बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra

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bastar dussehra chhattisgarh images
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बस्तर
का दशहरा

यह छत्तीसगढ़ का अद्वितीय सांस्कृतिक गुण है। राज्य के स्थानीय लोगों द्वारा पर्याप्त उत्साह के साथ मनाया जाता है, दशहरा का त्योहार देवी दंतेश्वरी की सर्वोच्च शक्ति का प्रतीक है। दशहरा के दौरान, बस्तर के निवासी जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर में विशेष पूजा समारोह आयोजित करते हैं।

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ऐसा माना जाता है कि महाराजा पुरुषोत्तम देव ने पहली बार दशहरे के त्योहार की शुरुआत 15 वीं शताब्दी में की थी। इस । इस अवसर के पूरे दस दिनों के दौरान, बस्तर के सम्मानित राज परिवार पूजा सत्रों की व्यवस्था करते हैं जिसमें देवी दंतेश्वरी के प्राचीन हथियारों को दिव्य तत्वों के रूप में माना जाता है।

बस्तर दशहरा के निहित लक्षणों में से एक यह है कि राज्य का नियंत्रण औपचारिक रूप से जमींदार और समान महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों को गवाह के रूप में रखते हुए दीवान को हस्तांतरित किया जाता है।

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कुंवर अमावस्या दशहरा का पहला दिन है। पहले दिन की रात नियंत्रण का प्रथागत हस्तांतरण होता है। इस समारोह की एक रहस्यमय विशेषता यह है कि दीवान को सत्ता सौंपने से पहले, माना जाता है कि आध्यात्मिक शक्तियों को रखने वाली लड़की से अनुमति मांगी जाती है।

इस लड़की को लकड़ी की तलवार के साथ देखा जाता है और युद्ध जैसी मुद्रा में खड़ा किया जाता है। दशहरे के दूसरे दिन को प्रतिपदा कहा जाता है जिसके बाद आरती और सलामी होती है।

नौवें दिन, बस्तर के राजा देवी दंतेश्वरी का स्वागत करते हैं जो डोली या पालकी में शहर के प्रवेश द्वार पर आती हैं। त्योहार के दसवें दिन को दशहरा कहा जाता है जब राजा एक दरबार का आयोजन करते हैं जहां लोग आते हैं और अपने अनुरोध पेश करते हैं। ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

यहाँ त्यौहार बस्तर के हिन्दुओ की आस्था का प्रतिक है जिसका डंका पूरी दुनिया में बजता है , इसे सभी हिन्दू चाहे वो ब्राह्मण हो या दलित या आदिवासी सभी हिन्दू इसे धूमधाम से मनाता है।

सर्वधर्म समभाव का प्रतीक बस्तर का दशहरा

बस्तर जिला 17240 उत्तर से 20° 34 उत्तर अक्षांश तथा 800° 15 पूर्व से 82°01 पूर्वी देशांतर के मध्य स्थित है। इसका आकार लगभग अण्डाकार है। इसकी लंबाई उत्तर से दक्षिण की ओर 1890 मील है व चौड़ाई पूर्व से पश्चिम की ओर 125 मील है। यह जिला मध्यप्रदेश के उत्तर पूर्व कोने में स्थित है। । नवम्बर 1955 के नक्शे के अनुसार बस्तर जिला पूर्व में उड़ीसा, पश्चिम में बाम्बे व दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश से घिरा हुआ है। यह मध्यप्रदेश की नई राजधानी भोपाल से 400 मील की दूरी पर स्थित है।

इस जिले का कुल क्षेत्रफल 15,091 वर्गमील है जो डेनमार्क और स्वीटजरलैंड के बराबर है। इस जिले का निर्माण सन् 1948 की 1 जनवरी को भारत गणराज्य में विलीनीकृत बस्तर तथा कांकेर नामक दो भूतपूर्व देशी रियासतों को मिलाकर किया गया है तथा 20.3.1989 को सम्भाग का दर्जा प्रदान किया गया। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा जिला है। भारत के बड़े जिलों में यह तीसरे क्रमांक पर आता है। यह केरल राज्य से भी बड़ा है। ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

इस क्षेत्र में त्रेता युग तथा पाषाण युग के भी अवशेष पाये गये हैं। डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार आधुनिक बस्तर ही प्राचीन दण्डकारण्य था। वाली (किष्किन्धा के शासक) के राज्य के ग्रामों के नाम इस क्षेत्र की रामायण युगीन ऐतिहासिकता के साक्षी हैं। पाषाण युगीन उपकरणों का इन्द्रावती के किनारे पाया जाना बस्तर में पाषाण युग में जीवन होने का साक्ष्य है। कलिंग प्रदेश के प्रसिद्ध राजा खारवेल व सातवाहन समुद्रगुप्त आदि राजाओं के आधिपत्य का यहां उल्लेख मिलता है।

