
नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।
बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati
मध्यप्रदेश के इतिहास का प्रारंभ पाषाण युग से होता है। बस्तर अंचल की जीवनदायिनी नदी इन्द्रावती के किनारे जगदलपुर तहसील के अन्तर्गत ग्राम कालीपुर में पूर्वपाषाण युगीन अवशेष पाये गये हैं। इस नदी के किनारे हो घाट लोहगा देऊरगांव बिन्ता, भाटेवाडा, गढ़चंदेला एवं चित्रकूट ऐसे स्थल है जहां से पाषाणकालीन औजार प्राप्त हुए हैं प्रसिद्ध भारतीय पंथ बाल्मिकि रामायण में दो कोसल का उल्लेख है।
रामायण काल में बस्तर
रामायण काल में वर्तमान बस्तर को दंडकारण्य कहा जाता था। डा हीरालाल शुक्ल ने आधुनिक बस्तर एवं कोरापुट को ही प्राचीन दंडकारण्य स्वीकार किया है। वायुपुराण एवं ब्रह्मांड पुराण के विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि नल स्वस्कर ने दक्षिण कोसलगपण एक्सन किडा प्या। देवि को ले के निष्कत विकल सहित सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ क्षेत्र आता था। ( बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati )
महाराजा भवदत्त वर्मन के रीधापुर ताम्रपत्र पोहागढ़ (कोरापुट) स्थित स्कन्दवर्मन का शिलालेख एवं राजिम के राजीवलोचन मंदिर के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि नलवंश के शासकों ने 5वीं सदी ई में बस्तर पर शासन किया था। तत्पश्चात ऐतिहासिक दृष्टिकोण से 500 वर्षों तक बस्तर का अंधकार युग रहा। तत्पश्चात नागवंशियों एवं काकतीय वंशियों का शासन रहा। बस्तर के महाराज प्रवीरचन्द्र भंजदेव काकतीय वंश के अंतिम शासक थे।
बस्तर के गोंड जनजाति
महत्वपूर्ण है कि गोटी बोली में गोड अथवा गोडी नाम का कोई शब्द नहीं है। गोंड स्वयं को गोड नहीं अपितु “कोपतोर’ कहते हैं। गोड शब्द का प्रयोग वस्तुतः गैर आदिवासी जनता के द्वारा ही किया जाता है। सर सी.एस वेंकटाचार्य का मत है कि गोंड लोग दक्षिण भारत से आये हुए प्राग-द्रविण लोग हैं। ( बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati )
गोड शब्द की उत्पत्ति के विषय में कोई निर्विवाद धारणा नहीं है। गोंड साम्राज्यों के पतन के पश्चात गोंड पहाड़ी क्षेत्रों में चले गये वे अपने को “कोण्डा दोरलू” अर्थात पहाड़ी अधिपति कहने लगे। यहीं “कोण्डा” शब्द कालान्तर में गोंड बन गया।
बस्तर में आदिवासी गोंडों की 24 जातियां हैं। जिनमें प्रमुख माड़िया मुरिया, परजा, गदवा, राजगोड़ एवं मंत्रीगोड, प्रमुख हैं। इनके पहनावे, चालचलन एवं व्यवहार में बहुत ही कम फर्क है। इनके अलावा भतरा जनजाति की संख्या ज्यादा है, ये लोग किसान हैं एवं बस्तर के पूर्वी हिस्से पर निवास करते हैं। ( बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati )
बस्तर के गोंडों का रंग काला, चेहरा चपटा, एवं नाक लम्बी, तथा फैली हुई होती है। स्वभाव से ये एवं सहनशील होते हैं, इनकी बोली गोंडी कहलाती है। मूल गोंडी बोली का शब्दकोष बहुत ही स्वल्प है, मुश्किल से इसमें 600) शब्द हैं। गोंडी उपबोलियां परस्पर भिन्न है, इसकी वजह है कि क्षेत्रानुसार गोडी ने क्षेत्रीय भाषा के अनेक शब्दों को गोंडी बोली। में आत्मसात कर लिया है। उदाहरणार्थ रायपुर, बिलासपुर एवं दुर्ग की गोडी बोली में छत्तीसगढ़ी एवं दक्षिण बस्तर की गोंडी बोली तेलगु भाषा से अधिक प्रभावित है।
