृत्युदंड प्राप्त अपराधी को क्षमा प्रदान करने का भी अधिकार होता था। न्याय व्यवस्था की देखरेख के लिये राजा के अतिरिक्त उसके मांडलिक अथवा अन्य अधीनस्थ राजाओं के अपने-अपने क्षेत्र में अधिकार रहते थे, प्राम सभाएं भी अनेक स्थानीय विवादों का निपटारा परम्परागत रूप से करती थी। 

भारतीय शासकों के समय का न्याय व्यवस्था 

भारतीय शासकों के समय में राजा ही न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था, राजादेश निकाले, फांसी या मौत की सजा भी दे सकता था किन्तु उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह धर्म, न्याय तथा सुझबूझ के साथ ही इस विशेषाधिकार का प्रयोग करे। राजा को उसके राजकार्य में सहायता देने के लिये दीवान तथा उप दीवान होते थे। ( बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav )

आंग्ल सत्ता के पूर्व बस्तर की न्याय व्यवस्था प्राचीन परिपाटियों, लोक विश्वासों तथा कुछ मामलों में नीतिशास्त्रों पर आधारित हुआ करती थी अपनी-अपनी जमीदारियों में जमींदारों को भी कुछ अधिकार प्राप्त थे ग्रामों में पंचायत व्यवस्था पर्याप्त सक्षम थी तथा अधिकांश मामले इसी स्तर पर ही निपटा लिये जाते थे। राजा के स्तर तक बहुत कम मामले पहुंचते थे।

बस्तर में पंचायतों का प्रभाव 

बस्तर के आदिवासी जीवन में पंचायतों का महत्वपूर्ण स्थान होता था। ये पंचायतें ही सार्वभौम शक्ति के रूप में आदिवासी समाज की प्रथाओं का करती थीं ये आदिवासी पंचायतें शताब्दियों से तत्काल न्याय यानि जस्टिस एटडोर और सर्वसन्तुष्टिदायक न्याय यानि रियल जस्टिस’ प्रदान करती आयी है। जातीय पंचायते भी कम शक्तिशाली नहीं थीं। विभिन्न जातियों को अपनी-अपनी पंचायतों में जो धाम परगना तथा राज्य स्तर तक होती थीं। ( बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav )

शादी, ब्याह, जात-पात, जाति से निष्कासन अथवा सम्मिलन, प्रायश्चित आदि संबंधित अनेक तरह के विवादों का निपटारा करती थीं। जाति संबंधी कुछ मामलों में सर्वोच्च निर्णायक राजा ही होता था। परंपरा मान्य कुछ दंड प्रदान करने का भी उसे अधिकार प्राप्त था। विभिन्न मामलों में न्याय निर्णय के पूर्व बहुधा राजा अपने मंत्री (दीवान), राजगुरू, राजपुरोहित आदि प्रमुख दरबारियों से परामर्श कर लिया करते थे।

पंचायत की कार्यविधि

पंचायत की कार्यविधि न्यायपूर्ण होती थी। आमतौर से पंचायत की बैठक प्रतिवादी के गांव में होती थी, ताकि यह न लगे कि उस पर अन्य गांव के लोग हावी रहें या उसे बचाव का समुचित अवसर नहीं मिला। ग्राम की पंचायती बैठक में गांव का कोई भी व्यक्ति आ सकता था, यह खुली और निष्पक्ष अदालत होती थी इसका सर्वोच्च अधिकारी मांझी होता था। ( बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav )

ग्राम पंचायतों के निर्णयों के विरुद्ध अपील, परगना पंचायत में की जा सकती थी। इससे भी असन्तुष्ट पक्षकार दंतेश्वरी माई के स्थल दंतेवाड़ा के परगना मांझी के समक्ष अपील कर सकते थे।

