
नमस्ते विद्यार्थीओ आज हम पढ़ेंगे बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar के बारे में जो की छत्तीसगढ़ के सभी सरकारी परीक्षाओ में अक्सर पूछ लिया जाता है , लेकिन यह खासकर के CGPSC PRE और CGPSC Mains और Interview पूछा जाता है, तो आप इसे बिलकुल ध्यान से पढियेगा और हो सके तो इसका नोट्स भी बना लीजियेगा ।
बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar
दण्डकारण्य, महाकांतारण्य, चक्रकूट, चक्रकोट, भ्रमरकूट, भ्रमर कोट्य तथा बस्तर के विविध नामों से अभिहित छत्तीसगढ़ का यह क्षेत्र अपने अंग में अनेक जीवन्त राजनैतिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक निधियों को समेटे हुए है। अपनी अतीत कुल स्मृतियों की सुगन्ध से जिज्ञासुओं को यह ऐसा आकर्षित करता है कि लोग आश्चर्यान्वित होकर बस्तर के प्राच्य गौरव को जानने को उत्सुक हो उठता है। उसके मध्य युग के मध्यान्ह को जानना चाहता है, उसके आधुनिक स्वरूप को जानने हेतु छपपटाने लगता है।
आदि मानव की क्रीड़ा भूमि से सुयुक्त आदिम प्रजातियों की सांस्कृतिक धरोहरों की भूमि, पुरातन महर्षियों के आश्रमों से जुड़ी हुई गौरवमयी भूमि, राक्षसी शक्तियों का ऊर्जा स्थल, मातृ शक्ति पीठों का अनुपम नैसर्गिक क्षेत्र, शैव मतावलम्बियों का प्रभावी क्षेत्र, तांत्रिकों एवं मांत्रिकों का स्वर्ग यह बस्तर आचरणों के वैविध्य का सुन्दर परिदर्शन है। ऐसे वातावरण में भी राजनीतिक गतिशीलता का तो खाली प्रकटन अपने आप में एक आश्चर्यजनक संयोग है। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
महर्षि बाल्मीकि की रामायण का दण्डकारण्य गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस का दण्डक वन अगस्त्य एवं सुतीक्ष्य आदि ऋषियों का पावन स्थल रहा है। भगवान राम ने अपने वनवास काल में यहाँ निवास करके अगस्त्य ऋषि ने भगवान राम से कहा था कि-
“दंडक वन पुनीत प्रभु करहू। उम शाप मुनिवर कर हरहू।”
एक अन्य कहानी द्वारा, दंडकारण्य को गौतम ऋषि के श्राप से राक्षसी भूमि में परिवर्तित हो जाने की पुष्टि करते हैं। दण्डक वन में एक बार भयानक दुर्भिक्ष पड़ा तब यहाँ के ऋषि मुनिगण गौतम ऋषि के पंचवटी क्षेत्र में शरणागत हुए। गौतम ऋषि ने उनका भरण पोषण किया। दीर्घकाल गुजरने के पश्चात ऋषि मुनिगण अपने पूर्व स्थल दंडकारण्य जाने को व्यम हो उठे। परन्तु ऋषि से जाने की बात कोई नहीं कहता था। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
एक दिन उन्होंने एक माया गौ का निर्माण किया तथा महर्षि गौतम को भेंट कर दी परन्तु जैसे ही गाय महर्षि के हाथ में पहुंची वह मर गयी। तब दंडकारण्य के ऋषियों ने गौतम को गौ हत्यारा कहकर त्याग दिया। वे स्वधाम दंडकारण्य चले गए। गौतम ने योग बल से सारा रहस्य जान लिया तब उन्होंने श्राप दिया कि दंडकारण्य में राक्षसों का आवास बन जाए दीर्घकाल तक दण्डक वन राक्षसों का आवास स्थल बना रहा। भगवान राम के आगमन के बाद दण्डक वन श्राप मुक्त हो गया।
बस्तर के विभिन्न शासक
बस्तर जब महाकांतार था तब यहां व्याघ्रराज नामक राजा राज्य करता था। प्रयाग प्रशस्ति में हरिषेण ने इसका उल्लेख करते हुए कहा है कि गुप्त कालीन शासक समुद्रगुप्त ने व्याघ्रराज को हरा दिया था। बस्तर के आरण्यांचल में और भी आरविक राज्य रहे होंगे जिन्हें समुद्रगुप्त हरा कर अपने साथ ले गया था। इस प्रकार बस्तर ने गुप्तयुगीन स्वर्णिम वैभव को भी देखा है परन्तु सत्य तो यही है कि यह साम्राज्यवादी राजतंत्री चालों का शिकार बन गया था। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
बस्तर जब चक्रकोट या चक्रकूट या भ्रमरकोट्य कहलाता था तब यहाँ छिदक वंशी नाग लोगों का शासन था। छिंदक नाग शासकों के इस क्षेत्र में अनेक लेख एवं ताम्रपत्र प्राप्त हुए।
चक्रकोट एवं भ्रमरवद्र नामी बस्तर में कभी गंगवंशी शासन था। कल्चुरी संवत 890 (ई.सन् 1138) में पृथ्वी देव (रतनपुर का शासक) के सेनापति नागपाल ने इस क्षेत्र के मचका सिहावा, भ्रमरवद्र, कांतार, कांढाडोंगर, काकरय (कांकेर, को जीत लिया था तथा चक्रकोट को विनष्ट कर दिया था। तब गंगवंशी राजा अनंत घोडगंग समुद्र पार कर भाग गया था। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
पंडित केदारनाथ ठाकुर ने बस्तर भूषण पंथ में गंगवंशी राजकुमारों के बस्तर क्षेत्र के वारसूर में आगमन की एक अच्छी कहानी प्रस्तुत की है। उनके अनुसार जगन्नाथपुरी के अर्थात् उड़ीसा के एक गंगवंशी राजा के 6 वैध तथा 1 रखेल का पुत्र था। परन्तु राजा ने रखेल के पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। तब सभी और सपुत्र देश छोड़कर अन्यत्र चले गए। उनमें से एक बस्तर के बारसूर में बस गया तथा उसने वहीं गंगवंशी राजवंश को संस्थापित किया।
गंगलूर नामक स्थान आज भी यहाँ गंगवंशी शासकों की उपस्थिति का आभास कराता है। लेकिन जब गंगराजकुमार यहां आए तो यहाँ की राजनैतिक स्थिति कैसी थी। पंडित केदारनाथ ठाकुर का मत है कि “जिस समय गंगवंशी राजा राज्य करते थे तब बस्तर में आठ-आठ, दस-दस कोश में एक-एक राजा राज्य करते थे जैसे- भैरमगढ़, परतापगढ़, कटेकल्यान, कुंवाकोंडा, छीगढ़, हमीरगढ़ किलेपाल केशलूर आदि। इससे स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि यहां न ही कोई सुदृढ़ केन्द्रीय सत्ता थी और न ही उत्तर की शक्तिशाली राजतन्त्री शक्तियां यहां कोई रुचि लेती थी । ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
