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बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh
बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh

नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।

बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh 

बस्तर में आदिवासी विद्रोहों को एक लंबी परम्परा रही है। बस्तर के आदिवासी ऊपर से शान्त एवं सरल प्रकृति के हैं किन्तु उनके विद्रोहों का गहराई से अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि आदिवासी अत्यंत संवेदनशील प्रजाति हैं और जहां उनकी अस्मिता को ठेस पहुंची वहां वह बहुत दिनों तक तो सहन करता है किन्तु जिस प्रकार किसी बर्तन में क्षमता से अधिक भाप एकत्रित हो जाये और उसे बाहर निकलने का मौका न मिले तो वह भाष विस्फोटक रूप धारण कर लेती है।

उसी प्रकार आदिवासियों को निरीह प्राणी समझकर उनका शोषण और अत्याचार चरम सीमा पर पहुंचने पर उन्होंने समय-समय पर विद्रोह का बिगुल बजाया है। बस्तर के आदिवासियों के विद्रोहों की समीक्षा करते समय यह तथ्य भी ध्यान में विद्रोहों रखा जाना चाहिए कि बस्तर की जनजातियों के विश्वासों में देवी देवताओं राजाओं तथा मृतात्माओं का विशिष्ठ स्थान है। उदाहरण के लिए बस्तर नरेश पीढ़ियों से दंतेश्वरी देवी के पुजारी माने गये हैं, जिससे उनमें देवत्व का गुण आरोपित करने की परम्परा है। ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

बस्तर आदिवासियों के देवता तथा राजा

1.ये जनजातियाँ अपने देवता तथा राजा के प्रति अगाध श्रद्धा रखती हैं और उनके एक ही संकेत पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार रहते हैं। सन् 1776 के विद्रोह में हल्बा आदिवासियों द्वारा अजमेर सिंह का साथ देना संवत 1836 के बड़े डोंगर के शिलालेखों से प्रमाणित है। इसी तरह 1910 में राजा रूद्रदेव प्रताप पर अंग्रेजी शासन द्वारा विपत्तियाँ डालने पर अबूझमाड़िया जन जाति ने उसके पक्ष में अग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। 1966 के राजा विद्रोह का कारण भी तत्कालीन राजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव के प्रति आदिवासियों का भक्ति भाव ही था।

2.बस्तर में आदिवासियों के विद्रोहों को व्यापक सन्दर्भों में देखें तो दुनिया का इतिहास बताता है कि चाहे हिन्दुस्तान हो या अमेरिका जनजातियों का शोषण प्रत्येक स्थान पर होता आया है और जहाँ-जहाँ इस शोषण के खिलाफ आवाज बुलन्द की गई वहां वहां उसे कुचलने के प्रयास किये गये हैं। अमेरिका में रेड इंडियन जन जातियों को यूरोप से गई श्वेत प्रजातियों द्वारा कुचला गया था। आफ्रीका से गुलाम बनाकर लाये गये नियो लोगों का मानवाधिकारों के लिए संघर्ष अथवा भारत में ही बिहार के संथाल परगना क्षेत्र में बिरसा मुण्डा का विद्रोह इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं। ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

जैसे जैसे शोषण के विरुद्ध लड़ाई तेज हुई वैसे वैसे अत्याचार भी बढ़े। नीमो का पाल राब्सन को देश निकाला दे दिया गया और अभी 24 वर्ष पूर्व ही मार्टिन लूथर किंग की हत्या कर दी गई। बस्तर में यद्यपि सामन्तवाद, अंध विश्वास और व्यापक अशिक्षा के कारण जन जातियों के विद्रोहों की परम्परा किसी एक श्रृंखला की कड़ी नहीं है और उसमें कई अन्तर्विरोध भी दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु निश्चित रूप से ये सभी विद्रोह सकारण थे। कारण कहीं राजा का अपमान कहीं विदेशियों द्वारा परम्परा से प्राप्त उनकी भूमि का हड़पा जाना अथवा  कहीं उनका मनोरंजन के साधन के रूप में खिलवाड़ था। मुख्य कारण यही था कि जब कभी भी आदिवासी मन की अस्मिता को ठेस पहुंची तब उसने विद्रोह का झंडा उठाया।