बस्तर के आदिवासी छोटे कपड़े के अधोवस्त्र का प्रयोग करते हैं। पुरुष लोग बांह में लोहे या पीतल के कड़े पहनते हैं एवं महिलाएं कमर में सन या सिहाड़ी को करघनी पहनती हैं, एवं गले में 10-15 लोहे की मूर्तियां याने हमेल पहने रहती है। इसके अलावा कौड़ियों की माला एवं पीतल के टुकड़ों की माला पहनती हैं। महिलाएं सिर में बांस से बनी हुई कंघियां खोसे रहती है। गोड युवतियों में गोदना गुदवाने का विशेष प्रचलन है। बस्तर में गोड़ों की आमदनी का प्रमुख जारिया वनोपज का एकत्रीकरण है। ( बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati )
गृहस्थी के अलावा चार वृक्ष से चिरौंजी एवं महुआ एकत्र करना गोंड महिलाओं का प्रमुख कार्य है। पुरुषों की रुचि शिकार में रहती है। गोंड अपने प्राकृतिक पर्यावरण से प्राप्त पदार्थों का ही भोजन में प्रयोग करते हैं। पेज इनका प्रिय पेय है जो चॉवल द्वारा निर्मित शराबनुमा पेय होता है, इनका सर्वाधिक प्रिय पेय दारू है। गोंड़ों का मुख्य आहार कोदो का भात एवं महुआ है। ये प्रायः पशुओं एवं पक्षियों का मांस खाते हैं।
गोंड जनजाति में विवाह
गोंड जनजाति में समगोत्रीय विवाह नहीं होते। भाई अपनी बहिन की लड़की से विवाह करने का पहला हकदार होता है। इस रिश्ते को दूध लौटाना कहा जाता है। गोंड मंडप में तीन प्रकार के विवाह करते हैं- पहला जढ़ विवाह यह सर्वाधिक प्रचलित है। इसमें दूल्हा बारात लेकर आता है। दूसरा पठौनी विवाह- इसमें दुल्हन बारात लेकर आती है एवं तीसरा लमसेना विवाह, जिसे घर जवाई भी कहते हैं। इन परम्परागत विवाहों के साथ भगोली अर्थात प्रेम विवाह, बलात विवाह, विधवा विवाह, रखेली विवाह एवं अंतर्जातीय विवाह पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
बस्तर के गोंड निवासियों के गांव-गांव में घोतुल गुड़ी बनी रहती है अर्थात् गांव के किनारे में एक छोटा मकान बनाया जाता है, जिसे घोतल गुड़ी कहते हैं। पोतुल गुड़ी में गांव के सभी कुंवारे लड़की लड़कियां रात को इकट्ठे मिलते हैं जहां इनमें परस्पर सहमति होने पर विवाह कर दिया जाता है। ( बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati )
इनमें धार्मिक संघर्ष नहीं होता। ये अपने प्रत्येक कार्य में अपने देवता का स्मरण करते है। गांव में देवड़ी बनाते है जो तांत्रिक प्रक्रिया का केन्द्र होता है ये किसी चिकित्सक की आवश्यकता महसूस नहीं करते बीमारी होने पर देवता से विनती करते हैं एवं जादू टोटकों पर अत्यधिक विश्वास रखते हैं। वर्ष में एक बार देवगुड़ी के पास सामूहिक पूजा का कार्यक्रम रखा जाता है। देवों को बाजार में नगाड़ा उपरा, खुरही बजाते हुए घुमाते हैं।
गांव का मुखिया
गांव का मुखिया “मुक” या गौटिया कहलाता है जो सरकार के लिए लगान वसूलता है। मुरुड की नियुक्ति वंश परम्परागत होती है। वर्ष में एक बार दशहरा में ये लोग पूजा हेतु एवं माल गुजारी दाखिल करने हेतु जगदलपुर आते हैं। ( बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati )
इस प्रकार बस्तर के गोंड जनजाति की सामाजिक संरचना अभाव प्रस्त होने के बावजूद सरल एवं शान्तिप्रिय है, इन्हें आधुनिक विकास की धारा से जोड़ने के लिए शासन द्वारा ध्यान दिए जाने के बावजूद अधिक अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है। शासन की योजनाओं का लाभ सरकारी कर्मचारी एवं बिचौलिए ही उठा ले जाते हैं। इसके पीछे प्रमुख कारण स्वयं गोंड जनजातियों में विकास के प्रति उदासीनता की भावना का होना है।
बस्तर के सुदूर अंचल में आदिवासियों का निवास है जहां शासकीय कर्मचारी निष्ठा के साथ शासन की योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं कर पाते हैं। बस्तर में पदस्थ होने को वे एक सजा की तरह लेते हैं ऐसी मानसिकता में गोंड जनजाति का विकास नहीं हो सकता । ( बस्तर की गोंड जनजाति | Bastar ki Gond Janjati )
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