गोरखपुर की भौगोलिक स्थिति
गोरखपुर-जनपद हिमालय की तलहटी में युक्तप्रान्त के तराई के जिलों में सबसे उत्तर-पूर्व की ओर स्थित है। इसका वर्तमान विस्तार 26° 5′ से 27° 29′ तक उत्तरी अक्षांश और 83° 4′ से 84° 26′ पूर्वी देशान्तर तक है। इसके उत्तर में नेपाल का स्वतंत्र हिन्दू राज्य है। इधर की ओर हिमालय की गगनचुम्बी पर्वत-श्रेणियाँ संतरी के समान खड़ी हैं। इसके दक्षिण में प्रबल वेग से सरयू नदी बहती है। पूर्व में चम्पारन और सारन के जिले हैं जो कहीं बड़ी गंडक और कहीं छोटी गंडक से विभक्त हैं। इस जनपद के पश्चिम में बस्ती का जिला स्थित है।
प्राचीन काल से लेकर सं. 1927 वि. तक गोरखपुर जनपद का विस्तार आधानिक विस्तार से कहीं बड़ा था। इसका उत्तरी कुछ भाग सं. 1914 वि. के विप्लव के बाद नेपाल को अंग्रेजों द्वारा दे दिया गया। सलेमपुर-कोटला (मध्यकालीन) तथा प्राचीन मल्ल राष्ट्र का जो भाग सरयू के दक्षिण में था वह गोरखपुर जनपद से अलग करके आजमगढ़ जिले में मिला दिया गया।
सं. 1927 वि. में गोरखपुर जनपद का पश्चिमी भाग अलग करके बस्ती जिला बनाया गया। पूर्व में इसका विस्तार सदा नीरा ( बड़ी गंडक ) तक था जो क्रमशः अलग होते होते बिहार में मिल गया। किन्तु इतना अंग भंग करने पर भी गोरखपुर युक्त प्रान्त का सबसे बड़ा जनपद है। गोरखपुर-जनपद का ऐतिहासिक विवेचन करने में इसकी वर्तमान राजनैतिक सीमा को पार कर उसके वियुक्त अंगों का भी ध्यान रखा गया है, क्योंकि इन अंगों का इतिहास गोरखपुर के साथ अभिन्न रूप से बँधा हुआ है।
भारत का प्राचीन भौगोलिक विभाजन और गोरखपुर जनपद
प्राचीन काल में भारतवर्ष चार मुख्य प्राकृतिक खण्डों में बटा हुआ था। काश्मीर, नेपाल, भूटान आदि पहाड़ी प्रान्तों को मिलाकर ‘हिमालय प्रदेश’ कहा जाता था। हिमालय और विन्ध्य पर्वतों के बीच का प्रदेश, जो पश्चिम में अरब सागर और पूर्व में बंगाल की खाड़ी को छूता था, ‘आर्यावर्त’ कहलाता था।’
विन्ध्यपर्वत और कृष्णा नदी के मध्य के प्रान्त को ‘दक्षिण पथ’ कहते थे। कृष्णा के दक्षिण का प्रदेश ‘द्राविड देश’ कहलाता था। इन खण्डों में आर्यावर्त की ही प्रधानता भारतीय इतिहास में रही। आर्यावर्त के मध्यवर्ती भाग को ‘मध्यदेश’ कहा जाता था जो वर्तमान संयुक्त प्रान्त और विहार के बराबर था।” यहाँ पर बड़ी बड़ी राजनैतिक घटनायें हुईं जिनका प्रभाव सारे देश पर पड़ा। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति की छाप सम्पूर्ण भारतवर्ष पर है। इसी मध्यदेश के मध्यभाग में ‘कारुपथ’ नाम का रमणीय प्रदेश था जिसको आज गोरखपुर जनपद कहते हैं।
विस्तार
गोरखपुर जनपद का विस्तार कुछ प्राकृतिक कारणों से बदलता रहता है। • दक्षिण में सरयू नदी का पथ अनिश्चित रहने के कारण गोरखपुर की दक्षिणी सीमा घटती बढ़ती रहती है। सं० 1946 वि० में गोरखपुर का सम्पूर्ण क्षेत्रफल 2931921 एकड़ था। परन्तु जब सं० 1961 वि० में सरयू का प्रवाह उत्तर की ओर बढ़ गया तब लगभग 67 वर्ग मील भूमि आजमगढ़ जिले में चली गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि गोरखपुर जनपद का क्षेत्रफल घटकर 2889043 एकड़ रह गया। इस समय इसका क्षेत्रफल लगभग 2899718 एकड़ या 4514 वर्ग मील है। उत्तर से दक्षिण इसकी लम्बाई 92 मील और पश्चिम से पूर्व चौड़ाई 72 मील है।
पर्वत और तराई
गोरखपुर जनपद के भीतर कोई पर्वत श्रेणी नहीं है, परन्तु हिमालय की चरण-श्रंखला इसकी उत्तरी सीमा के बिल्कुल निकट आ पहुँची है। हिमालय की धवलागिरि तथा दूसरी ऊँची चोटियाँ वर्षा और शीतकाल में जब आकाश अपेक्षाकृत साफ रहता है, गोरखपुर के विभिन्न स्थानों से दिखाई पड़ती हैं। हिमालय उत्तर से दक्षिण की और ढलता आया है। इसका प्रभाव गोरखपुर जनपद की भूमि की बनावट पर पड़ा है।