3. बस्तर में आदिवासी विद्रोहों की परम्परा की प्रारंभिक कड़ी के रूप में राजा दरियाव देव (शासन काल 1774 से 1800 ईसवी सन्) के समय हलबा जाति के आदिवासियों द्वारा के उल्लेख बड़े डोंगर के शिलालेख सन् 1836 तथा आर व्ही रसेह तथा राय बहादुर हीरालाल की पुस्तक ट्रायल्स एंड कास्ट्स के खंड 4 में है। यद्यपि इस विद्रोह को कुचल दिया गया और विद्रोह में भाग लेने वालों में से अनेक को इन्द्रावती नदी में फेंक दिया गया और कई को आंखें निकलवा दी गई किन्तु उल्लेखनीय तथ्य है कि बड़े डोंगर के एक शिलालेख के अध्ययन से यह तथ्य सामने आया है कि विद्रोही आदिवासियों द्वारा दंतेश्वरी माई के सम्मुख देवी शक्ति के प्रति विश्वास तथा राजा के साथ मित्रभाव के साथ रहने की कसम खाई गई थी। ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

1774 में हुए इस विद्रोह के कारण का खुलासा श्री प्रवीरचन्द्र भंजदेव की पुस्तक ‘लोहडीगुडा तरंगिनी’ में इस प्रकार किया गया है कि कांकेर राज्य को राज कुमारी और राजा दलपत देव की पटरानी श्रीमती विष्णु कुंवर देवी के पुत्र अजमेर सिंह तथा राजा की दूसरी पत्नी के पुत्र दरियावदेव सिंह के मध्य बस्तर राज्य के राज्याधिकार के संघर्ष में हल्बा लोगों ने राजा अजमेर सिंह का साथ दिया और प्रारंभ में अजमेर सिंह की विजय भी हुई। किन्तु दो वर्षों के बाद निकटवर्ती जयपुर राज्य की सहायता से दरयाव सिंह विजयी रहे। इस प्रकार अजमेर सिंह के समर्थन में हलबा आदिवासियों का प्रथम विद्रोह असफल रहा। यद्यपि यह दो सामन्तों के मध्य संघर्ष प्रतीत होती है किन्तु हत्वा लोगों द्वारा अजमेर सिंह को पशु क्यों लिया गया इस संबंध में शोध होना चाहिए।

4. 1857 का विद्रोह- सम्पूर्ण भारत वर्ष के समान क्रांति की ज्वालाएँ 1857 में बस्तर की जनजातियों के हृदय में भी बंधक रही थी और अंग्रेजी शासन के विरुद्ध नफरत की भावना यहां भरी हुई थी जो परलकोट और भोपाल पटनम के गोंड जमींदारों द्वारा अंग्रेजी सत्ता के विरोध के रूप में सामने आई। छत्तीसगढ़ में स्वाधीनता आंदोलन नामक शोध प्रबंध में कहा गया है। कि बस्तर वासियों में विद्रोह की प्रथम चिंगारी 1857 में उस समय दिखी जब प्रमुख मार्ग से जा रहे अग्रेजी कोष को गोड़ों ने लूट लिया। ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

भोपालपटनम के जमींदार यादव राव ने एक ऐसी सेना संगठित की जो अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गई किन्तु दुर्भाग्यवश अंग्रेजों ने उनसे संधि के बहाने बुलाकर बंदी बना लिया। विद्रोह को नई दिशा मानमपल्ली व अरमपल्ली जमींदारों ने कहेलों की सहायता से सेना गठित कर इन्होंने कुछ अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी, किन्तु मानमपत्ती के जमींदार बाबूराव 21 अक्टूबर 1858 को तथा अरमपल्ली के जमींदार व्येकटराव को अप्रैल 1867 में पकड़ लिया गया। 1857 की क्रांति की छोटी चिंगारी के रूप में यह विद्रोह बस्तर की जागरूकता का हो परिचय है। साथ ही यह तथ्य भी स्पष्ट है कि बस्तर में अंग्रेजों के शोषण बढ़ने के कारण फूटी यह चिंगारी उचित संगठन और सामंतवादी नेतृत्व के कारण अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सकी।

बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh
बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh

5. 1876 का विद्रोह – 1876 का विद्रोह भी अंग्रेजों की कुटिल नीति के कारण उनकी कठपुलों के रूप में स्थापित गोपीनाथ कपड़दार के प्रति जन आक्रोश का परिणाम था जिसमें आदिवासियों ने अदभुत संगठन क्षमता का परिचय देते हुए लगभग 4 माह तक जगदलपुर शहर को घेरे रखा गांव गांव में बस्तर की जनता को युद्ध में शामिल होने का संदेश एक तार में मिर्ची भेलवा और डाल में बांध कर भेजा गया। लगभग दस हजार मुरिया और भतरा लोगों ने 4 माह तक शहर को घेरे रखा और राजमहल में रसद समाप्ति पर ही था किन्तु कपटी दीवान ने यहां भी एक जयसिंह ढूंढ निकाला और बाद में महरा जो आदिवासियों का विश्वस्त था की सहायता से पत्र डाक खाने पहुंचाया और अंग्रेज सेना आ पहुंची जिससे विद्रोह असफल हो गया। ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

