बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev

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बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev
बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev

नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।

 बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev

बस्तर एक प्राकृतिक सौन्दर्य का क्षेत्र है। इसकी सीमा उत्तर में रायपुर जिला, पूर्व में जयपुर तथा आन्ध्रप्रदेश था। पश्चिम में चांदा जिला तथा भण्डारा जिला (कुछ भाग कांकेर में था) दक्षिण में गोदावरी जिला तथा मद्रास से मिलती है। इसका क्षेत्रफल 13062 वर्गमील था।

चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर 1947 तक बस्तर में काकतीय शासकों का शासन काल रहा ये काकतीय शासक अपने को महाभारत कालीन पांडवों के वशंज बतलाते थे। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

काकतीय वंश का पहला शासक ( अन्नमदेव )

काकतीय वंश का पहला शासक निश्चित रूप से अन्नमदेव था। और अठारहवें शासक राजा रूद्रप्रताप देव थे। यहां राजा रूद्रप्रताप देव तथा 1910 का संघर्ष के बारे में चर्चा की जायेगी।

राजा भैरमदेव की मृत्यु 29 जुलाई 1891 को हुई। राजा रूद्रप्रताप देव का राजतिलक 30 जुलाई 1891 को हुई। इस समय राजा अल्प वयस्क थे, उनकी उम्र केवल सात वर्ष की थी। राजा की अल्पवयस्कता रियासत के लिए एक समस्या थी। अंग्रेजी प्रशासन के लिए सुखद स्थिति थी। अंग्रेजों द्वारा नियुक्त व्यक्ति बस्तर का प्रशासन सम्भालते रहें। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )
कालिन्दर सिंह दलगंजन सिंह के पुत्र, भैरमदेव के चचेरे भाई, एव रूद्रप्रताप देव के चाचा थे ।

राजा भैरमदेव और उनकी बड़ी रानी कालिन्दर सिंह के स्वभाव से प्रभावित होकर 1881 में एक सनद द्वारा रियासत सम्बन्धी सम्पूर्ण प्रशासनिक शक्ति सौंप दी थी।

लाल कालिन्दर सिंह का प्रजा पर उनकी पकड़ भी अधिक थी। लाल कालिन्दर सिंह और रूद्रप्रताप देव में चारित्रिक अन्तर भी बहुत था। लाल कालिन्दर सिंह कहीं भी कभी-भी झुकने के लिए तैयार नहीं थे। रूद्रप्रताप का लालन पालन अंग्रेजों के देख रेख में हुआ था। इसलिए शासन के प्रारंभ में किसी भी मामले में अड़ नहीं सकते थे। लाल कालिन्दर सिंह रूद्रप्रताप देव को हर मामले में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त दीवान के आगे झुकते देख नाराज होते थे। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

कालिन्दर सिंह ने सन् 1910 में अंग्रेजों के विरुद्ध बस्तर में आदिवासी संघर्ष प्रारंभ किया, जो असफलताओं के बावजूद बस्तर इतिहास में कालिन्दर सिंह को महत्वपूर्ण स्थान दिलाने वाला था।

गृहकलह

गृहकलह: राजमाता सुवर्ण कुंवर राजा भैरमदेव की रानी थी, तथा रूद्रप्रताप देव की सौतेली मां थी। राजकार्य सी.पी. चीफ कमिश्नर के द्वारा सम्पन्न होने के कारण राजमाता से कोई सलाह नहीं लिया जाता था। प्रारंभ से राजमाता का स्थान राजकार्य में सलाह महत्वपूर्ण माना जाता था। वह अपने को अंग्रेजी प्रशासन में उपेक्षित महसूस कर रही थी। अंग्रेजी प्रशासन द्वारा नियुक्त दीवान पंड़ा बैजनाथ राजगुरु मित्रनाथ को अपनी उपेक्षा के लिए उत्तरदायी मानती थी। और दोनों को रियासत से बाहर देखना चाहती थी इसलिए 1910 के विद्रोह को उकसाने के कार्य में सुवर्ण कुंवर का महत्वपूर्ण योगदान था। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

राजनैतिक महत्वाकांक्षा

राजनैतिक महत्वाकांक्षा:- लाल कालिन्दर सिंह तो स्वयं संघर्ष के प्रमुख नेता थे। ये महत्वाकांक्षी व्यक्ति भी थे, जब राजा रूद्रप्रताप देव विद्या अध्ययन के लिए रियासत से बाहर थे, तब लाल की प्रतिष्ठा और बढ़ी, वे बस्तर के दीवान रह चुके थे। उनकी प्रबल महत्वाकांक्षा फिर से रियासत में महत्वपूर्ण पद चाहते थे। वे अंग्रेजी शासन के प्रभाव तथा राजा रूद्रप्रताप देव के अंग्रेजी दुल-मुल नीति से घृणा करते थे। उनका 1910 के आदिवासी संघर्ष में आदिवासियों को विद्रोह के लिए उकसाने में महत्वपूर्ण हाथ था। अंग्रेजी प्रशासन का प्रभाव राजा रूद्रप्रताप देव के लिए राजगद्दी कभी भी फूलों की सेज नहीं रही. उत्तराधिकार से प्रतिबंधित रहने के कारण रूद्रप्रताप देव को अपने दीवान पण्ड़ा बैजनाथ के सलाह के अनुसार ही कार्य करना पड़ता था।