पहाड़ियों के नीचे उनके समानान्तर भूमि का सिसिला पश्चिम से पूर्व की ओर चला गया है, जिसके बीच-बीच में पहाड़ियों की भुजायें निकल आयी हैं। इस भूमि को तराई कहते हैं। आज कल इसका अधिकांश भाग नेपाल राज्य में हैं। किन्तु इसका कुछ भाग गोरखपुर की महाराजगंज तहसील (जनपद) में भी पड़ता है। प्राचीन काल में शाक्य और मल्ल राष्ट्र हिमालय की चरणश्रृंखला को स्पर्श करते थे।
तराई की भूमि की बनावट ऐसी है कि बरसात का सारा पानी नालों द्वारा यहाँ से बाहर नहीं निकल पाता और यहीं धरती में समस जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि भूमि में बराबर नमी बनी रहती है जिस कारण से मलेरिया और दूसरे रोग निवासियों पर आक्रमण करते हैं। परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि तराई की भूमि की बनावट और जलवायु सदा ऐसी न थी।
प्राचीनकाल में आर्यों के बहुत से उपनिवेश हिमालय की तलहटी में बसे हुये थे। बौद्ध काल में समृद्ध गणतंत्र यहीं पर स्थित थे। मानव जीवन की प्रतिकूल जलवायु में इस प्रकार के उपनिवेश और सभ्यता का विकास नहीं हो सकता था। संभवतः भौगर्भिक कारणों से भूकम्प आदि के प्रकोप से यहाँ की भूमि नीचे दब गयी और इसका जलवायु अस्वास्थ्यकर हो गया।
मैदान
तराई के दक्षिण जनपद के शेष भाग की भूमि समतल है। परन्तु पश्चिम-उत्तर से क्रमश: पूर्व-दक्षिण को ढलती चली गयी है। केवल उत्तरी भाग को छोड़ कर सामान्यतः भूमि की ऊँचाई समुद्रतल से 316 फीट है। सबसे उत्तर-पश्चिम में, जो जनपद का सबसे ऊँचा भाग है, समुद्रतल से ऊँचाई 350 फीट और दक्षिणी पूर्वी छोर में लगभग 305 फीट है। परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि उन स्थानों पर जहाँ बलुई भूमि की पहाड़ियाँ महाराजगंज तहसील (जनपद) में पायी जाती हैं भूमि की ऊँचाई भूमितल से 350 फीट से काफी अधिक हो जाती है।
ऐसी भूमि का सिलसिला महाराजगंज तहसील (जनपद) में हरपुर से शुरू होता है और देवरिया तक चला आया है। इस सिलसिले के समीपवर्ती भागों में कहीं तो भूमि नीची है, कहीं झील बन गये हैं और कहीं-कहीं पर कंकरीले भूमि के चट्ठे पाये जाते हैं। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल में कोई नदी इस मार्ग से बहती थी। संभवत: छोटी गंडक का यही पथ था। ऊँची भूमि की दूसरी श्रेणी पडरौना और कसया के बीच में मिलती है। इसकी ऊँचाई जनपद में सबसे अधिक है और समुद्रतल से 386 फीट तक ऊँची हो गयी है।
जिस प्रकार यह भूमि की ऊँचाई उसके समतल होने में बाधक नहीं है वैसे ही नदियों के गहरे कछार भी भूमि के समतल होने में बाधा नहीं पहुँचाते। कछार कहीं-कहीं बहुत चौड़े हो गये हैं और वर्षा के दिनों में इनका विस्तार समुद्र का रूप धारण करता है। जनपद की आर्थिक अवस्था पर इन कछारों का बड़ा प्रभाव पड़ता है। कछार में जहाँ नदियों की बाढ़ धरती को उपजाऊ बनाती हैं वहाँ पर अपने भीषण प्रवाह से लगी खेती को बहा ले जाती है और कभी कभी गाँव के गाँव बह जाते और हजारों लोग बे घरबार के हो जाते हैं।
ढाल
जैसा कि पहले कहा गया है जनपद का ढाल उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर होति चला गया है। इसलिये बड़ी और छोटी सभी नदियाँ इसी दिशा में बहती हैं। केवल बड़ी गंडक को छोड़कर शेष और नदियों का पानी सरयू नदी में मिलता है। जनपद से वर्षा का जल निकालने के लिये कई नदी नाले हैं, फिर भी भूमि का बहुत बड़ा भाग महीनों तक जल-मग्न रहता है। सरयू, राप्ती, रोहिणी और आमी की गहराई काम चलाऊ है और बरसात का पानी अकसर उनके दोनों किनारों के भीतर ही रह जाता है। परन्तु कहीं-कहीं प्रायः इनके संगठनों के पास इनके विस्तृत कछार बाढ़ के पानी से विशाल जलाशय बन जाते हैं।