बस्तर नलवंशी शासकों का भी अल्पकालीक प्रभाव क्षेत्र रहा है। भोपाल के पुरातत्वश श्री वी.एल. नागाइच के अनुसार यहां चौथी पांचवी सदी में नल वंशियों का शासन रहा है। इसीलिए पोटगढ़ एवं केसरीबेढ़ा में नल वंश के दो लेख प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त बस्तर के एडेंगा नामक स्थान में एक स्वर्ण सिक्का भी नल वंश का प्राप्त हुआ है।
बस्तर अनेक शासकों की क्रीड़ा भूमि रहा है। यहां वाकाटक शासकों का भी आधिपत्य था। विन्ध्यशक्ति (वाकाटक नरेश) के बाद उसका पुत्र प्रवरसेन शासक हुआ जिसने बुन्देलखण्ड से लेकर हैदराबाद राज्य तक अपने प्रदेशों का विस्तार किया था। यह काल ईसवी सन् 300ई. से 800 ई. के बीच का रहा होगा। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
चालुक्य शासकों के शासकों का यद्यपि यहाँ नाम प्राप्त नहीं होता तथापि यह क्षेत्र अवश्य हो उनका प्रभावी क्षेत्र रहा होगा। इसीलिए चालुक्य कुल देवी दंतेश्वरी की प्रतिष्ठा बस्तर के काफी अन्दर के क्षेत्र में है। वैसे पुलिकेशिन द्वितीय का नर्मदा के तट पर हर्ष से युद्ध हुआ था जिसमें नर्मदा नदी को दोनों की सीमा रेखा मान लिया गया था। आंध्रप्रदेश एवं महाराष्ट्र गुजरात क्षेत्र तो उनके प्रभाव क्षेत्र में पहिले से ही थे। उनके राज्य की संकल्पना 6 वीं सदी से 8वीं सदी के बीच यहां रही होगी।
जरनल आफ मध्यप्रदेश (इतिहास परिषद) 1990 के एक लेख में आशालता झज्ज ने लिखा है कि यहां काकतीय वंश के पूर्व गोड़वंशीय, गंगवंशीय, नलवंशीय एवं सोमवंशीय राजाओं का शासन रहा है। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
भानुदेव का काकेर लेख प्रसिद्ध है इनसे प्रतीत होता है कि प्रारम्भिक तीन राजाओं सिहराज, बस्तर का राजनैतिक अनुशीलन 75 बाघराज (व्याघ्रराज) तथा वोपदेव के बाद कांकेर के सोमवंश की तौन शाखायें हो गई थीं जिसमें एक का उत्तराधिकारी कर्णराज दूसरे में सोमराज पम्पराज एवं बोपदेव तथा तीसरे में कृष्ण जैतराज सोमचंद्र तथा भानुदेव का उल्लेख है।
खिलजी साम्राज्यवाद की प्रताड़ना को बस्तर ने भी झेला था क्योंकि अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफूर खुसरो खां, मुस्तफा खा तथा फरोज खां ने बस्तर में डेरा डाल कर प्रतापरूद्र देव को पकड़ने की कोशिश की। प्रतापरूद्र देव का शासन बस्तर के एक बड़े क्षेत्र में अवश्य ही रहा होगा। प्रारम्भ में प्रतापरूद्र देव के मंत्री युगन्धर ने अलाउद्दीन के सेनापतियों को चकमा दिया परन्तु अन्ततः प्रतापरूद्र देव को वे पकड़कर दिल्ली ले गए। तब युगन्धर एवं अन्य मंत्री एवं अधिकारी बहुत सा धन लेकर दिल्ली गए एवं राजा को वापस ले आए। बस्तर की विजय अलाउद्दीन की सोची समझी योजनानुसार नहीं थी।
अर्जुन होता ने बस्तर विजय नामक उडिया भाषा की पुस्तक में पटना के एक राजा द्वारा बस्तर की विजय का मनोरंजक विवरण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार पटना के राजा वत्सराजदेव (1385-1410 ई) के मन में एक बार आया कि दंतेश्वरी मां की पूजा करने जाया जाय बस फिर क्या था वे चल पड़े और उन्होंने बस्तर को जीत लिया। दंतेश्वरी की पूजा की। मंदिर को कई ग्राम दान में दिए और वापस चले गए। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
बस्तर में गोलकुण्डा के कुतुबशाही राज घराने का भी प्रभाव रहा है। कुतुबशाही वंश की संस्थापना बहमनी वंश के पूर्वी भाग के हाकिम कुली कुतुबशाह ने 1518 ई. में की जो 1687 ई. तक चलता रहा। हैदराबाद के संग्रहालय में 1672 ई. की एक अप्रकाशित कृति रखी हुई थी जिसका नाम है तारीख ए कुतुबशाही इसमें लिखा हुआ है कि बस्तर 1610 ई. से 1672 ई. तक कुतुबशाही घराने का करद राज्य रहा है। 1610 ई. मोहम्मद कुली शासक था (1587 से 1611 ई. तक) अतएव बस्तर इसी के समय में सर्व प्रथम नियंत्रण में आया था।
बस्तर ने मराठों के आक्रमणों को भी झेला था। रावघाट के युद्ध में मराठों में काकतीय दलपतराव को हरा दिया था तथा उन्हें मराठों का करद राज्य बनने के लिए विवश कर दिया था। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
बस्तर में काकतीय शासन
बस्तर में सर्वाधिक शासन काकतीय घराने ने किया है। काकतीय घराना 14वीं सदी में वारंगल में यहां आया था। एग्न्यू ने 1820 ई. की अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि भारतवर्ष में उस समय 4 बड़े राजवंश थे जिसमें बस्तर के राजपूत भी एक हैं तीन अन्य थे सतारा के नरपति कटक के गजपति तथा रतनपुर के अश्वपति कहा जाता है कि प्रतापरूद्रदेव वारंगल के शासक थे इन पर पहिले अलाउद्दीन के सेनापति काफूर ने हमला किया पर धन देकर शासन करने के अधिकार पुनः सौंप दिए। लेकिन बहमनी वंश के एक शासक अहमदशाह बहमनी ने उन्हें तथा उनके परिवार के लोगों, अधिकारियों तथा मंत्रियों को मार डाला। उनमें से एक भाई अन्नमदेव तथा तीन अन्य सेनापति बस्तर की ओर भाग गए। वहीं उन्होंने बस्तर के नागवंशियों एवं गंगवंशियों को हराकर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।