आदिवासी असंतोष

आदिवासी असंतोष:- आदिवासियों के असंतोष का सबसे प्रमुख कारण दीवान द्वारा वनों को अधिक से अधिक आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया। वन क्षेत्र के गांवों के लोगों को मुआवजा देकर अन्यत्र बस जाने की व्यवस्था की गई थी। आदिवासी इसे अपने प्रतिष्ठा के खिलाफ मानते थे। किसानों से बेगार करवाया जाता था। आदिवासी अपने कष्टों, पीड़ाओं, उत्पीड़न के लिए रूद्रप्रताप देव को उत्तरदायी समझते थे और भोले-भाले आदिवासियों के मन में राजा के प्रति तरह तरह की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न हो रही थीं। आदिवासियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि राजा रूद्रप्रताप देव का व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं था। इसलिए संघर्ष के प्रारंभिक दौर में ही निराश राजा ने आत्महत्या करने को मानसिक स्थिति बना ली थी।

1910 का विद्रोह

1910 का विद्रोह:- 7 जनवरी 1908 में रूद्रप्रताप देव का राज्याभिषेक समारोह हुआ, फरवरी 1910 में बस्तर में व्यापक संघर्ष प्रारंभ हो गया था। रियासत में राजनैतिक शून्यता व्याप्त थी, इसे काफी हद तक लाल कालिन्दर सिंह पूर्ण कर रहे थे। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

20वीं शताब्दी के प्रारंभिक 10 वर्षों का बस्तर के इतिहास में विशेष महत्व है। यह दशाब्दी एक सशक्त संघर्ष का पृष्ठभूमि बना। राजा रूद्रप्रताप देव को वस्तर के आदिवासियों के व्यापक संघर्ष का सामना करना पड़ा। प्रतिबंधित राज्याधिकार ने रूद्रप्रताप देव को प्रशासनिक मामलों में सुस्त बना दिया था। दीवान ही राजकार्य के कर्ता-धर्ता थे। ऐसी स्थिति में व्यापक संघर्ष के लिए दीवान को हो उत्तरादायित्व माना जा सकता था। कोण्डागांव से चित्तलनार तक उत्तर से दक्षिण लगभग 148 कि.मी. पूर्व से पश्चिम लगभग 100 कि.मी. क्षेत्र तक यह संघर्ष फैला प्रशासन के लिए यह संघर्ष अप्रत्याशित था। आदिवासियों की तैयारी महीनों से जारी थी। शासकीय गुप्तचर व्यवस्था इसकी सुराग तक नहीं पा सकी।

13 जनवरी से 5 फरवरी 1910 तक पोलिटिकल एजेन्ट छत्तीसगढ़ फ्यूडेटरी स्टेटस श्री दोघे ने केशकाल से लेकर भोपाल पटनम् तक की यात्रा की। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )
मगर उन्हें आदिवासियों के मन स्थिति का ज्ञान नहीं हो पाया। उन्हें सर्वत्र शांति दिखाई दी वास्तव में यह शांति झंझावत से पूर्ण की स्तब्धता थी। 1910 ई. के इस संघर्ष में बस्तर के प्रायः सभी जनजातियों ने भाग लिया। नेतानार इलाके के परजा जनजाति का योगदान विशेष उल्लेखनीय था। संघर्ष के लिए तैयार रहने की सूचना आदिवासी संकेत माध्यम के द्वारा भेजते ये एक तर एक लाल मिर्च मिट्टी का टुकड़ा धनुष भाला की अनुकृति सांकेतिक संदेश था।

संघर्ष का प्रारंभ

संघर्ष का प्रारंभ 2 फरवरी 1910 को पोलिटिकल एजेन्ट रायपुर और कमिश्नर सी.पी. को तार द्वारा दक्षिण बस्तर में विद्रोह का समाचार दिया और सहायता का अनुरोध किया गया। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

2 फरवरी 1910 को संघर्ष प्रारंभ हुआ यह दिन प्रति दिन जैसे जैसे तीव्र होता जा रहा था वैसे वैसे राजा रूद्रप्रताप देव का मनोबल गिरता जा रहा था। निराश के इन दिनों में उन पर व्यक्तिगत जीवन में एक नई खुशी आई। 11 फरवरी 1908 को राजा रूद्रप्रताप देव एक पुरी के पिता हुए यही पुरी बाद में बस्तर रियासत की महारानी प्रफुल्ल कुमारी हुई।

