गोरखपुर-जनपद का आधुनिक नाम गोरखपुर नगर के ऊपर पड़ा है। नगर ‘का ‘गोरखपुर’ नाम क्यों पड़ा, इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध जनश्रुति प्रचलित है। वह यह है कि पाण्डवों ने राजा विराट की गौओं की रक्षा कौरवों के हाथ से इसी स्थान पर की थी। इसलिये इस स्थान का नाम गोरक्षपुर (= गौओं की रक्षा करने का स्थान) पड़ा जो बिगड़ कर गोरखपुर हो गया। पूरी कथा संक्षेप में इस प्रकार है : “जब पाण्डवों के अज्ञातवास की अवधि समाप्त होने के निकट आ गयी तब कौरव उनके सम्बन्ध में अनुसंधान करने लगे।
पाण्डव लोग अपना वेष बदल कर मत्स्य देश के राजा विराट के यहाँ सेवाकार्य करते हुये अपना समय काट रहे थे। शायद इसका कुछ पता कौरवों को लग गया था। दुर्योधन और कर्ण की राय से त्रिगर्त (कांगड़ा) के राजा सुशर्मा ने एक बड़ी सेना के साथ राजा विराट पर आक्रमण किया। उसने और वस्तुओं के साथ विराट की बहुसंख्यक गौओं का अपहरण किया। विराट अपनी गौओं की रक्षा करने के लिये आगे बढ़े किन्तु सुशर्मा से हार कर बन्दी बना लिये गये। इस पर अपने आश्रयदाता की रक्षा करने के लिये भीमसेन ने अपना छद्मवेष छोड़कर वीरोचित वेष धारण किया और युद्ध में सुशर्मा को पराजित कर विराट और उनकी गौओं की रक्षा की। सुशर्मा को भी कैदी बनाया, किन्तु पीछे उसको छोड़ दिया।
इसका परिणाम यह हुआ कि दुर्योधन, भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि सभी ने मिलकर मत्स्य राज्य पर आक्रमण किया और विराट की साठ हजार गौओं का अपहरण किया। इस समय विराट के पुत्र उत्तर ने सामना करने की तैयारी की। नपुंसक वेष में वृहन्नला नाम से रहने वाला अर्जुन उसका सारथी बना। विशाल कौरव सेना के दर्शनमात्र से उत्तर के होश उड़ गये और उसने भागने का प्रयत्न किया। इस अवसर पर अर्जुन ने अपना वेप बदला। वह स्वयं रथी बना और ढाढ़स बँधा कर उत्तर को सारथी बनाया। शमी वृक्ष पर रखे हुये अपने अस्त्र-शस्त्रों को लेकर अर्जुन ने भीषण युद्ध किया। कौरव-सेना को परास्त कर उसने विराट के गौओं की रक्षा की।
जनपद पाण्डवों द्वारा गोरक्षा और गोरक्षपुर में शब्दसाम्य अवश्य है किन्तु गोरक्षा की घटना और जनश्रुति के घटनास्थल में ऐतिहासिक मेल नहीं है। विराट मत्स्य देश के राजा थे। जहाँ पर आजकल अलवर और जयपुर के राज्य हैं वहाँ पर मत्स्य देश था। राजस्थान से गोरखपुर जनपद में विराट की गौवें चरने के लिये आयी हों, यह बात असंभव जान पड़ती है और फिर तिगर्त (कांगड़े) के राजा सुशर्मा उनका अपहरण करने इतने दूर आये हों, यह भी असंभव है।
महाभारत से यह मालूम होता है कि जिस समय युधिष्ठिर के राजसूय के अवसर पर भीम ने पूर्वीय भारत का दिग्विजय किया था उस समय अयोध्या के सूर्यवंशी राजा वृहद्बल और गोरखपुर जनपद में गोपालक और मल्लराष्ट्र थे; इधर विराट के अधिकार में कोई भी प्रदेश नहीं था। इसलिये स्पष्ट है कि जनश्रुति में पाण्डवों द्वारा गोरक्षा और गोरक्षपुर का मेल काल्पनिक है। कल्पना का आधार भौगोलिक है। गोरखपुर की जंगलप्रधान और हरी-भरी में गोचारण की काफी सुविधा है और गोरखपुर गोरक्षा का केन्द्र हो सकता है। जनता की कल्पना ने, जिसको प्राचीन इतिहास का बहुत धुंधला आभास है, इसी गोचर प्रधान भूमि को विराट की गोचरभूमि मान लिया।
वास्तव में गोरखपुर का प्राचीन नाम रामग्राम था। बौद्ध साहित्य के अनुसार रामग्राम रोहिणी के पूर्व में नागवंशी कोलिय गणतंत्र की राजधानी थी। कोलिय गणतंत्र के टूट जाने पर इस नगर की श्री हत हुई। फिर भी यह रामगाँव और रामगढ़ के नाम से पीछे प्रसिद्ध रहा। मध्ययुग में इसकी और अवनति हुई और यह एक छोटे गाँव के रूप में अवशेष रह गया था। इसके ऐतिहासिक महत्व को लोग बिल्कुल भूल गये थे।
रामग्राम के बदले गोरखपुर नाम पड़ने का कारण है प्रसिद्ध शैवमतावलम्बी योगी बाबा गोरखनाथ का इस स्थान पर समाधि लेना। तेरहवीं शताब्दी में उन्होंने समाधि ली। समाधि के आस-पास के स्थान को गोरखनाथ कहा जाने लगा। सोलहवीं शताब्दि विक्रम में सतासी राजवंश के कुछ श्रीनेत राजकुमारों ने, आपस के झगड़े के कारण, भौआपार को छोड़कर गोरखनाथ की समाधि के पास एक नगर बसाया और उसका नाम तपस्वी गोरखनाथ जी के नाम पर गोरखपुर रखा।
पीछे सतासी राज्य की यह राजधानी भी हो गयी। गोरखपुर के इस भाग को आज भी गोरखपुर जनप 10 तिहास पुराना गोरखपुर कहते हैं। गोरखपुर के विस्तार के बाद सारा शहर गोरखपुर कहलाने लगा। अकबर के समय से इस जनपद का नाम गोरखपुर सरकार पड़ा और लखनऊ के नवाबों और उनके बाद अंग्रेजों ने भी यह नाम जारी रखा। सरकार में पूरा बस्ती और आजमगढ़ का कुछ भाग भी सम्मिलित था। उन भागों के निकल जाने के बाद भी यह जनपद गोरखपुर कहलाता है। |