कुछ भी हो काकतीय लोग स्वयं को चन्द्रवंशी राजपूत मानते हैं। चन्द्रवंश की मूलतः उत्पत्ती क्रमशः ब्रम्हपुत्र- अत्रि-पुत्र-चन्द्र पुत्र- बुध तथा वैवस्वत मनु पुत्रौ इला के मेल से हुई है। चूंकि चन्द्र पुत्र बुध से इस वंश की उत्पत्ति हुई अतएव बस्तर के काकतीय स्वयं को चन्द्रवंशी मानते हैं। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
शासकों ने समय-समय पर अपनी राजधानियां आवश्यकतानुसार परिवर्तित की थी- यथा वारसूर चीतापुर, राजपुर, दंतेवाड़ा, बहेडोंगर, बस्तर एवं जगदलपुर।
बस्तर के राजा विवाहों, तीर्थ यात्राओं व्यर्थ के झगड़े करने (जयपुर स्टेट से संघर्ष)। जमींदारियां बांटने दान कार्य करने तथा व्यर्थ के करारोपण करने में ही लगे रहते थे। उन्हें राज्य के हितार्थ कार्य करने के लिए या तो समय ही नहीं मिलता था या फिर आर्थिक तंगी से वे राज्य हितार्थ जन-हितार्थ कार्य में चाहते हुए भी कार्य नहीं करवा पा रहे थे। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
उनके द्वारा राज्य में वसूल किए जाने वाले करों को चैपमैन ने इस प्रकार व्यक्त किया है- पान पिआई (पानी पीने का कर), घंटा पोनी (नजराना), हल्दी सारी (हल्दी चढ़ाने का कर) चूरी कर (चूड़ी पहनाकर की जाने वाली शादी पर लगने वाला कर) उत्तराधिकार कर, विवाह कर भगवा पट्टी (लूम कर या बुनाईकर) छानी पट्टी (दूध बेचने पर कर) गुरु-टीका (राज गुरु हेतु कर), रस-बहार (आमोद-प्रमोद कर) लाल टीका (राज पुत्र जन्मोत्सव कर) तथा विधवाओं को बेचकर प्राप्त किया जाने वाला कर धन प्राप्त के लिए राजा पुलिस, जेल, स्कूल, हास्पिटल पर जो खर्च करता था उसकी पूर्ति “अबाब” नामक कर लगाकर पूर्ति की जाती थी। हो सकता है राजा को इतने प्रकार के लगने वाले करों के बारे में पता ही नहीं चलता रहा होगा क्योंकि अधिकारी वर्ग उन्हें इस संबंध में बताने की आवश्यकता ही महसूस न करते रहे होंगे।
बस्तर के राजघराने और ब्रिटिश सरकार
बस्तर के राजघराने का सम्बन्ध जब से ब्रिटिश शासन से हुआ तब उनकी स्वतंत्रता का सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर होने लगा। दलपतराव के समय बस्तर नरेश नागपुर के भोंसलों के करद राज्य बन गए थे। अतएव जब डलहौजी ने 1854 में नागपुर राज्य को दत्तक निषेध को नीति के अंतर्गत हड़प लिया वैसे ही बस्तर भी तत्काल प्रभाव से आंगल नियंत्रण में आ भी तत्काल गया। भूपाल देव के समय से यहां आंग्ल सत्ता के दांत गड़ गए थे जिन्होंने धीरे-धीरे सारे अधिकार एवं शक्तियों का पान कर लिया। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
भारत सरकार के 1864 के पत्र क्रमांक 4224 दिनांक 229-54 के अनुसार सम्पूर्ण भारत में कोई भी चीफ प्रभुता सम्पन्न नहीं रह गए थे केवल 23 चीफ को उच्च श्रेणी का तथा 92 को साधारण प्रजा के अंतर्गत रख दिया गया था। लेकिन राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली के 1893 ई. के रेकार्ड के अनुसार प्रत्येक चीफ को अभी भी स्वतंत्र विदेशी शासक माना जाता था इनके पत्र व्यवहार हेतु अंग्रेज विदेश विभाग (फारेन डिपार्टमेंट) लिखा करते थे परन्तु हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और थे।
डॉ. श्रीमती रमन श्रीवास्तव ने स्पष्ट रूप से अपने शोध ग्रंथ में लिखा है कि “देयर सावरेन्टी वाज द सोरेन्टी आफ कन्वेनियन्स विद द गर्वनमेंट” उन्होंने आगे यह भी लिखा है कि छत्तीसगढ़ में शासक तो थे परन्तु सत्ता अंतर्ध्यान हो गयी थी। जिसमें वह कितने वर्ष बाद नवीनीकरण करायेगा तथा कितनी “टकोली” (वार्षिक देय अंग्रेजों को देगा उल्लिखित होती थी। बस्तर रियासत मध्यप्रांत की 15 फ्यूडेटरी चीफ क्षेत्रों में सबसे बड़ी थी अर्थात् 13072 वर्गमील क्षेत्र की थी। सभी चीफ सरकार की दृष्टि में बराबर थे यो रेजीडेण्ट, दीवान, एडमिनिस्ट्रेटर, सुपरिन्टेडेन्ट पालीटिकल एजेण्ट तथा वाइसराय की सहायता से शासन चलाते थे।
अपने क्षेत्र में ये सर्वेसर्वा थे परन्तु फिर भी वे पूर्णरुपेण मनमानी नहीं कर सकते थे यथा (1) किसी को हाथी के पैरों के नीचे कुचलवाना (2) मृत्यु दण्ड देना। (3) 250 से अधिक रुपयों का दण्ड़ देना। (4) 2 से 7 वर्ष तक की सजा देना, (5) बिना अंग्रेजों की अनुमति के कहीं से अम्युनेशन या हथियार मंगाना (6) राज्य में खदाने खुदवाना आदि उन्हें मृत्युदण्ड देने एवं 2 वर्ष से अधिक सजा देने तथा 50 से अधिक रुपयों की सजा देने हेतु पूर्वानुमति लेनी आवश्यक होती थी। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
बस्तर राजा पर अब उनकी प्रजा भी मुकदमें करने लगी थी जैसे शेख रसूल ने एक अंग्रेजी न्यायालय में बस्तर के राजा के विरुद्ध मुकदमा दायर किया जिसमें उसने कहा था कि राजा ने उसके 2000/- रुपये तथा 14 आने का भुगतान नहीं किया है। ब्रिटिश सरकार ने इसे राजा का आंतरिक मामला मानकर मुकदमा खारिज कर दिया।