6. 1910 का विद्रोह – 1910 के विद्रोह के सम्बन्ध में विवरण में न जाते हुए केवल इतना चाहते हैं कि यह विद्रोह भी अंग्रेजों की कुटिलता के आगे आदिवासियों के सहज विश्वासी मन की पराजय थी। कर्नल गेयर ने आदिवासियों को माटी किरिया लेने का विश्वास दिलाकर छला अन्यथा 1910 के विद्रोह का इतिहास अलग ढंग से लिखा जाता। उल्लेखनीय है कि माटी किरिया का अर्थ है अपनी मिट्टी की कसम लेकर वचन निभाना जलियांवाला बाग से भी क्रूर निर्मम अमानवीय और लोभ हर्षक हत्याकांड घटित हुआ।

जहां जलियांवाला बाग भारत के स्वाधीनता संग्राम की एक जीवंत मिसाल के रूप में जाना जाता है जबकि छत्तीसगढ़ को हम के बाहर 1910 के बस्तर विद्रोह को प्रायः लोग जानते ही नहीं हैं। इसका कारण यही है कि इस विद्रोह में मरने वाले अधिकांश आदिवासी थे। और आज भी उनके प्राणों के मूल्य बहुत सस्ता आंकते हैं। निश्चित रूप से जब इतिहास के पुनर्लेखन की चर्चा चल रही है तब बस्तर के 1910 के विद्रोह को भारत वर्ष के इतिहास में उसका उचित स्थान मिलना चाहिए।

7. विद्रोह के कारणों का विश्लेषण– सी.पी. एवं बरार के चीफ कमिश्नर ने अपने प्रतिवेदन दिनांक 29-3-1910 में विद्रोह के कारणों पर प्रकाश डाले जिसकी पुष्टि बाद में तत्कालीन एडमिनिस्ट्रेटर श्री डब्ल्यू श्री. पिरसन ने अपनी पुस्तक मारिया गोन्डस ऑफ बस्तर में की जो निम्नानुसार थे । ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

1. आदिवासियों का राजा से प्रत्यक्ष भेंट न हो पाना ।

2. आदिवासी जिन वनों पर आश्रित थे उन्हें आरक्षित वन घोषित करने के कारण उनके

जीवन-यापन में कठिनाइयां।

3. रियासत के अधिकारियों द्वारा आदिवासियों से दुर्व्यवहार, बेगार एवं मुफ्त में खाने-पीने का सामान लेना ।

4. बाहर से आये व्यापारियों द्वारा व्यापार के माध्यम से लूट।

5. शराब की ठेकेदारी पद्धति लागू करना एवं आदिवासियों द्वारा शराब बनाने पर पाबन्दी ।

6. माफी भूमि का अपहरण।

इस प्रकार 1774 से 1910 तक के आदिवासी विद्रोहों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट है कि

(1) आदिवासी को मूक पशु समझ अत्याचार और शोषण की पराकाष्ठा पर पहुंचना ।

(2) आदिवासियों का अपने राजा में देवत्व होने के विश्वास के कारण उसके ऊपर आये संकट में उसका साथ देना।

(3) आदिवासी विश्वासों एवं परम्पराओं में हस्तक्षेप से आदिवासी मन का गहरे तक आहत होना।

(4) आदिवासियों के जीवन आधार समान वनों पर अंग्रेज सरकार द्वारा कब्जा आदिवासी विद्रोह के प्रमुख कारण रहे।

(5) आदिवासियों को अस्मिता को ठेस पहुंचाना। यद्यपि इनमें से अधिकांश विद्रोह असफल रहे किन्तु इन्होंने तत्कालीन राजनीति और समाज की एक नई दिशा दी। विद्रोह की असफलता का प्रमुख कारण तत्कालीन अंग्रेज शासकों या राजाओं की या फूट डालने की नीति रही जिसके उत्तर आदिवासी सरल एवं सच्चे निष्कपटी तथा सहज विश्वासी थे। जिसके कारण मात खा गए। बस्तर में वर्तमान में पनप रहे आदिवासी असंतोष एवं विद्रोह की भावना को पूर्व में हुए विद्रोहों के कारणों के विश्लेषण का मनन करके ही समझा जा सकता है एवं सही परिप्रेक्ष्य में उसके आधार पर निराकरण के ठोस प्रयास करने पर ही समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है।