अद्यतन ज्ञात ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि बस्तर का वास्तविक इतिहास नल युग से ही प्रारंभ हुआ। नलों के पश्चात् नागों की सत्ता थी अर्थात चौथो ईसवी सदी से लेकर चौदहवीं ईसवी सदी के प्रारंभ तक इन दोनों राजवंशों ने इस अंचल पर शासन किया। किवदंती के अनुसार नागवंश के पश्चात् गंग वंश का भी शासन इस क्षेत्र में था किन्तु प्रमाण नहीं है। इसके पश्चात अर्थात् चौदहवीं ईसवी सदी के प्रारंभ से 20वीं इसवी सदी के पूर्वार्ड तक इस अंचल में काकतीय वंश का अक्षुण शासन था। बस्तर में इस राज्य का संस्थापक अन्नमदेव (जो कि वारंगल से आया था) के राज्यारोहण की तिथि विभिन्न वंशावलियों. में बेसाख शुक्ल 8 बुधवार संवत 1370 दर्शायी गई है।

दशहरा पर्व का प्रारंभ भी इसी वंश के शासक द्वारा किया गया है। यूं तो सम्पूर्ण भारत में विभिन्न धर्म और जाति के लोग अपने-अपने त्यौहारों को पूरे आनंद व उल्लास के साथ मनाते है और इन्हीं में एक पर्व दशहरा भी है जिसे प्रायः सभी हिन्दू मनाते हैं, किन्तु इस आदिवासी अंचल का पर्व बहुत ही निराला व आकर्षक है। यह दशहरा विजया दशमी को चली आ रही पुरानी परंपरा से संबंधित नहीं है। ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

इस पर्व का प्रारंभ काकतीय वंश के चतुर्थ नृपति पुरुषोत्तम देव (1408 से 1439) के समय से माना जाता है। कहा जाता है कि पुरुषोत्तमदेव अत्यन्त कष्ट पूर्वक यात्रा करते हुए जगन्नाथ पुरी गये तथा वहां उन्होंने देवता को द्रव्य तथा रत्न बढ़ाया। तब जगन्नाथ जी ने स्वप्न में पंड़े को राजा को रथ देने को कहा और तभी से राजा रथपति हुए। यद्यपि राजा को सोलह चक्कों का रथ देने का आदेश हुआ था किन्तु जब पुरुषोत्तम देव बस्तर आए तब उन्होंने चार चक्कों के रथ को व्यवस्था को देवता जगन्नाथ के लिए तथा शेष बारह चक्कों के रथ की व्यवस्था अपनी ईष्ट देवी दतेश्वरी के लिए।

लकड़ी के विशाल रथ पर राजकुल की ईष्ट देवी दंतेश्वरी का रखा जाता है। परम्परा से छत्र के साथ राजा उसके सबसे बड़े पुजारी की हैसियत से रथ पर बैठते थे किन्तु बस्तर के अंतिम नृपति प्रवीरबंद भजदेव के पश्चात मात्र छत्र ही रखा जाने लगा, क्योंकि रथ पर बैठने के नाम पर राजकुल के सदस्यों के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई

यह पर्व दशहरा राज परिवार द्वारा बहुत उल्लासपूर्वक 10 दिनों तक मनाया जाता है। इन दिनों पारिवारिक देवों द्वारा दिए गये हथियारों की पूजा की जाती है। ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

दशहरे के कार्यक्रमों का प्रारंभ काछिन गादी से शुरू होता है। राजा साहब हाथी पर सवार होकर सदर बाजार की ओर घूमते हुए काछिन गुड़ी के पास विनय करते हैं। इस गुड़ी से उस दिन 9 वर्ष की महरिन छोकरी के ऊपर देव आता है। राजा साहब जब हाथी पर चढ़कर उस गुड़ी के सामने बेल के कटिदार झूलों के पास टहलते है उसी समय वह महरिन छोकरी नया कपड़ा पहन कर कांटेदार झूले के आस-पास सात बार घूमती है, पश्चात् गुड़ी का सिरहा मोटा लट्ठ एक हाथ में लिए हुए जोर से उस लड़की को हांक देता है। उस समय छोकरी के हाथ में लग रहता है और दूसरे हाथ में कपड़ा लपेटा रहता है।

सिरहा ललकार कर हाथी की ओर दौड़ता है और पीछे-पीछे लड़की दौड़ती है। फिर सिरहा झूले के पास पीछे लौटता है और उसी तरह आगे-आगे सिरहा और पीछे-पीछे लड़की बार-बार हाथी के पास दौड़ कर आती है और बार-बार झूले के पास आती है। बाद में लड़की को कांटेदार झूले में सुला दिया जाता है। इतनी रस्म पूरी होने के बाद राजा वापस चले जाते हैं और प्रसाद काछिन गुड़ी से राजा साहब के पास भेजा जाता है। लड़की के होश में आने के बाद पुजारी आदि मिलकर दशहरा के निर्विघ्न समाप्त होने की प्रार्थना करते हैं। ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

लड़की अपने गले से माला निकाल कर पुजारी को दे देती है और घोषणा करती है कि दशहरे के सभी कार्यक्रम निर्विघ्न सम्पन्न होंगे। प्रतिवर्ष अलग-अलग कन्या का चयन इस हेतु किया जाता है। एक हरिजन कन्या के माध्यम से इस उत्सव की प्रारंभ को अनुमति इस बात की द्योतक है कि बस्तर के राजाओं ने जाति के रूड़ बंधनों से ऊपर उठकर दशहरा को सार्वजनिक रूप प्रदान किया था।