एक ओर राजा के ऊपर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए जा रहे थे तथा दूसरी ओर कुछ अधिकार भी दे दिए गए थे ताकि राजा असन्तुष्ट न हो बड़ा मारे और रोने भी न दे वाली कहावत यहां चरितार्थ होती है 1888 ई. में रियासत के समस्त पुलिस सम्बन्धी अधिकार छीन लिये 1891 ई. से पड़ी (लदे हुए बैलों पर कर) कर लगा दिया। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
इतना ही नहीं 1884 ई. की राजनैतिक एवं वैदेशिक फाईल्स के अनुसार भैरमदेव (बस्तर नरेश) के सारे अधिकार केवल 70,000/- रुपये का ऋण देकर छीन लिये। इतना ही नहीं एक अहीर या यादव गोपीनाथ कपडदार को दीवान बनाकर भेज दिया। इससे पूर्व दीवान ब्राम्हण ही हुआ करते थे अतएव जनता ने भी ब्रिटिश सरकार के इस हस्तक्षेप की निंदा की तथा आगे चलकर 1910 का बस्तर विद्रोह करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। इसे इतिहास में लालविद्रोह के नाम से भी जाना जाता है।
बस्तर रियासत में अंग्रेज सरकार
बस्तर रियासत में अंग्रेज सरकार ने प्रशासनिक हस्तक्षेप करके रियासत को ‘कोर्टस आफ वार्डस’ या मैनेजमेंट में भी ले लिया गया यथा 1891 से 1908, 1921-28, 1936-47 तक यहां ब्रिटिश प्रशासन बार-बार लागू किया गया। 29 जुलाई 1891 को राजा भैरमदेव की मृत्यु हुई वैसे ही 6 वर्षीय रूद्रप्रताप (जैपुर के माछमारा की पुत्री के पुत्र) को उत्तराधिकारी होने के कार बनाया गया, परन्तु अल्पव्यस्क होने के कारण इसे अंग्रेज सरकार ने नियंत्रण में ले लिया। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
इसी प्रकार नंवबर में रूद्रप्रताप की मृत्यु के बाद जनता ने प्रफुल्ल कुमारी उम्र 11 वर्ष को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया अत: रियासत पुनः सरकार के नियंत्रण में आ गयी। इस रानी की मृत्यु लंदन में हो गई। इसी तरह 1936-47 तक यह राज्य संरक्षण में शासित होता रहा।
ब्रिटिश सरकार ने 1841 ई. में बस्तर चीफ पर दंतेवाड़ा में नरबलि होने का आरोप लगाया। इसकी जांच हेतु 1854 में कृष्णाजी पंत को बस्तर भेजा। बैरागढ़ जमींदार ने कहा था कि विश्वास किया जाता है कि नरबलि दी जाती है परन्तु मंदिर के पुजारी मुंगन जिया ने नरबलि होने से इंकार कर दिया था। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
बाद में मुहम्मद खा. अरब की हत्या, जयपुर के तीन बंदियों की हत्या, मंचू गोंड को पकड़ने के प्रयास आदि घटनायें घटीं परन्तु बलि देना सिद्ध नहीं हो सका। लेकिन छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध संत गुरुप्रासीदास के बारे में एक विवरण प्राप्त होता है। जिसमें उन्हें बलि हेतु पकड़ लिया गया था परन्तु रास्ते में उनकी उंगली कट गई थी। अतएव अंग-भंग वाली बलि न चढ़ाने के रिवाज के कारण छोड़ दिया गया था।
गुरु घासीदास का तो यहाँ तक कथन था कि उन्होंने ही दंतेश्वरी देवी के मंदिर में होने वाली बलि को बंद करवा दिया था। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
अंग्रेज सरकार ने बस्तर रियासत में समय-समय सुयोग्य अधिकारियों को भेजकर राज्य की व्यवस्था को सुधारने की कोशिश की तथा जनकल्याण हेतु कार्यों को भी प्रारम्भ करवाया जैसे-
1 . बस्तर में मिस्टर एफ.ए. कोलरिज को डिप्यूटेशन पर 1901 में भेजा गया जिन्होंने विजगापटनम जिले तथा बस्तर राज्य की सीमा का निर्धारण करवाया।
2 . बस्तर में मिस्टर जे “में” 10 माह के लिए एक्स्ट्रा असिस्टेंट बनाकर भेजे गए थे। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
3. 1896 में बस्तर फ्यूडेटरी स्टेट में नरेन स्वामी हैड कांस्टबिल सेकेण्ड ग्रेड चांदा जिले के को भोपाल पटनम जमींदारी में सब इंस्पेक्टर बनाकर भेजा गया जिन्हें 53/- रुपये 2 आना मासिक वेतन दिया जाना था।
4. 1898 में मिस्टर ए. एनवेर को मैनेजर सा मिल के रूप में 200 रुपये प्रतिमाह पर नियुक्त किया गया था।
5. बस्तर फ्यूडेटरी स्टेटस् ने माईनिंग में कंशेसन देकर मिस्टर बेंजामिन को 1898 में बुलवाया था।
6. 1898 में मिस्टर ज्वालाप्रसाद को सेटलमेंट आफीसर के रूप में रियासत में ट्रांसफर करके बुलवा लिया था।
7. 1898 ई. में बस्तर रियासत ने असिस्टेंट एडमिनिस्ट्रेट रायसाहब आलमचन्द की प्रास सेलरी में वृद्धि की गई थी।
8. 1898 में रिटायर्ड आनरेरी सर्जन कैप्टन डब्ल्यू.एम. मिचेल को बस्तर रियासत ने मेडीकल एवं सेनेटरी अधिकारी के रूप में नियुक्त किया था।
9. जुलाई 1873 ई. में बस्तर में अपर गोदावरी जिले के डिप्टी कमिश्नर को दूर करने हेतु आमंत्रित किया गया था। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
10. 1893 में सितंबर माह में कांकेर से बस्तर रियासत में आलमचन्द को ट्रांसफर पर भेजा गया था।
11. 1899 ई में ए हेंट फारेस्ट आफीसर होकर यहां भेजे गए थे।
12. 1896 ई. में जेएल कोलोनल फेरान साहब बहादुर एडमिनिस्ट्रेटर होकर यहां आए थे।
13. श्रीमान जीडब्ल्यू पर पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट बस्तर स्टेट के जब एडमिनिस्ट्रेटर बने तो उन्हें प्रतिमाह वेतन के अतिरिक्त 1000 रुपये अतिरिक्त भत्ते भी दिये जाते थे जब कि इसी समय केदारनाथ ठाकुर के अनुसार भयंकर अकाल पड़ा हुआ था।