यह मांझी प्रधान माना जाता था और उसे राजदरबार में बैठने का गौरव प्राप्त था। इस मांझी से भी असन्तुष्ट व्यक्ति राजा के समक्ष अर्थात सुप्रीम कोर्ट जाने को स्वतंत्र थे।  ( बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav )

दीवानी व फौजदारी मामलों में किस प्रकार निर्णय लिया जाता था, इसका अनुमान बस्तर भूषण के अधोलिखित उद्धरण से लगाया जा सकता है–

“दीवानी मामले राम-रावण तथा कौरव-पांडव के दिव्य पर दिये जाते थे। जैसे, दो कागज या तालपत्र पर राम तथा रावण या कौरव पांडव का नाम लिखकर किसी बालक से उठवाते थे, जिसकी ओर से बालक राम या पांडव का कागज उठाते वह जीतता था, दूसरा हारता था।” ( बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav )

फौजदारी मामलों में भी बड़ी कठिन परीक्षा हुआ करती थी, तपे लोहे के गोले को संदिग्ध अपराधी से उठवाना या खोलते हुए तेल के कड़ाही में हाथ डलवाना आदि। ऐसे मामलों में यदि संदिग्ध व्यक्ति का हाथ नहीं जलता था, तो वह निरपराधी माना जाता था, इसके विपरीत हाथ जलने पर वह अपराधी माना जाता था, और उसे सजा दी जाती थी।

बस्तर राज्य 1854 ई. से ब्रिटिश प्रभाव 

बस्तर राज्य 1854 ई. से ब्रिटिश सर्वोच्चता के अन्तर्गत आया। इससे पूर्व वह भोंसलों का करद राज्य था। भोंसले बस्तर से वार्षिक कर प्राप्त करने तक ही अपने को सीमित रखते थे, यहां की प्रशासनिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करते थे। बस्तर का राजा रियासत के सभी मामलों का अंतिम निर्णयक था इसी तथ्य की ओर डिप्टी कमिश्नर रायपुर चार्ल्स इलियट का ध्यान आकृष्ट करते हुए रियासत के दीवान लाल दलगंजन सिंह ने कहा था-( बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav )

“बस्तर राजा के नागरिक व न्यायिक अधिकारों पर कभी भी किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नही लगाया गया है, अपनी प्रजा पर बस्तर राजा का पूर्ण अधिकार है।” 

किन्तु बस्तर राजा की यह स्थिति अधिक दिनों तक बनी नहीं रही, धीरे-धीरे प्रशासन पर अंग्रेजों का प्रभाव बढ़ता गया, राजा नाम मात्र के लिये राजा रह गया। विभिन्न शक्तियां दीवान को हस्तांतरित होती गयीं। राजा प्रशासन कार्यों में अपनी सहायता के लिये दीवान नियुक्त करता था। बस्तर के प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने दीवान की नियुक्ति के मामले में हस्तक्षेप प्रारंभ किया। धीरे धीरे अमेज उसी व्यक्ति को दीवान बनाने लगे, जिसे वे चाहते थे। ( बस्तर की न्याय व्यवस्था पर अंग्रेजो का प्रभाव | Bastar ki nyay vyavastha par angrejo ka prabhav )

इस प्रकार ज्यों-ज्यों प्रशासन में अंग्रेजों का शिकंजा कसता गया, त्यों-त्यों अंग्रेजी शासन विधि लदती चली गयी। इसके पहले भारतीय धर्मग्रन्थ व परंपरायें न्यायदान का आधार होती. थीं। किन्तु अंग्रेजी शासन व्यवस्था आरंभ होने के साथ ही बस्तर के आदिम जीवन में श्रृंखलाबद्ध पंचायतों व ग्राम प्रमुखों को मर्यादा में कमी होने लगी, जिससे इन समुदायों में प्रशासन के विरुद्ध असन्तोष की शुरुआत हुई, और सम्भवतः 1876 व 1910 का विद्रोह इसी अंग्रेजी शासन के विरोध का परिणाम था।

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Source : Internet

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