बस्तर के आदिवासी और प्रशासन 

जब तक शासन और प्रशासन आदिवासी मन को नहीं समझेगा तब तक यहाँ आदिवासी जन-जीवन में व्याप्त असंतोष तरह-तरह के संगठित और असंगठित विद्रोहों के रूप में प्रगट होता रहेगा। यहां यह बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि आजादी के बाद विभिन्न विकास योजनाओं के बावजूद विकास के लाभ आम आदिवासी तक नहीं पहुंचे हैं। बीच में बिचोलियों, ठेकेदारों, भ्रष्ट शासकीय अधिकारियों ने विकास की बहती गंगा में अपने हाथ धो लिए है।

ऐसा नहीं है कि हिन्दुस्तान में दूसरे स्थानों पर भ्रष्टाचार एवं शोषण नहीं है किन्तु यहां जनजातियों में अशिक्षा एवं जागरूकता के अभाव के कारण यह चरम सीमा पर पहुंच गया है। तथा जो कुछ जागृति आई है वह गांव के पंच-सरपंच माझी मुखिया तक ही सीमित रह गई है किन्तु अनुभव यही बताता है कि यह वर्ग भी अपनी जागृति अन्तिम आदमी तक पहुंचाने के बजाए शोषण तंत्र का पुर्जा बन गया। इस प्रकार गांव-गांव में जन जागृति के व्यापक अभियान के बिना आदिवासी असंतोष को सही दिशा नहीं दी जा सकेगी। ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

यहां यह स्पष्ट करना भी उचित होगा कि शासकीय मशीनरी के भरोसे इस प्रकार का जन जागरण आंदोलन चलाया नहीं जा सकता क्योंकि प्रशासन निचले स्तर पर आत्म केन्द्रित और उदासीन है और लोगों का इसमें विश्वास भी नहीं है। वर्तमान में बाहर से आये कुछ लोग हिंसा के रास्ते पर जन जागरण एवं आदिवासी की समस्याओं का हल करने का दावा करते हैं किन्तु आम आदिवासी और उनके बीच के रिश्ते अभी पूर्णतः स्पष्ट नहीं हुए हैं।

वहां अहोभाव और आकर्षण के साथ आतंक विद्यमान है और आतंक तथा हथियार किसी जन संगठन का स्थाई आधार नहीं बन सकता। उसके लिये सहभागिता की डोर आवश्यक है। यह कार्य राजनीतिक दल या मिशनरी भावना से कार्य करने वाले जन संगठन ही कर सकते हैं। देखना यह है कि इतिहास की सही समझ के आधार पर जन जातियों के मध्य से ही स्थानीय नेतृत्व को विकसित कर अहिंसक जन संगठन के माध्यम से व्यापक जन जागरण के लिए पहल कौन करता है ? ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

बस्तर में सत्ता के विकेन्द्रीकरण 

बस्तर में सत्ता के विकेन्द्रीकरण की एक लंबी और स्वस्थ परम्परा रही है। यद्यपि यहां राजतंत्र था किन्तु गांवों के स्थानीय प्रशासन पर राजा की पकड़ उस तरह मजबूत नहीं थी जिस तरह भारत के अन्य राजतंत्रों में थी। यहां ग्राम पंचायतों, मांझी, मुखिया और चालकी के माध्यम से एक ऐसी व्यवस्था विद्यमान थी जिसमें गांव की समस्याएँ ग्राम में ही निपट जाती थीं। अंग्रेज शासकों ने अपने निहित स्वार्थों के लिए इस व्यवस्था को तोड़ने मरोड़ने का प्रयास किया जिसके परिणाम स्वरूप स्वशासन व्यवस्था के भंग होते हो आदिवासी असंतोष विद्रोह के रूप में सामने आया।

इस तथ्य को मद्देनजर रखते हुए बस्तर में ग्राम पंचायतों को वास्तविक स्व-शासन के अधिकार प्रदान करने के लिए पहल आवश्यक है। ( बस्तर के आदिवासी विद्रोह | Bastar ke Adiwasi Vidroh Bastar ke janjatiyo ka vidroh )

आदिवासी संस्कृति में हस्तक्षेप न करने का मिथक बहुत वर्षों तक बस्तर में छाया रहा। अन्ततः यह बात समझ में आई कि विकास के आधुनिक युग में संस्कृति में पूर्णतः अहस्तक्षेप की नीति बस्तर को एक विशाल अजायबघर बना देगी तब अंधाधुंध आधुनिकता का दौर प्रारंभ हुआ। आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासियों को अपनी संस्कृति और परम्परा के प्रति संवेदनशीलता को देखते हुए जो बातें विज्ञान सम्मत न हो उनके लिए धीरे-धीरे मन बदलने के लिये एक लंबा अभियान चलाया जाए किन्तु आधुनिकता थोपने के प्रयास न किये जाएं।

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Rajveer Singh
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