अंग्रेज सरकार मे अम्युनेशन मंगाने हेतु बस्तर सरकार को 1904 ई. में अनुमति लेनी पड़ी थी क्योंकि बस्तर की रिजर्व फोर्स हेतु अम्यूनेशन की आवश्यकता थी। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
अंग्रेज सरकार ने बस्तर एवं मद्रास को जयपुर रियासत में चले आ रहे कोटपाड़, सलामी परगना एवं भैंसाबेडा क्षेत्र के झगड़े को हल करवाने में मदद की। हुआ यह था कि 66 वर्ष पूर्व उक्त क्षेत्र बस्तर ने 3000 में जयपुर को बेच दिए थे अब वह पुनः वापस लेना चाहते थे। अंग्रेजों ने 1870 से चले आ रहे उक्त मामले को 1902 ई. में हल करवा दिया तथा 3000 बस्तर को और दिलवा दिए गए तथा उक्त क्षेत्र जयपुर के पास ही बना रहा।
बस्तर राज्य ने आंग्ल शोषण के विरुद्ध भी कभी-कभी असंतोष व्यक्त किया था यथा-
1. 1857 की क्रांति के समय जमींदार यादवराव ने सरकारी खजाना लूटकर आदिवासियों में बांट दिया।
2. मानपल्ली के जमीदार बाबूराव का विद्रोह। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
3. अमपल्ली के जमोदार वेंकटराव का विद्रोह यादवराव, बाबूराव को फांसी तथा वेंकटराव को 1800 ई. में आजीवन काले पानी की सजा प्राप्त हुई। उन्हें अंडमान भेज दिया गया। जनरल विट कैनेडी ने 1 जुलाई 1873 के पत्र क्रमांक 835 के अनुसार वेंकटराव को महान क्रान्तिकारी निरूपित किया था।
4. 1910 का आदिवासी विद्रोह या लाल विद्रोह यह मूलतः शोषण के विरुद्ध विद्रोह था। लाल कालेन्द्रसिंह के प्रोत्साहन के कारण यह भड़क उठा था। अंततः गियर, गिल, तोरने, ब्रेड, वेलेजान्सन ने क्रूर ढंग से इसे दबा दिया। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
कांकेर रियासत
कांकेर रियासत बस्तर क्षेत्र की एक फ्यूडेटरी स्टेट थी यह 20°6, 34 उत्तर अक्षांश तथा 80.41 एवं 81.48 पूर्वी देशांश में 1429 वर्गमील में फैली हुई थी। यहां के महाराजाधिराज को 1865 में सनद मिली तथा टकोली का निर्धारण 11 दिसम्बर 1966 में हुआ था इस रियासत के मूल पुरुष वो कन्हरदेव थे। इनकी तीसरी पौड़ी के एक राजा ने कांकेर परगना जीतकर राजधानी का रूप दिया था इससे पूर्व कन्हरदेव का राज्य सिहावा क्षेत्र में था।
1818 ई. में भूपदेव को नागपुर रेजोडेन्ट्स ने वार्षिक टकोली के बदले कांकेर का अधिपति स्वीकार कर लिया था परन्तु 1823 ई. में टकोली समाप्त कर दी थी तत्पश्चात पदमसिंह नरहरिदेव कोमलदेव गद्दी पर बैठे। अंतिम शासक 1904 ई. में गद्दी पर पदासीन हुए। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
1893 जुलाई की राष्ट्रीय अभिलेखागार के रेकार्ड के अनुसार मिस्टर बहुराव जो कांकेर के दीवान थे कि वेतन में वृद्धि कर दी गई थी। इसी वर्ष सितम्बर 1893 में आनंदराव को कांकेर में स्थानांतरित होकर भेजा गया। 1904 ई. के नई दिल्ली रेकार्ड के अनुसार कांकेर के महाराजाधिराज नरहरिदेव फ्यूडेट चीफ की मृत्यु हो जाने पर भतीजे लाल कमलदेव को उत्तराधिकारी तथा फ्यूडेटरी चीफ घोषित कर दिया गया।
कांकेर के चीफ को रियासत से बाहर जाने पर ब्रिटिश सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी। 19004 ई. में कांकेर के चीफ कलकत्ता गए तब उन्होंने काशीपुर एवं दमदम की आर्म्स एवं अभ्यूनेशन फैक्ट्री भी देखी थी। ( बस्तर का राजनैतिक इतिहास क्रमानुसार | Bastar ka rajnaitik itihas kramanusar )
हैदराबाद का निजाम बस्तर रियासत को हैदराबाद में मिलने 1946 के अगस्त माह में ऐसा सुझाव दिया था परन्तु सरदार पटेल करेस्पाडेंस भाग 7 अभिलेख क्रमांक 32-34 के द्वारा यह सुझाव अस्वीकृत कर दिया गया तथा श्री रविशंकर शुक्ल ने बस्तर के राजा प्रवीरचन्द भंजदेव को दिल्ली बुलवाकर तथा शुक्ल जी ने निजाम के खतरे से निपटने हेतु विशेष व्यवस्था करके समस्या का निदान कर दिया।
सी.पी. एड बरार के शासकीय स्मरण पत्र 6-1-1948 के अनुसार बस्तर को “ए” श्रेणी की रियासत मानकर भारतीय संघ का अंग मान लिया गया। रियासती राजाओं की सूची 21 जुलाई 1948 के शासकीय पत्र क्रमांक 2855-1602 के द्वारा प्रकाशित की गई। प्रवेश लिखत पर हस्ताक्षर करते ही बस्तर की 29171 वर्ग मील में स्थित दोनों रियासतें नानरूलर्स रह गई। और नानकलिंग चीफ ही रह गई। अब वे केवल एक्स रूलर्स रह गए। इन्हें क्षतिपूर्ति के बदले प्रिवीपर्स दिया जाने लगा था। परन्तु वह भी बंद कर दिया गया। कुछ भी हो बस्तर आज भी भारत का तीसरा बड़ा जिला बना हुआ है तथा संसार के कई देशों से यह बड़ा है। जैसे बेल्जियम, लक्मबर्ग, नाक, मालदीप आदि।
बस्तर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास
भारत का हृदयस्थल मध्यप्रदेश अपनी क्षेत्रीय विशालता और आदिवासी बहुलता के कारण अध्ययनकर्ताओं के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है। मध्यप्रदेश के दक्षिण में मध्यप्रदेश का सबसे बड़ी जिला बस्तर है। “बस्तर” शब्द किंवदन्तियों के अनुसार “बंसतरी ” शब्द से विकसित होकर बना है। संबंधित तथ्यों के अन्तर्गत काकतीय वंश के शासकों ने अपना अधिकांश समय बांसतरी (बांस वृक्षों के नीचे) में बिताया। चूंकि निवास योग्य उपयुक्त भवन नहीं था अतः इस नवविजिता क्षेत्र का नाम बांसतरी रखा जो वर्तमान में बस्तर के नाम से जाना जाता है।