बस्तर के वयोवृद्ध साहित्यकार लाला जगदलपुरी ने भी काछिन गादी के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि हरिजन की देवी को बस्तर के भूतपूर्व राजाओं द्वारा इस प्रकार प्राथमिक सम्मान देना इस बात की पुष्टि करता है कि बस्तर के काकतीयों की दृष्टि में हरिजन अस्पृश्य नहीं थे।

दशहरा का यह प्रथम चरण है इसका अर्थ होता है काजिन देवी को गद्दी देना। इनकी गरी कांटों की होती है। यह रणदेवी भी कहलाती है। कालिन देवी के बारे में एक मनोरंजक कथा है “साहित्यकार पं. गंगाधर सामंत के अनुसार” कि बस्तर के किसी राजा का युद्ध रतनपुर के राजा के साथ हुआ, जिसमें बस्तर के राजा पराजित हो गए और वे बस्तर की ओर भागे, किन्तु बोच में ही वे बंदी बना लिये गये। ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

बस्तर राज्य का मंत्री बहुत बुद्धिमान व्यक्ति था, उन्होंने रतनपुर के राजा को समझाया कि बस्तर के राजा को प्राण दण्ड देकर तुम एक बलशाली और शस्त्रास्त्र में निपुण व्यक्ति की मित्रता खो दोगे। तुम हमारे राजा का कुछ करतब तो देखो तदनुसार बस्तर के राजा की शक्ति परीक्षा ली गई उन्होंने एक ही तौर से चार शाल वृक्षों को बेथ दिया, तथा अपनी शस्त्रास्त्र निपुणता के अन्य प्रमाण भी प्रस्तुत किये। इससे प्रसन्न होकर रतनपुर के राजा ने बस्तर के राजा को छोड़ दिया साथ ही अपनी काछ (कच्छा) देकर कहा इसका सम्मान करो। बस्तर के राजा वह काछ ले आए।

उस समय जगदलपुर जगतगुड़ा नाम का एक गांव था, जहां मिरगान व माहरा जातियां आबाद थीं। उन्होंने वह काछ उन लोगों को दे दिया और कहा कि वे इसकी प्रतिष्ठा करके राजा के सम्मान की रक्षा करें। उन लोगों ने एक गुड़ी अर्थात मंदिर में इसे प्रतिष्ठित कर दिया और इसे देवी के रूप में मान्यता प्रदान की, और अपनी इष्ट देवी बना लिया। प्राचीनकाल में यह मान्यता थी कि यदि काछन देवों राजा के हाथ में फूल दे दे तो उस वर्ष दशहरा निर्विघ्न सम्मन्न होगा। जिस लड़की पर काछन देवी आती है वह कुवारी कन्या होती है उसे काटे के झूलेर सुलाया जाता है।  ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

इस त्यौहार का “ब्रिटिशकाल में मुख्याकर्षण यह था कि इस त्यौहार में राजा की उपस्थिति में राज्य के प्रबंध का भार दीवान को सौंप दिया जाता है और काजिन गुड़ी कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद रात्रि में राजा दरबार में अपने कपड़े दीवान को सौंपता है और राज्य के प्रबंध के प्रभार की औपचारिकता पूरी होती है। ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

दशहरे का प्रथम कृत्य अश्विन शुक्ल प्रतिपक्ष से प्रारंभ होता है प्रथम दिन सब ब्राम्हणों के संकल्प पाठ करने दिया जाता है। जिस देवी का जप या पाठ किया जाता है उसी देवी के मंदिर में जाकर पाठ किया जाता है। जोगी बैठाने की प्रथा कैसे प्रारंभ हुई इसके विषय में किवदंती है कि दशहरा निर्विघ्न सम्पन्न हो इस उद्देश्य से कभी कोई आदिवासी जोग (तपस्या) पर बैठ गया था। पलतः दशहरा निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। ( बस्तर का दशहरा छत्तीसगढ़ | Bastar ka dussehra | Bastar Dussehra )

कलश स्थापना ब्राम्हणों के मंत्रोचार के साथ होता है। दूसरी ओर राज महल के समीप ही स्थित सीरासार अथवा सिरहासार नामक विशाल कक्ष अथवा हाल में जोगी बिठाई की रस्म अदा की जाती है। विशाल कक्ष के लगभग दो-तीन फुट का गड्ढा खोदा जाता है उसकी लंबाई चौड़ाई सवा सवा मोटर होती है। इसमें हल्वा जनजाति का एक व्यक्ति जिसे जोगी को संज्ञा दी जाती है को समारोह पूर्वक बैठाया जाता है।

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Rajveer Singh
Rajveer Singh

Hello my subscribers my name is Rajveer Singh and I am 30year old and yes I am a student, and I have completed the Bachlore in arts, as well as Masters in arts and yes I am a currently a Internet blogger and a techminded boy and preparing for PSC in chhattisgarh ,India. I am the man who want to spread the knowledge of whole chhattisgarh to all the Chhattisgarh people.

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