विद्रोह का दमन

विद्रोह का दमन 7 फरवरी 1910 को राजा रूद्रप्रताप देव के तार से कमिश्नर सी.पी. को बस्तर विद्रोह की सूचना मिली, पंडा, बैजनाथ अपनी जान बचाने के लिए चांदा की ओर भागे। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

विद्रोह को दबाने के लिए लोग के 200 पुलिस मद्रास प्रेसीडेन्सी से 150 पुलिस पंजाब बटालियन से 170 सैनिक विद्रोह को शांत करने के लिए 75 दिन तक वस्तर में रहे. बस्तरवासियों के लिए यह दिन बड़े कष्टपूर्ण थे।

अमेड़ी टुकड़ी कार से बस्तर पहुंची और खड़क घाट में उनका पहला संघर्ष हुआ, जिसमें पांच आदिवासी मारे गये 25 फरवरी को कालिन्दरसिंह और अन्य व्यक्ति गिरफ्तार हुए, इसके बाद र शिविर को लक्ष्य बनाया गया। 511 आदिवासी यहीं से पकड़े गये सभी को दण्डित करके निष्कासित करके विद्रोह को समाप्त कर दिया गया। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

विद्रोह का परिणाम

विद्रोह का परिणाम- 1910 का संघर्ष असफल रहा मगर असफलता के बावजूद इसके दूरगामी परिणाम निकले।

(1) पंड़ा बैजनाथ दोवान के पद से हटा दिये गये।
(2) राजा रूद्रप्रताप देव ने ब्रिटिश सरकार के संबंध में अपने स्वभाव परिवर्तन करने का प्रयास किया।
(3) प्रशासन की वन नीति में परिवर्तन हुआ नये वन क्षेत्र बनाने के पूर्व जांच पड़ताल किया जाने लगा।
(4)बलिन्दर सिंह को उत्तराधिकारी से किया गया तथा रिवासत में निष्कासित किया गया था।
(5)ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक मात्रा में स्कूल को व्यवस्था की गई। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )
(6) प्रशासन को चुस्त एवं सरल बनाया गया था। आदि 1910 के लड़ाई के परिणाम निकले।

ब्रिटिश सरकार 1910 के विद्रोह को दबाने के पश्चात् राजा रूद्रप्रताप देव को अपने स्वभाव में और परिवर्तन करने को कहा था। यदि ऐसा संभव न हो सका तो सरकार बस्तर की पूरी शासन व्यवस्था अपने हाथों में ले लेने की चेतावनी दी थी। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

राजा ने अपना व्यवहार नहीं बदला, और न व्यवहार बदल सकता था। अपने अधिकारों के प्रति अब जागरूक हो गया था। वह ब्रिटिश सरकार से यह स्पष्ट कराना चाहता था कि “शक्ति का केन्द्र कौन है” राजा या दीवान इन्हीं प्रश्नों में उलझा रहता था। अपने अधिकारों की मांग ब्रिटिश सरकार से बराबर करता रहता था। ब्रिटिश सरकार के द्वारा आमंत्रण व टीका टिप्पणी से बचना चाहता था।

प्रशासन के सामने अब दो ही रास्ते रह गये थे, एक विकल्प राजा को पूरी शक्ति दे दी जाए दूसरा विकल्प रियासत को सीधे ब्रिटिश सरकारी प्रशासन में लिया जाये। पहला विकल्प संभव नहीं था और दूसरी स्थिति सुधरने की संभावना नहीं थी। राजा को पूर्ण शक्ति नहीं दी जा सकती थी। उनके अधिकारों पर लगाये गये प्रतिबंध हटाने के लिए चीफ कमिश्नर तैयार नहीं थे।

इसी प्रकार की प्रतिकूल स्थिति में कार्य करते हुए राजा रूद्रप्रताप का देहावसान आकस्मिक 18 रूप से 16 नवम्बर 1921 बुधवार दिन रात्रि 8 बजे हो गया। ( बस्तर के राजा रुद्रप्रताप देव | Bastar ke Raja Rudrapratap dev )

निष्कर्ष

निष्कर्ष- बस्तर रियासत का अठारहवें शासक रूद्रप्रताप देव राजनैतिक मामले में बड़ा दुर्भाग्यशाली रहा। जीवन के शुरू से लेकर अंत तक अंग्रेजी दबाव का सामना करना पड़ा। पुत्र का अभाव हमेशा पीड़ित करता रहा। 1910 के संघर्ष ने उसके व्यक्तित्व पर लांछन लगा दिये, जिसे मिटा पाना कठिन था। लाल कालिन्दर सिंह और रानी सुवर्ण कुंवर के निष्कासन से राजपरिवार राजा केंद्रताप से असंतुष्ट था। कुल मिलाकर उनको स्थिति दयनीय थी।

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Source : Internet

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