दूसरा तथ्य किंवदन्तियों के अनुसार है कि राजा अन्नमदेव ने अपने साम्राज्य विस्तार की दृष्टि से अपने गृहदेवी (ईष्ट देवी) दंतेश्वरी माई के निर्देशन में निकले। देवी ने राजा को सीधे आगे बढ़ते रहने का निर्देश देते हुए कहा था कि पीछे मुड़कर न देखें, रास्ते में डंकनी शंखनी नदी को पार करते समय देवों के नूपुर में रेत भर जाने के कारण आवाज आनी बंद हो गई तब राजा ने यह सोचकर कि देवी ने रुकने का इशारा किया हो, पीछे मुड़कर देखा। देवी क्रोधित हो उठी। राजा ने स्पष्टीकरण देते हुए खूब अनुनय-विनय किया, लेकिन देवी ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया, मगर वरदान स्वरूप अपना देवी वस्त्र फैलाया। जितना भाग इस वस्त्र से ढंका, उसे राजा अन्नमदेव को सुपुर्द किया। देवी के वस्त्र से जुड़े इस आंचल का नामकरण वस्त्र रखा गया। यही उच्चारण सुलभता के कारण बस्तर हो गया।
स्थिति एवं परिचयात्मक पृष्ठभूमि:
मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा जिला बस्तर 17°46° उत्तरी अक्षांश से 20°14′ उत्तरी अक्षांश के बीच स्थित एवं 80° 15′ से 82° 1 पूर्वी देशांश के मध्य फैला है। इसका क्षेत्रफल लगभग 13.725 वर्गमील है। वर्तमान में तीन ओर महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश और उड़ीसा राज्यों से घिरा हुआ रायपुर दुर्ग-राजनांदगांव से राजमार्गों द्वारा जुड़ा हुआ है।
संख्या की दृष्टि से मध्यप्रदेश में कुल आदिवासियों का पांचवां भाग निवास करता है। आदिवासी जातियों की दृष्टि से यहां गोंड, विशेषकर मुरिया, माड़िया के अलावा दोल और भतरा प्रमुख हैं। आदिमयुगीन ढंग से खेती, अन्य पदार्थों का संग्रह और शिकार द्वारा अपनी आजीविका जुटाते हैं। सामान्य जनता की दृष्टि में आदिवासी का अर्थ है “वे भोले-भाले लोग जो जंगलों और पहाड़ों में रहते हैं। शिक्षित वर्ग इन्हें नाचने-गाने में मस्त और रंगीले रूप में पहचानते हैं, जिनकी देखभाल की विशेष जरूरत है।
मानव शास्त्री ऐसे लोगों को आदिवासी के रूप में पहचानते हैं, जिन्होंने अपना सदियों पुराना रहन-सहन, रीति-रिवाज तथा सामाजिक संगठन उसी रूप में सुरक्षित रखा है और जो समाज के के लिए उपयोगी जानकारी प्रस्तुत करता है।
अर्थशास्त्री की दृष्टि में आदिवासी के व्यक्ति हैं, जिनकी आर्थिक व्यवस्था अन्य समुदाय की तुलना में काफी पिछड़ी होती है। गिलिन और गिलिन “स्थानीय जनजातिय समूहों का एक ऐसा समुदाय जनजाति कहा जाता है जो एक सामान्य क्षेत्र में निवास करता है तथा जिसकी एक सामान्य संस्कृति है।”
डॉ. रिवर्स “यह एक साधारण प्रकार का सामाजिक समूह है, जिसके सदस्य एक सामान्य बोली बोलते हैं तथा युद्ध आदि जैसे सामान्य उद्देश्यों के लिए सम्मिलित रूप में कार्य करते हैं।
राजनैतिक स्वरूप:
प्रागैतिहासिक काल की जानकारी को अत्यन्त दुर्लभ माना जाता रहा है। सभ्यता का विकास पाषाणकाल से प्रारंभ होता है। जब मनुष्य पशुओं की भांति जंगल, पर्वतों, नदी घाटियों में विचरण करता था। कंदमूल एवं पशु-पक्षी के शिकार से अपना पेट भरता था। इस कार्य के “लिए पत्थरों का प्रयोग विभिन्न रूपों में किया जाना पाषाण काल कहलाया।” बस्तर अंचल का इतिहास भी इसी युग से प्रारंभ होता है। इन्द्रावती और नारंगी नदी के किनारे कई स्थानों से पाषाणयुगीन चिन्ह उपकरण आदि प्राप्त हुए हैं। जो मानव विकास के प्रारंभिक काल में इस अंचल की महत्ता को स्पष्ट करता है।
रामायणकालीन दंडकारण्य क्षेत्र के अन्तर्गत बस्तर आता था। पुराणों एवं धर्म प्रन्थों में उत्तर भारत के महाप्रतापी राजा इक्ष्वाकु प्रथम ने दक्षिण भारत के कुछ भाग जीतकर अपने पुत्र दंड को सौंपा। एक बार दण्ड ने शुक्राचार्य के अनुपस्थिति में उनके आश्रम में घुसकर उनकी कन्या अरजा के साथ बलात्कार किया था, जिससे कुपित होकर महर्षि शुक्राचार्य ने उदंड राजा दण्ड को ऐसा श्राप दिया कि उसका वैभवशाली दंडक जनपद भस्मीभूत होकर कालांतर में दण्डकारण्य के रूप में परिणत हो गया।
किष्किन्धा का शासक बाली था, उसकी वानर सेना दण्डकारण्य में रहती थी, आज भी बस्तर में बालिपरक ग्रामों के नाम इस क्षेत्र की रामायण युगीन ऐतिहासिकता के प्रमाण है। बालिगा बलिपुर, बालिकोटा, बालिपेट, बाली, बालीड ऐसे माम हैं। यहां के निवासी स्वतंत्रता प्रेमी होने के कारण शासन नाममात्र का होता था, स्थानीय शक्तियां ही शासन सूत्र संभालती थीं। बाह्य शक्ति का हस्तक्षेत्र भौगोलिक एवं प्राकृतिक कारणों से संभव नहीं था।
भारत वर्ष में राजनैतिक एकता स्थापित करने में प्रयासरत मौर्य शासक चन्द्रगुप्त इस अंचल को अपने नियंत्रण में नहीं ला सका, जबकि इस अंचल से पाटलीपुत्र अधिक दूर नहीं था। पराक्रमी अशोक महान द्वारा कलिंग (उड़ीसा) अभियान के दौरान इस प्रदेश पर अधिकार हुआ था। परन्तु उसकी पकड नाममात्र की थी। मौर्यकाल के पतन के बाद कलिंग प्रदेश का शासक हुआ। उसने बस्तर पर अधिकार करते हुए जैन-धर्म का प्रचार किया, यह अंचल में प्राप्त प्रतीक चिन्हों से ज्ञात होता है।.
पहली शताब्दी ई.पू. में सात वाहन राजवंश का शासन इस क्षेत्र में रहा। यह अंचल महावन, महाकान्तर आदि नामों से भी जाना जाता रहा है। स्थानीय शासक ही नियंत्रण करते रहे।
गुप्तकालीन महापराक्रमी शासक समुद्रगुप्त द्वारा विजय अभियान में इलाहाबाद प्रशस्ति लेख में उत्कीर्ण महाकान्तार आक्रमण और वहां के शासक व्याघ्रराज को पराजित करना। समुद्रगुप्त का विजय अभियान दक्षिण भारत तक था, अतः उसने अपनी नीति निपुणता से व्याघ्रराज का राज्य उसे वापस करते हुए दक्षिण अभियान में महाकान्तार से सहयोग प्राप्त किया। यह महाकान्तार कदाचित बस्तर का कोई भाग रहा होगा।
बस्तर में राज्य स्थापित करने वाले नल राजवंशों ने अपने को पुराणकालीन नलवंश से संबंधित बतलाया, प्राप्त शिलालेखों, स्वर्णमुद्राओं तथा ताम्रपत्रों से कुछ तथ्य प्रकाश में आये है। नलवंश के शासक और उनके आगमन का समय विवादास्पद रहा है।” दंडकारण्य अंचल और छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में नलवंशी शासकों के सिक्के व शिलालेख मिले हैं। अतः इतना निष्कर्ष तो सहज लगाया जा सकता है कि नलों को प्रसिद्धि इसी अंचल से प्राप्त हुई, नलवंशी भवदत्त वर्मन ने प्राचीन बस्तर में राज्य करते हुए वाकाटक राजाओं की राजधानी नदिवर्धन सहित काफी बड़ा भाग जीत लिया था।
नलवंशी चूछ शिलालेखों में ऋद्धिपुर (महाराष्ट्र) पोडारा (उड़ीसा) तीसरा केसरिबेड़ा (उड़ीसा) चौथा राजिम (मत्र) में प्राप्त हुआ है। नलवंशी नरेशों के सिक्कों की एक निधि बस्तर जिले में स्थित एडेंगा में प्राप्त हुई है। इस वंश का प्रतापी राजा भवदत्त वर्मा हुआ उसने वाकाटकों को पराजित किया। उसके पश्चात् स्कन्द वर्मा तथा अर्थपति भट्टारक हुए। इनका भवदत्त वर्मा से संबंध ज्ञात नहीं हो पाया है। आठवीं शताब्दी में पृथ्वी राजा, विरूप राजा तथा विलासतुंग का शासक रहा, इन तीनों का उल्लेख राजिम के शिलालेखों से मिलता है।
पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक तलवंश के शासक रहे, नलवंशी नरेश बस्तर तथा दक्षिण कोसल के भू-भाग पर काफी समय तक राज्य करते रहे। * नलवंश के पतन का लाभ सीमावर्ती शासकों ने उठाया। वेंगी के राजा का भी बस्तर पर आक्रमण हुआ, उसका कृवि बिल्हण अपने काव्य ग्रंथ “विक्रमांक देव चरितम” में बस्तर का उल्लेख कई बार करता है। इसी क्रम में गंगवंशी शासकों का धुंधला सा प्रकाश पड़ता है। इसी वंश के सदस्यों ने अपने पूर्वज किसी “बाल सूर्य” के नाम पर एक नगर बसाया जो कालांतर में बारसूर गढ़ के रूप में जाना गया।” यहां अनेक मंदिरों का भी निर्माण हुआ अतः बारसूर मंदिरों का गढ़ कलहाया।
10वीं सदी से 14वीं सदी तक बस्तर क्षेत्र छिदक नागवंशी राजाओं का राज्य था। इस वंश के राजाओं में नृपतिभूषण, धारा वर्ष मधुरांतक देव सोमेश्वर प्रथम आदि प्रमुख थे। इस वंश के अंतिम शासक हरिशचन्द्र, काकतीय अन्नमदेव से परास्त हुआ। इस प्रकार बस्तर वारंगल के काकतीय वंश से जुड़कर सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों की प्रक्रिया से गुजरने लगा। करीब 1333 ई. से 600 वर्षों तक रुद्रप्रदाप देव के पूर्वजों ने बस्तर पर राज्य किया। अन्नमदेव ने ही तारलापाल ग्राम में माई दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया। जो दन्तेवाड़ा ग्राम से जाना गया।
इसी वंश के पुरुषोत्तम देव और ने नई राजधानी के रूप में इन्द्रावती नदी के उत्तर भाग में बसाया जो बस्तर कहलाया बस्तर महिपाल देव के शासनकाल में मराठों के सम्पर्क में आया और 1819 ई. को एक इकरारनामा मि. एगन्यू के प्रतिनिधित्व में किया गया। परन्तु यह समय आन्तरिक विवाद का रहा, इस बीच भोपाल देव, लाल दलगंजनसिंह का झगड़ा चलता रहा। इसका पूरा लाभ अंग्रेजों ने उठाया। राघोजी तृतीय की मृत्यु 11 दिसंबर 1855 ई. के बाद गोद निषेध सिद्धांत लागू कर औपचारिक रूप से भोंसला साम्राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में संयोजन की घोषणा की गई।
इस बीच भैरमदेव को बस्तर का राजा बनाया गया, किन्तु अल्पायु होने के कारण दलगंजनसिंह संरक्षक एवं मंत्री के रूप में 1862 ई. तक कार्यरत रहे। इस प्रकार अंग्रेजी सर्वोच्चता के जिस युग का प्रारंभ बस्तर में 1855 में हुआ वह सन् 1947 ई. में समाप्त हुआ। इस युग में बस्तर में चार शासक हुए, राजा भैरमदेव रूद्रप्रताप देव, रानी प्रफुल्ल कुमारी देवी प्रवीरचन्द्र भंजदेव 15 अगस्त 1947 ई. को भारत आजाद हुआ और देशी राज्यों के संयोजन के क्रम में । जनवरी 1948 ई. को बस्तर भी भारत संघ में सम्मिलित हुआ।
संस्कृति:
यहां गोंड कई उपजातियों में बिखरे हैं। कुछ प्रमुख जनजातियां हल्वा, भतरा, घुरवा, परजा, मुरिया माड़िया आदि जाति हैं। भतरा जाति सामाजिक दृष्टि से सबसे ऊपर है। यद्यपि अबूझमाहियों का अपना एक पृथक अस्तित्व है। परन्तु गोत्र पूजा और उत्सव संबंधी मान्यताएँ एक सी हैं। घोटुल संस्था के रूप में इनकी संस्कृति का एक अलग ही महत्व है। जहां युवा युवतियों को रात्रि में मनोरंजन के साथ-साथ समाज के आधारभूत तत्वों के साथ उनके कर्तव्यों का बोध कराया जाता है।
अबुझमाड़िया और मुरिया जाति के गीतों नृत्य और धार्मिक मनोवृत्ति में नैतिक मूल्यों के बदले जाने से आंशिक परिवर्तन आने लगा है। अबूझमाड़ क्षेत्र जो सभ्यता से कोसों दूर लगभग 1500 वर्गमील के क्षेत्रों में अन्जान पहाड़ियों के बीच फैला हुआ। आवागमन दुर्गम पहाड़ी पगडंडियों के बीच होता है। इनके गांव की बसावट नदी किनारे या पहाड़ी वालों पर पेण्डाकृषि के आधार पर रहती है। गोलाकार संरचना या गली के दोनों ओर मकान बनाते हुए रहते हैं। मकान की संरचना बांस लकडियों से घिरे जंगली जानवरों से सुरक्षित घेरे द्वारा किया जाता है।
कृषि सामूहिक आधार पर करते हुए उपज गांव के हर परिवार में बांटी जाती है। मुख्य खाद्यान्न कोसरा होता है। इसके अलावा साग-सब्जी, केला और उपजाया जाता है। पशुपालन तम्बाखू में बैल, मुर्गी प्रमुख हैं। बांस से विभिन्न समान उपयोग गाय, हेतु बनाया जाता है। पानी का प्रयोग तूबे में रखकर किया जाता है। सल्फी, शब्द और महुआ की शराब पेय पदार्थ हैं। सल्फी के वृक्ष पर पूरे गांव का अधिकार रहता है। इसे स्वास्थ्यवर्धक के रूप में पूरे परिवार के सदस्य सेवन करते हैं।
रजस्वला स्त्रियों को प्रमुख घरों के पीछे एक झोपड़ी जिसे कुरमा कहा जाता है में रहना पड़ता है। विवाह वयस्क रूप में प्रचलित है, ये संगोत्रीय नहीं हो सकते। फाल्गुन चैत्र माह में विभिन्न पद्धतियों से विवाह सम्पन्न होते हैं। अपहरण विवाह से लेकर “लामसेना” एवं “व शुल्क वाले विवाहों का समाज में सर्वोपरि स्थान है। वेशभूषा के नाम पर नाममात्र के वस्त्र धारण करते हैं, आभूषण के रूप में आखेट से प्राप्त पशुओं के सींग एवं विभिन्न प्रकार की आकृति वाले वस्तुओं का प्रयोग विशेष अवसरों पर करते हैं। सामान्यतः एक कपड़े के टुकड़े को लपेटे रहते हैं। मृत्यु के समय मृतक के उपयोग की कोई वस्तु घर में न रखकर कब में रख दिया जाता है। मृतात्मा की पूजा विशेष सतर्कता से की जाती है। हत्या अपरी बोली और विशिष्ट वेशभूषा के कारण माड़ियों से भिन्न हैं।
सामाजिक संगठन का मुख्य केन्द्र गांव का मुखिया पटेल को माना जाता है। इसके अलावा “ता” या ओझा का भी महत्व है, जो झाड़-फूंक के अलावा कृषि कार्य एवं विभिन्न धार्मिक कार्यों के लिए मुहूर्त निकालता है। देवी देवताओं की प्रसन्नता के लिए बली का दिया जाना एवं जादू-टोना आदि पर विश्वास करना इनकी धार्मिक परम्पराओं में आता है। इस अंचल का सबसे महत्वपूर्ण महापर्व दशहरा बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है माई दंतेश्वरी को शक्ति को मानते हुए एक वृहदाकार रथ में देवी का छत्र लेकर पुजारी बैठता है। प्रमुख पुजारी राजा को ही माना जाता है।
रथ का निर्माण श्रमदान द्वारा अंचल के सभी वर्गों द्वारा मिलकर किया जाता है। यह परम्परा आज भी अपनी विशेषता के रूप में कायम है। अब चूंकि दशहरा पर्व शासकीय रूप ले चुका है इसलिए अब आदिवासी भी प्रतीक श्रमदान ही करने लगे। है। इसी क्रम में अलग-अलग स्थानों पर धार्मिक परम्पराओं का निर्वाह महाई के रूप में आयोजन द्वारा किया जाता है। बस्तर की मुर्गा लड़ाई भी काफी प्रसिद्ध रही है। जो फुर्सत के क्षणों में विभिन्न बाजारों में आयोजित होता रहता है। इस हारजीत के खेल में बाजी भी लगायी जाती है। इस प्रकार बस्तर अपनी विभिन्न संस्कृतियों के लिये आज भी आकर्षण का केन्द्र बना हुआ।
यद्यपि यह क्षेत्र प्राकृतिक और अन्य स्रोतों से परिपूर्ण है। किन्तु यहां की आबादी बिखरी हुई है और सुविधाओं की कमी है। सामाजिक सुविधाएँ अधिकांश हिस्सों में नहीं पहुंच सकी है। कृषि के अतिरिक्त रोमजदूरी इनको आजीविका का प्रमुख आधार है। कुछ लोग बैलाडीला लौह अयस्क खदानों के श्रम क्षेत्र में भी समायोजित हुए हैं। यद्यपि सरकार द्वारा चवनाओं के कार्यक्रमों में आर्थिक एवं शिक्षा स्वास्थ्य जैसे अनेकानेक योजनाएं हैं लेकिन इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में सबसे बड़ी कमी सम्पर्क और समन्वय है। यदि इस दिशा में कोई कारगर कदम समय रहते यदि भारत सरकार उठाती है तो निश्चित ही बस्तर अंचल हमारी संस्कृति का एक अमूल्य धरोहर और विरासत बना रहेगा।
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